आकार पटेल का लेख: चीनी आक्रामकता पर इतने दब्बू निकलेंगे पीएम मोदी, ऐसी उम्मीद तो उनके आलोचकों तक को नहीं थी
चीन के मुद्दे पर सरकार में अलग-अलग सुर रहे हैं, इसलिए चीन की आक्रामकता पर हम अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाने का मौका भी गंवा चुके हैं। अगर हम चीन के मुद्दे पर पारदर्शिता अपनाते तो अंतरराष्ट्रीय समर्थन क साथ हम शी जिनपिंग पर दबाव बना सकते थे।
भारत में चीन की घुसपैठ पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोद के रुख से उनके और उनकी पार्टी के आलोचक तक भौंचक हैं। भले ही मोदी कितना भी प्रचार-प्रसार करते रहे हों, लेकिन उनकी कट्टर निंदा करने वाले तक यह तो मानते रहे हैं कि कुछ भी प्रधानमंत्री मोदी एक राष्ट्रवादी है और कोई माने या न माने वे राष्ट्रवाद या अति राष्ट्रवाद को बढ़ावा देते हैं।
लेकिन इन सहित किसी को भ ऐसी उम्मीद नहीं थी कि जब चीन भारत माता पर आक्रमण करेगा तो मोदी इस तरह दुम छिपाकर भाग खड़े होंगे।
चीन के मुद्दे पर मोदी ने जो बयान सार्वजनिक रूप से दिया उसमें इतना भर कहा, “न कोई वहां हमारी सीमा में घुस आया है, न ही कोई घुसा है, न ही हमारी कोई पोस्ट दूसरे कब्जे में हैं।” मोदी के इस बयान को चीन ने गलवान घाटी में अपने नियंत्रण के दावे के रूप में इस्तेमाल किया। इसी गलवान घाटी में चीन ने घुसपैठ की थी।
मोदी के ये शब्द शर्मिंदगी का ऐसा कारण बन गए कि पीएमओ को अपने अधिकारिक साइट से इस वीडियो को हटाना पड़ा।
इसके बाद मोदी इस पर कुछ नहीं बोले। वे ऐसा दिखाते रहे कि कोई घुसपैठ हुई ही नहीं। सैटेलाइट से ली गई तस्वीरें साफ बताती हैं कि जिन चीनी टैंट के हटाने की कोशिश में हमारे जवान शहीद हुए वह अब भी हमारे इलाके में लगे हुए हैं।
इन रिपोर्ट्स का सरकार की तरफ से कोई खंडन नहीं आया है कि चीन ने देपसांग में यानी भारतीय सीमा में 18 किलोमीटर भीतक तक चौथी बार घुसपैठ की थी। इस पर हमारी प्रतिक्रिया बेहद चिंताजनक रही। इसके बाद विदेश मंत्रालय की तरफ से लंबा बयान आया और चीन में भारतीय राजदूत का इंटरव्यूसामने आया जिसमें कहा गया कि चीन को लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल यानी वास्तविक नियंत्रण रेखा का सम्मान करना चाहिए। लेकिन इसके साथ ही यह कोई नहीं कह रहा कि चीन ने घुसपैठ की थी, क्योंकि अगर ऐसा कहा जाता है तो मोदी के बयान का खंडन होगा।
रक्षा मंत्रालय के सूत्रों ने पत्रकारों को गैर अधिकृत तौर पर जरूर बताया कि भारतीय फौज को खुली छूट दे दी गई है। लेकिन इसका क्या अर्थ है। सेना यह तय नहीं करती है कि चीन के साथ हम युद्ध की स्थिति में हैं या नहीं। यह तो एक राजनीतिक फैसला होता है। यह फैसला तो मोदी करेंगे कि चीन को अपने क्षेत्र से खदेड़ने के लिए भारत को कितना बल प्रयोग करना है, बिल्कुल उसी तरह जैसा कि पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय जवाहर लाल नेहरू ने किया था। नेहरू जी के फैसले के बाद ही सेना की भूमिका सामने आई थी।
सिर्फ यह भर कह देना कि मौजूदा हालात में सेना को खुली छूट दे दी गई है, सिर्फ अपनी जिम्मेदारियों से भागना भर है और राजनीतिक जिम्मेदारी को सेना के ऊपर डालना है।
दरअसल मोदी सरकार इस मुद्दे की प्रतिक्रिया किसी स्थानीय पुलिस के मामले की तरह रही है, जबकि चीन की मंशा साफ तौर पर सामरिक है। भारत को खतरा है लेकिन सरकार न तो इसे मानने को तैयार है और न ही इसके लिए तैयार दिखती है। क्योंकि हम अलग-अलग सुर में बोल रहे हैं, इसलिए चीन की आक्रामकता पर हम अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाने का मौका भी गंवा चुके हैं। अगर हम चीन के मुद्दे पर पारदर्शिता अपनाते तो अंतरराष्ट्रीय समर्थन क साथ हम शी जिनपिंग पर दबाव बना सकते थे। हुआ इसके उलट. चीन ने मोदी के बयान को इस्तेमाल करते हुए दावा कर दिया कि उसने तो कोई घुसपैठ की ही नहीं, इतना ही नहीं उसने तो तनाव के लिए भारत को जिम्मेदार ठहरा दिया और हमारी जमीन पर अपना दावा ठोक दिया।
छाती पीट-पीट कर मोदी की तारीफें करने वाले भी इस मुद्दे पर खामोश हो गए। चीन के मुद्दे को जिस अक्षमता से समझा या समझाया वे उससे भौंचक हैं। और यह तो वह मुद्दा था जिस पर किसी को उम्मीद नहीं थी कि मोदी इतने दब्बू निकलेंगे। आखिर यूपीए सरकार के शासनकाल में तो वे चीन द्वारा की गई अस्थाई घुसपैठ पर बड़ी-बड़ी बातें करते थे, लेकिन जब हकीकत में ऐसा हो रहा है तो मोदी का रवैया अचंभित करता है।
आखिर राष्ट्रवाद का क्या हुआ? हम इसे छद्म राष्ट्रवाद कह सकते हैं। यह फर्जी राष्ट्रवाद है। शब्दकोश में राष्ट्रवाद के अर्थ होते हैं कि देशभक्ति की भावना और राष्ट्र के प्रति पूर्ण समर्पण। यह एक विचारधारा है जो संप्रभुता को उत्साहित करती है और किसी भी विदेशी प्रभाव का विरोध करती है।
लेकिन लद्दाख में जो कुछ हुआ, वह तो इस परिभाषा के बिल्कुल उलट है। यह तो छद्म राष्ट्रवाद निकला। यानी सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें करो और अपने ही नागरिकों पर हमला कर दो, जबकि असली विदेशी आक्रमण हो तो दुम दबा लो। मुझे इस बात पर ताज्जुब है कि राजनीतिक तौर पर बेहद चतुर होते हुए भी मोदी इस मौके पर की जाने वाली प्रतिक्रिया को कैसे छोड़ बैठे।
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम गरीब, छोटे या चीन के मुकाबले कम शक्तिशाली देश हैं। कोई हमें धकियाता रहे और हम जवाब भी न दें। लेकिन हो ऐसा ही रहा है। सताने वाला तो हमेशा चाहता है कि उसका शिकार आंखों में आंखें डालकर न देखे, क्योंकि इससे उसे अपने शिकार को धकियाने में आसानी होती है।
मोदी को ऐसे समय में देश की एकता के महत्व को समझना चाहिए। इस समय तो मोदी से नफरत करने वाले लोग भी सरकार के साथ हैं, बशर्ते मोदी कहें तो सही कि चीनी आक्रमण ने देश की संप्रभुता को चुनौती दी है। ऐसा होगा तो लोकतांत्रिक तरीके से लड़ी जाने वाली राजनीतिक जंग दरकिनार कर दी जाएगी, क्योंकि यह समय तो बाहरी दुश्मन से लड़ने का है।
ऐसे समय में लोगों को एकजुट करने का काम सरकार और प्रधानमंत्री का है। लेकिन वे तो यह कहकर दुश्मन का साथ देते नजर आ रहे हैं कि वहां तो कुछ हुआ ही नहीं। मोदी के रवैये को हम कुछ भी कहें, लेकिन कम से कम यह राष्ट्रवाद तो नही ही है।
(यह लेखक के अपने विचार हैं।)
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