खरी-खरी: मोदी जी के हाव-भाव बता रहे हैं, खिसक चुकी है जमीन
मोदी के लिए सबसे बड़ी समस्या उत्तर प्रदेश बन गया है। जिस उत्तर प्रदेश ने 2014 में उन्हें भारत का मुकुट सौंप दिया था, उसी उत्तर प्रदेश ने इस बार मानो उनसे मुंह मोड़ लिया है। इसका कारण समझने के लिए हिंदुत्व राजनीति की सीमा को समझना होगा।
पहले घबराहट, फिर बौखलाहट और अब दीवानगी। सत्ता ऐसी ही चीज है कि जिसका हाथ से निकलने का डर किसी भी सत्तासीन व्यक्ति को बौखला ही नहीं दीवाना भी बना सकता है। नरेंद्र मोदी की मानसिक स्थिति और हावभाव से अब दीवानगी टपक रही है और क्यों न हो। मोदी के दिल- दिमाग पर सत्ता हाथ से निकल जाने का डर समा चुका है।
इस लेख के लिखे जाने तक पांच चरणों का मतदान पूरा हो चुका था। हर चरण में पिछले चरण से बीजेपी की स्थिति खराब होती साफ दिखाई पड़ रही थी। उनके लिए सबसे बड़ी समस्या तो उत्तर प्रदेश बन गया है। उत्तर प्रदेश ने नरेंद्र मोदी को 2014 में नरेंद्र मोदी बना दिया था। कुल 80 सीटों में से बीजेपी और उसके सहयोगियों को 73 सीटें जिताकर उत्तर प्रदेश ने मोदी को भारत का मुकुट सौंप दिया था। परंतु उसी उत्तर प्रदेश ने इस बार मोदी से मानो मुंह मोड़ लिया है। हर चरण में यहां बीजेपी की सीटें कम होती जा रही हैं। कारण। कारण समझने के लिए हिंदुत्व राजनीति की सीमा को समझना होगा।
याद रखिए, हिंदुत्व जब-जब सर चढ़कर बोलेगा, तब-तब उसकी प्रतिक्रिया में जातिवाद का भी उफान होगा। इसका सीधा उदाहरण खुद उत्तर प्रदेश का 1993 का विधानसभा चुनाव है। सन् 1992 में जब अयोध्या आंदोलन बाबरी मस्जिद गिरने के पश्चात् अपनी चरम सीमा पर था, तो कुछ महीनों पश्चात उत्तर प्रदेश में विधानसभा का चुनाव हुआ। यह वह चुनाव था जिसमें पहली बार उस समय बीएसपी अध्यक्ष कांशीराम और एसपी अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने हाथ मिलाकर चुनाव लड़ा था। उस चुनाव के नतीजों ने बड़े से बड़े चुनाव वैज्ञानिकों को आश्चर्यचकित कर दिया था, क्योंकि पिछड़ों और दलितों ने हिंदुत्व छोड़कर जातिवाद के आधार पर सामाजिक न्याय का मार्ग पकड़ कर बीजेपी को सत्ता से बाहर कर दिया था।
ठीक ऐसा ही इस बार भी उत्तर प्रदेश में बीजेपी के साथ हो रहा है। मोदी और योगी राज में हिंदुत्व उत्तर प्रदेश में अपनी चरम सीमा पर था। उसकी प्रतिक्रिया अब लोकसभा चुनाव में साफ नजर आ रही है। उत्तर प्रदेश में पिछड़ों और दलितों का लगभग 80 प्रतिशत वोट बैंक बीजेपी को छोड़ गठबंधन के साथ चला गया है। फिर ठीक 1993 की तरह उत्तर प्रदेश का मुस्लिम समुदाय बड़ी चतुराई से बीजेपी को हराने के लिए गठबंधन के साथ जुड़ता चला जा रहा है।
अतः उत्तर प्रदेश से इस बार बीजेपी का सूपड़ा साफ होता दिखाई पड़ रहा है। यदि उत्तर प्रदेश बीजेपी के हाथ से निकल गया, तो यूं समझिए लगभग आधा चुनाव ही हाथ से निकल गया। यदि उत्तर प्रदेश में जातिवाद चल रहा है, तो मंडल राजनीति का गढ़ बिहार भला बीजेपी को सन् 2014 जैसे नतीजे फिर कैसे दोहराने देगा। बिहार में पिछली बार बीजेपी को 22 सीटें मिली थीं। इस बार बिहार में भी संख्या नीचे ही जाएगी।
यही स्थिति कुछ दूसरे हिंदी भाषी राज्यों राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड में है। राजस्थान में बीजेपी ने सभी 25 सीटें जीती थीं। वहां विधानसभा चुनाव हारने के बाद बीजेपी के लिए इस बार पहले वाली स्थिति असंभव है।
मध्यप्रदेश में पिछली बार केवल दो सीटों, कमलनाथ की छिंदवाड़ा सीट और ज्योतिरादित्य सिंधिया की गुना सीट, के सिवाय बीजेपी ने राज्य की अन्य सभी सीटें जीती थीं। वहां भी इस बार उसे 10-15 सीटों के नुकसान का अनुमान है। छत्तीसगढ़ और झारखंड में तो बीजेपी की स्थिति बहुत खराब बताई जा रही है। अर्थात् भारत का हृदय यानी हिंदी भाषी प्रांत बीजेपी के लिए बिगड़ा हुआ है और यह मोदी के लिए बौखला देने वाली बात तो है ही।
अब चलिए, जरा दक्षिण की ओर। जहां चुनाव संपन्न हो चुके हैं। केरल की 20 सीटों में से उसे एक भी सीट मिलने का अनुमान नहीं दिखाई पड़ता है। तमिलनाडु में डीएमके और कांग्रेस की लहर बताई जा रही है। वहां भी भाजपा और उसके सहयोगियों को एक भी सीट जीतने की संभावना नहीं दिख रही है। कर्नाटक में भाजपा की स्थिति बेहतर रहने का अनुमान है। परंतु 2014 के विपरित इस बार वहां कांग्रेस एवं जेडी(एस) के हाथ मिलाने से भाजपा नीचे ही आएगी। स्पष्ट है कि दक्षिण भी भाजपा के लिए बिगड़ा हुआ है।
अब जरा पूरब देखिए, यहां सबसे बड़ा प्रांत बंगाल है। यहां ममता बनर्जी का जादू बंगाल के जादू की तरह चल रहा है। गोदी मीडिया के अतिरिक्त सभी राजनीतिक पंडित बंगाल में भी भाजपा को एक-दो से अधिक सीटें नहीं दे रहे हैं। अब ले-देकर बचा पश्चिम भारत यानी महाराष्ट्र और गुजरात। जानकार कहते हैं कि मोदी जी गुजरात में कम से कम छह सीटें हार रहे हैं। अर्थात् 2014 में पूरी 26 सीटें जीतने के पश्चात गुजरात में भी भाजपा नीचे आ रही है। बचे दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और हिमाचल प्रदेश जैसे छोटे राज्य, वहां पिछली बार भाजपा की लहर थी। अब वे दिन भी दूर हुए। पिछला आंकड़ा तो दूर की बात, इस बार इन राज्यों में भी घाटा ही होना है।
भारत का अब कोई कोना तो बचा नहीं जहां भाजपा की स्थिति आशाजनक दिखाई पड़ती हो। ऐसी दशा में नरेंद्र मोदी दीवानों जैसे भाषण कर रहे हैं, तो ऐसी कोई आश्चर्यचकित करने वाली बात नहीं है। अब पिछले कुछ दिनों से मोदी जी को बोफोर्स की याद आ रही है, तो चौंकिए मत। अरे, डूबते को तिनके का सहारा। वह समझ रहे हैं कि 1989 में वीपी सिंह को बोफोर्स ने जिता दिया था। कदापि बोफोर्स उनका भी भाग्य खोल दे। परंतु मोदीजी यह नहीं समझ रहे कि यह देश दिवंगत व्यक्ति को कभी कोसता नहीं है और ऐसा करने वालों को कोई माफ भी नहीं करता है। फिर राजीव गांधी जैसे देशभक्त शहीद की निर्मम हत्या के पश्चात् मोदी उनका अनादर करें इस आशा में कि वह दूसरे वीपी सिंह बन जाएंगे, तो मोदी भूल जाएं।
बोफोर्स का गड़ा मुर्दा उखाड़ने वाले मोदी यह समझ लें कि यह उनके ताबूत की आखिरी कील साबित होगी। इस लेख को जब आप पढ़ रहे होंगे तब तक नरेंद्र मोदी की दीवानगी चरम सीमा छू चुकी होगी। और तब तक मोदी बोफोर्स जैसी और बहुत उलटी-सीधी बातें कर चुके होंगे। कहा ना, सत्ता का हाथ से निकलना बड़े-बड़े को दीवाना बना देता है। यही अब मोदी जी का हाल है और वह बौखलाहट में दीवानों जैसे भाषण दे रहे हैं, तो बस समझ लीजिए उनके पांव तले जमीन खिसक चुकी है।
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