मोदीमय भारत हमेशा रूस और चीन के साथ खड़ा दिखता है, वर्तमान शासकों का चाल, चरित्र और चेहरा भी निरंकुश है

मोदीमय भारत की चीन और रूस भक्ति का सही आकलन करें तो जाहिर होगा कि ये तीनों देश मानवाधिकार हनन और पर्यावरण विनाश के पर्यायवाची बन चुके हैं। अंतर ये है कि चीन और रुस की कथनी-करनी एक ही रहती है, जबकि भारत के शासक बहुरुपिया से भी बदतर हो चले हैं- वे जो कहते हैं उसके ठीक उल्टा करते हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में पिछले एक वर्ष के लगातार प्रयासों के बाद एक प्रस्ताव लाया गया था, जिसके अनुसार जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सुरक्षा और शांति के लिए बड़े खतरे के तौर पर मान्यता दी जाए। इसकी चर्चा और मांग संयुक्त राष्ट्र में वर्ष 2007 से लगातार की जाती रही है और वर्ष 2009 में ऐसे प्रस्ताव के समर्थन में सामान्य सभा में सहमति भी बनी थी। मूल रूप से नाइजर और आयरलैंड द्वारा तैयार किये गए इस प्रस्ताव पर सुरक्षा परिषद् में मतदान कराया गया। इस समय भारत समेत इसके 15 सदस्य हैं, जिनमें से 12 ने प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया, शेष तीन देशों में से चीन मतदान से अनुपस्थित रहा और भारत और रूस ने प्रस्ताव के विरोध में मतदान किया। रूस का विरोध वीटो है, जाहिर है यह प्रस्ताव समाप्त हो गया।

मानवाधिकार, पर्यावरण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मुद्दों पर मोदीमय भारत हमेशा रूस और चीन के साथ ही खड़ा दीखता है। चीन और रूस अपने निरंकुश शासकों के लिए जाने जाते हैं। जाहिर है इस समय हमारे देश के शासकों का चाल, चरित्र और चेहरा भी निरंकुश ही है, जहां चोर ही कोतवाल की भूमिका निभाते हैं और जनता अनाथ है। सरकार जनता को महंगाई, बेरोजगारी और दूसरी समस्याओं में डुबोकर मंदिरों की यात्रा में व्यस्त है और असंख्य कैमरों के बीच निर्जन नदी में निर्लज्ज डूबकी का तमाशा दिखा रही है। कुछ मामलों में तो हमारा देश चीन और रूस से भी नीचे पहुंच चुका है, पर सरकार और मेनस्ट्रीम मीडिया लाशों के ढेर को विकास का तमाशा बताने में व्यस्त है।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के प्रस्ताव में जो कुछ कहा गया था, उसे दुनिया भर के वैज्ञानिक लम्बे समय से बता रहे हैं और अब तो अनेक देशों में सरकारी रिपोर्ट में भी बताया जा रहा है कि तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन दुनिया में अराजकता और अशांति का सबसे बड़ा कारण हैं। हाल में ही अमेरिका में बाइडेन प्रशासन ने एक रिपोर्ट को सार्वजनिक किया है जिसके अनुसार जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के प्रभावों से पूरी दुनिया में अराजकता बढ़ेगी, पर सबसे अधिक असर 11 देशों पर पड़ेगा, जिनमें भारत भी शामिल है।

इस रिपोर्ट को अमेरिका की खुफिया संस्थानों और पेंटागन ने संयुक्त तौर पर तैयार किया है, और यह वहां के खुफिया विभाग और रक्षा से जुड़े संस्थानों की जलवायु परिवर्तन के वैश्विक प्रभावों पर पहली रिपोर्ट है। इसके अनुसार अमेरिका समेत पूरी दुनिया तापमान वृद्धि, लगातार सूखा और चरम प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित हो रही है, इस कारण लोगों का पलायन और विस्थापन हो रहा है और पानी और खाद्यान्न जैसे संसाधनों पर अधिकार की कवायद चल रही है- जाहिर है इससे आर्थिक और सामाजिक अराजकता लगातार बढ़ रही है, पर वर्ष 2030 के बाद से इसका असर भयानक होगा। इन सब समस्याओं के असर से दुनिया अस्थिर होती जाएगी और आपस में टकराव बढ़ेगा। इन सबसे वैश्विक समरसता प्रभावित होगी।


इस रिपोर्ट के अनुसार अस्थिरता तो पूरी दुनिया में बढ़ेगी, पर 11 देश ऐसे हैं जिसमें इसका प्रभाव सबसे अधिक होगा। ये देश हैं- अफगानिस्तान, म्यांमार, भारत, पाकिस्तान, उत्तरी कोरिया, ग्वाटेमाला, हैती, होंडुरास, निकारागुआ, कोलंबिया और इराक। पूरी सूची से स्पष्ट है कि सबसे प्रभावित क्षेत्रों में भारतीय उपमहाद्वीप, दक्षिण अमेरिका और मध्य-पूर्व हैं। रिपोर्ट के अनुसार जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के भौतिक प्रभाव- यानि बाढ़, सूखा, चक्रवात, अत्यधिक गर्मी, बादलों का फटना और भू-स्खलन, जैसे प्रभाव बढेंगे, वैसे-वैसे भौगोलिक अस्थिरता बढ़ती जाएगी। इसका असर केवल प्रभावी देशों पर ही नहीं सीमित रहेगा, बल्कि अमेरिका और उसके मित्र देशों पर भी पड़ेगा क्योंकि इन देशों में उदारवादी सरकारें हैं और शरणार्थियों को शरण देने की योजनाएं हैं।

जलवायु परिवर्तन के सन्दर्भ में भारत मोदी काल के शुरू से ही दोहरी नीति अपनाता रहा है, और अभी ग्लासगो में संपन्न कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज के 26वें सत्र में भी भारत ने अंतिम समय पर अपनी शातिर चाल से अनेक गंभीर मसलों को अधिवेशन के अंत में प्रकाशित किये जाने वाले समझौते में शामिल नहीं होने दिया। इसमें एक बड़ा मसला कोयले के उपयोग को खत्म करने से संबंधित था– मूल समझौते में कोयले के उपयोग को खत्म करने के बारे में लिखा गया था, पर अंतिम समय में भारत, चीन और रूस ने इसे कोयले के कम उपयोग में बदल दिया।

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद् में 8 अक्टूबर को मानवाधिकार में स्वच्छ, स्वस्थ और सतत पर्यावरण के अधिकार को जोड़ने वाले एक प्रस्ताव को पारित करने के लिए मतदान किया गया था, जिसे 43 देशों की सहमति मिली। शेष चार देश- भारत, चीन, जापान और रूस मतदान से अनुपस्थित रहे। आश्चर्य है कि इसके ठीक बाद 12 अक्टूबर को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के स्थापना दिवस के अवसर पर पीएम मोदी ने अपने प्रवचन में कहा था कि “भारत आत्मवत सर्वभूतेषु के महान आदर्शों, संस्कारों और विचारों को लेकर चलने वाला देश है। आत्मवत सर्वभूतेषु यानि जैसा मैं हूं वैसे ही सब मनुष्य हैं- मानव-मानव में, जीव-जीव में भेद नहीं है”।

इसी दिन, यानि 8 अक्टूबर को ही, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद् में प्रस्ताव संख्या 48/14 पर भी मतदान कराया गया था। इसे मार्शल आइलैंड ने तैयार किया था और इसमें मानवाधिकार परिषद् में एक विशेषज्ञ की नियुक्ति की मांग थी जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से उपजे मानवाधिकार हनन पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार कर सके। इस प्रस्ताव के मतदान में भी भारतीय प्रतिनिधि अनुपस्थित रहे। इस प्रस्ताव के समर्थन में 42 मत, विरोध में 1 मत और 4 देश अनुपस्थित रहे। रूस ने विरोध में मत डाला और भारत, चीन, जापान और एरिट्रिया ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। मानवाधिकार परिषद् में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से मानवाधिकार हनन का आकलन करने वाले विशेषज्ञ की नियुक्ति तीन वर्षों के लिए की जाएगी।


केवल पर्यावरण विनाश में ही नहीं बल्कि मानवाधिकार हनन के मसले पर भी मोदीमय भारत चीन और रूस के साथ ही खड़ा रहता है। बीजिंग में जनवरी 2022 में शीतकालीन ओलंपिक्स का आयोजन किया जाने वाला है। इन दिनों दुनिया भर में इसके बहिष्कार की चर्चा है। चीन में मानवाधिकार हनन और चीन द्वारा हांगकांग में दमन के विरुद्ध अनेक देश इसका पूरी तरह से या फिर राजनैयिक स्तर पर बहिष्कार करने का ऐलान कर रहे हैं। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, और कनाडा इसके राजनैयिक बहिष्कार की घोषणा कर चुके है। अनेक यूरोपीय देश इसके पूर्ण बहिष्कार की योजना बना रहे हैं। इस बीच कुछ दिनों पहले ही भारत ने इन खेलों के समर्थन की घोषणा की है, आश्चर्य यह है कि चीन के विरुद्ध बड़ी-बड़ी बातें करने वाले सभी नेता खामोश हैं। कुछ दिनों पहले ही रूस ने भी इन खेलों का समर्थन किया है और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने स्वयं इसमें शामिल होने की हामी भरी है।

यदि आप मोदीमय भारत की चीन और रूस भक्ति का सटीक आकलन करें तो जाहिर होगा कि ये तीनों ही देश मानवाधिकार हनन और पर्यावरण विनाश के पर्यायवाची बन चुके हैं। अंतर यह है कि चीन और रुस की कथनी और करनी एक ही रहती है, जबकि भारत के शासक बहुरुपिया से भी बदतर हो चले हैं- वे जो कहते हैं उसके ठीक उल्टा करते हैं।

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