मोदी सरकार का विदेशी मुद्रा में कर्ज लेने का विचार खतरनाक, आर्थिक जोखिमों से घिर जाएगा देश
सत्ता के गलियारों में आम धारणा है कि पीएम मोदी की इच्छा के विरुद्ध कोई फैसला नहीं हो सकता है। कहना गलत नहीं होगा कि वित्त मंत्रालय से सुभाष चंद्र गर्ग की विदाई मोदी सरकार के ताजा बजट और कई फैसलों की विफलताओं को लेकर हताशा का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने स्पष्ट कर दिया है कि विदेशी संप्रभु बॉण्ड जारी करने के निर्णय पर दोबारा विचार नहीं किया जाएगा। इससे अचानक वित्त सचिव सुभाष चंद्र गर्ग के हटाए जाने और उन्हें विद्युत मंत्रालय में भेजने से उपजी इन अटकलों, खबरों पर विराम लग गया है कि उन्होंने विदेशी संप्रभु बॉण्ड को लेकर मोदी सरकार को अंधेरे में रखा और केवल उसके फायदे ही गिनाए।
सब जानते हैं कि नौकरशाह अपने मंत्रियों के आदेश का पालन करते हैं। वे कई सुझाव देते हैं। उन्हें मानना या ना मानना उनके मंत्री और सरकार पर निर्भर करता है। यह सत्ता के गलियारों में आम धारणा है कि प्रधानमंत्री मोदी की इच्छा के विरुद्ध कोई निर्णय नहीं हो सकता है। कहना न होगा कि वित्त मंत्रालय से सुभाष चंद्र गर्ग की विदाई मोदी सरकार के ताजा बजट और फैसलों की विफलताओं को लेकर हताशा का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
जुलाई में पेश बजट में वित्त मंत्री ने घोषणा की थी कि सरकारी घाटे (जो तकरीबन 7 लाख करोड़ रुपये का है) को पाटने के लिए विदेशी मुद्रा में संप्रभु बॉण्ड जारी किए जाएंगे। पिछले 70 साल में यह पहली बार होगा कि विदेशी कर्ज से सरकारी घाटे को पाटने की पहल की गई है। हटा दिए गए वित्त सचिव ने बताया था कि इस वित्त वर्ष की दूसरी तीमाही में सरकार सरकारी घाटे के 10 फीसदी के समतुल्य यानी 70 हजार करोड़ रुपये के विदेशी मुद्रा के संप्रभु बॉण्ड जारी कर सकती है। यह निर्णय सोच-विचार के बाद किया गया है।
वित्त मंत्रालय के मुख्य सलाहकार के.वी. सुब्रमण्यम ने भी इसकी पुष्टि की। इस मंत्रालय के अन्य सलाहकार संजीव सान्याल ने बताया कि विदेश से सस्ती ब्याज दरों पर कर्ज जुटाने से घरेलू ऋण बाजार में निजी क्षेत्र के ग्राहकों के लिए कर्ज की उपलब्धता बढ़ेगी। इस समय सरकार पर विदेशी कर्ज जीडीपी का पांच फीसदी से कम है जो विदेशी बाजारों से सरकारी कर्ज जुटाने की गुंजाइश को साफ दर्शाती है।
यह जानना महत्वपूर्ण है कि मोदी सरकार से पहले हर सरकार बुरे से बुरे समय में भारी जोखिमों के कारण विदेशी संप्रभु बॉण्ड के इस्तेमाल से बचती रही है। 1991 के घोर विदेशी मुद्रा संकट के समय भी ऐसे बॉण्ड जारी नहीं किए गए और विदेश में सोना गिरवी रखकर विदेशी मुद्रा का प्रबंध करना बेहतर समझा गया। इसके बाद भी 1997, 2003 और मनमोहन सिंह सरकार के पहले और दूसरे कार्यकाल में भी विदेशी बाजारों से संप्रभु बॉण्डों से कर्ज लेने के प्रस्ताव आए थे। लेकिन उन्हें सरकारों ने सख्ती से खारिज कर दिया था।
विदेशी बाजारों से संप्रभु कर्ज उगाहने से भारत ने सदैव परहेज किया है। इसी वजह से 2008 में लेहमन ब्रदर्स के दिवालिया होने से उपजे वैश्विक वित्तीय संकट के समय भी भारत अपने को बचाने में सफल रहा था। यही कारण है कि मोदी सरकार के विदेशी संप्रभु बॉण्ड लाने की पहल को रिजर्व बैंक के कई गर्वनरों ने जोखिम भरा बताया है।
रिजर्व बैंक के पूर्व गर्वनर सी. रंगराजन ने कहा कि उदारीकरण के बाद 90 दशक की शुरुआत में विदेशी मुद्रा कर्ज पर गहन विचार-विमर्श हुआ था, लेकिन यही बेहतर समझा गया कि इससे बचा जाए। यदि हम किसी विदेशी निवेशक को रुपये में भारतीय सरकारी बॉण्ड में निवेश की अनुमति देते हैं, तो विनिमय का जोखिम (विदेशी मुद्रा के सापेक्ष रुपये के मूल्य में उतार-चढ़ाव का खतरा) का भार विदेशी निवेशक पर होता है। पर यदि हम विदेशी मुद्रा में कर्ज लेते हैं, तो विनिमय का जोखिम हमें उठाना होता है।
इस सरकारी निर्णय के समर्थन में तर्क दिया जा रहा है कि इससे सरकार के कर्ज लेने के विकल्पों का विस्तार होगा और निजी क्षेत्र के लिए घरेलू कर्ज का आधार विस्तृत होगा और सस्ता भी। क्योंकि अभी केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और सार्वजनिक कंपनियां घरेलू बाजार से इतना ज्यादा कर्ज लेती हैं कि निजी क्षेत्र के लिए गुंजाइश ही नहीं बचती है। पर रंगराजन का कहना है कि बजट भाषण में खुद वित्त मंत्री ने बताया है कि वित्त वर्ष 2018-19 में विदेशी मुद्रा की आमद 6 फीसदी बढ़ी है, जबकि वैश्विक स्तर पर विदेशी मुद्राओं का बहाव कम हुआ है।
रंगराजन का तर्क है कि यदि यह स्थिति है, तब सरकार का विदेशी बाजारों से कर्ज लेने की विवशता का कोई कारण नहीं। रघुराम राजन का कहना है कि यदि छोटी संख्या में ऐसे बॉण्ड जारी किए जाते हैं, तो कोई खास फर्क पड़ने वाला नहीं है। लेकिन जब एक बार दरवाजे खुल जाएंगे, तो ज्यादा से ज्यादा ऐसे बॉण्ड जारी करने का लालच बढ़ेगा। आखिर किसी भी लत की शुरुआत थोड़े से ही होती है।
सरकार को विदेशी निवेशकों के खुदगर्ज व्यवहार की भी चिंता करनी चाहिए जो अर्थव्यवस्था के चंगे होने पर तो बढ़-चढ़कर निवेश करते हैं। पर जैसे ही अर्थव्यवस्था में सुस्ती-मंदी आती है, वे पूंजी लेकर फुर्र हो जाते हैं। राजन ने विकल्प सुझाया है कि इस योजना की बनिस्बत भारत को विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों के पूंजीकरण संबंधी नियमों को सुविधाजनक बनाना चाहिए और उनके लिए बॉण्ड में निवेश की मौजूदा सीमा में बढ़ोतरी करनी चाहिए।
अत्यधिक कर्ज लेने वाले देशों के सबक बेहद डरावने हैं। असल में विकास दर को तेजी से बढ़ाने के लिए दुनिया भर में सरकारें विदेशी कर्ज और निवेश को बढ़ावा देती रही हैं। विदेशी कर्ज और निवेश आकर्षित करने के लिए विनिमय दर को कृत्रिम रूप से कम स्तर पर रखने की हर सरकार कोशिश करती है। साल 1997 से पहले एशिया के टाइगर देश कहलाने वाले थाईलैंड, इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपीन्स, दक्षिण कोरिया को तेज आर्थिक विकास के आदर्श के रूप में पेश किया जाता था, जो उन्होंने अत्यधिक विदेशी कर्ज और निवेश के बूते पर हासिल की थी।
इसमें कृत्रिम विनिमय दर और फर्जी लेखों की अहम भूमिका थी। पर 1997 में इन देशों की ग्रोथ का गुब्बारा फट गया। विदेशी निवेशकों ने अपनी पूंजी खींच ली। नतीजन, डॉलर के सापेक्ष जून, 1997-जुलाई, 98 के दरम्यान इंडोनेशिया की करेंसी में 83 फीसदी, थाई करेंसी में 40 फीसदी, मलेशिया की करेंसी में 45 और फिलीपीन्स, दक्षिण कोरिया की करेंसी में तकरीबन 35 फीसदी की गिरावट आई। इस दौरान इन देशों की जीडीपी में भी भारी गिरावट दर्ज हुई। महंगाई बेतहाशा बढ़ गई। ये देश गहरी मंदी की चपेट में आ गए।
विदेशी कर्ज लेते समय सभी सरकारों को अपनी अकलियत पर भारी गुमान होता है। पर कब दबे पांव यह कर्ज अर्थव्यवस्था को चौपट कर देता है, इसका पता सर से पानी गुजर जाने के बाद ही चलता है। टाइगर देश इसके उदाहरण हैं। विदेशी कर्जों की निर्भरता के मर्ज की लत को लतखोरी में बदलने में समय नहीं लगता। विदेशी कर्ज और निवेश निवेशकों को अपेक्षित लाभ नहीं दे पाते हैं, तो आर्थिक दिक्कतें बेकाबू हो जाती हैं। मुद्रा का अवमूल्यन करना पड़ता है, कर्ज का बोझ बढ़ जाता है। निर्यात गिर जाता है। फिर, कर्ज का ब्याज चुकाने से जीडीपी ग्रोथ घट जाती है।
विश्वबैंक के अध्ययन के अनुसार उभरती अर्थव्यवस्थाओं जैसे चीन, भारत, ब्राजील आदि देशों में जब कर्ज-जीडीपी अनुपात 64 फीसदी से ऊपर निकल जाता है, तो अर्थव्यवस्था में दो फीसदी तक गिरावट आ जाती है। फरवरी महीने में भारत का कर्ज-जीडीपी अनुपात 68.4 फीसदी था। मोदी काल में ही 2014 से अब तक कुल कर्ज में 50 फीसदी वृद्धि हुई है। बीजेपी कुनबे के संगठन स्वदेशी जागरण मंच के सह संयोजक अश्विनी कुमार का कहना है कि विदेशी मुद्रा में कर्ज से देश उधारी के दुष्चक्र में फंस सकता है। यह कहना सही नहीं कि इन बॉण्डों से कर्ज सस्ता होगा। हम करेंसी जोखिम की अनदेखी कर रहे हैं जिससे महंगाई बढ़ सकती है।
कुल मिलाकर विदेशी मुद्रा में कर्ज लेना खतरनाक विचार है। इससे उन देशों को खतरा कम है जिनका निर्यात आयात से अधिक है। इस मानक पर भारत खरा नहीं उतरता। मोदी काल में निर्यातों में लेश-मात्र ही वृद्धि हुई है और निर्यात अरसे से एक स्तर पर ही अटके हुए हैं। इस योजना में थोड़ा सा भी कुप्रबंधन हुआ, तो देश आर्थिक जोखिमों से घिर जाएगा। वैसे भी अर्थव्यवस्था के प्रबंधन को लेकर मोदी सरकार का रिकॉर्ड आश्वस्तकारी नहीं है। इसलिए मोदी सरकार का विदेशी मुद्रा में कर्ज लेने का निर्णय डरावना है।
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