म्यांमार की नरसंहारी सेना जैसी ही है मोदी सरकार, जनता के अधिकारों को कुचलने के लिए करती है सत्ता का इस्तेमाल
म्यांमार में तख्तापलट के साथ ही दुनिया के एक और देश से लोकतंत्र मर गया, पर दुनिया और संयुक्त राष्ट्र को कोई फर्क नहीं पड़ता। यह दूसरे निरंकुश शासकों के लिए एक मिसाल है कि वे अपने देश में जितना चाहें जनता का दमन कर सकते हैं, और दुनिया आंखे बंद कर लेगी।
दुनिया में लोकतंत्र का क्या हाल रह गया है इसे म्यांमार के हालात से समझा जा सकता है। अब म्यांमार की सेना ने घोषणा कर दी है कि अगस्त 2023 तक उनकी कार्यकारी सरकार देश का शासन चलाएगी और प्रधानमंत्री होंगे सेना के मुखिया जनरल मिन औंग हलिंग। 1 फरवरी 2021 को म्यांमार में सेना द्वारा लोकतांत्रिक सरकार का तख्ता पलट करते हुए सेना ने घोषणा की थी कि एक वर्ष के भीतर ही फिर से चुनाव कराकर देश में लोकतांत्रिक सरकार को सत्ता सौप दी जाएगी, पर अब अगस्त 2023 तक की घोषणा सेना की और तख्तापलट के सूत्रधार जनरल मिन औंग हलिंग की मंशा को उजागर करती है।
इस बीच पूरी दुनिया जो लोकतंत्र पर बड़े भाषण देती है, बड़े सम्मलेन आयोजित करती है, मानवाधिकार की बातें करती है- म्यांमार के मामले पर खामोश है। यही दुनिया चीन के मानवाधिकार हनन और हांगकांग में लोकतंत्र समर्थकों को जेल भेजे जाने पर भारी-भरकम वक्तव्य देती है और चीन की भर्त्सना करती है। दुनिया के देश बेलारूस में मानवाधिकार हनन की भी चर्चा करते हैं पर म्यांमार में जो कुछ सेना द्वारा किया जा रहा है, अमेरिका समेत पूरी दुनिया खामोश है। संयुक्त राष्ट्र भी म्यांमार पर खामोश है। वैसे भी संयुक्त राष्ट्र ने अब अपनी गरिमा और महत्व को पूरी तरह खो दिया है क्योंकि इसके सभी तंत्र पर दुनिया के निरंकुश शासकों का कब्जा है।
म्यांमार में सेना ने तख्तापलट के बाद उसे वर्ष 2008 के संविधान के तहत जायज ठहराया था, जबकि इस संविधान को वहां की सेना ने ही अपने अनुरूप तैयार किया था। इसी फरवरी में तख्तापलट के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री आंग सान सु की पर सेना ने चुनावों में धांधली और भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे, पर आज तक सेना ने एक भी आरोप के साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किए हैं। हाल में ही सेना ने पिछले चुनाओं को आधिकारिक तौर पर रद्द कर दिया है और एक नए चुनाव आयोग का गठन किया है।
सेना के तख्तापलट के बाद से म्यांमार में सेना के विरुद्ध आन्दोलन किये जा रहे हैं, जिसमें अब तक लगभग एक हजार नागरिक मारे गए हैं और तीन हजार से अधिक आन्दोलनकारियों को कैद कर लिया गया है। मीडिया के सभी स्त्रोत बंद कर दिए गए हैं और अधिकतर पत्रकारों को जेल में डाल दिया गया है। अब तो सेना पर भी नागरिकों के हमले हो रहे हैं और सैनिक भी मारे जा रहे हैं। म्यांमार भी अब गृहयुद्ध की तरफ बढ़ रहा है, जहां की अनेक जनजातियां अब सेना से लोहा ले रही हैं।
इस दौर में म्यांमार कोविड-19 के सन्दर्भ में अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। देश की स्वास्थ्य सेवाएं जर्जर अवस्था में हैं, ऑक्सीजन की कमी है, पर जनरल मिन औंग हलिंग के अनुसार कोविड-19 का यह दौर जनता द्वारा छेड़े गए जैव-युद्ध का नतीजा है। इस सन्दर्भ में म्यांमार दुनिया का पहला देश होगा, जहां की सत्ता अपनी ही जनता पर जैव-युद्ध का आरोप लगा रही है।
इधर भारत की मोदी सरकार को म्यांमार में सेना द्वारा लोकतांत्रिक सरकार का तख्तापलट कहीं से भी ऐसा नहीं लगता, जिसकी भर्त्सना भी की जा सके। अपने देश में 2014 के बाद से लोकतंत्र जिस हालत में है, उसमें मोदी सरकार का यह रवैया कहीं से भी आश्चर्यजनक नहीं है। आखिर ट्रंप जैसे तानाशाह के लिए “अबकी बार ट्रंप सरकार” का नारा भी तो मोदी जी ने ही लगाया था। ब्राजील के तानाशाह बोल्सेनारो, मानवाधिकार के हनन के लिए कुख्यात इजराइल के प्रधानमंत्री, अपने विरोधियों को विषपान कराने वाले रूस के पुतिन, मानवाधिकार का लगातार हनन करने वाले सऊदी अरब के शासक भी तो मोदी जी के सबसे अच्छे मित्रों में शुमार हैं। म्यांमार की सेना के साथ अडानी के व्यापारिक रिश्ते भी हैं, जाहिर है मोदी जी अडानी के व्यापारिक नुकसान का कोई काम नहीं करेंगे।
म्यांमार में सेना जो कुछ कर रही है, उससे भी बुरा हमारे देश की तथाकथित लोकतांत्रिक सरकार कर रही है। म्यांमार में सेना ने एक लोकतांत्रिक सरकार से सत्ता हड़प ली, पर यह खेल तो हमारे देश में बरसों से चल रहा है। हम और किसी मामले में भले ही विश्वगुरु हों या ना हों, पर हमारे गृहमंत्री अमित शाह तो तख्तापलट के निर्विवाद विश्वगुरु हैं। कर्नाटक हो, मध्य प्रदेश हो, गोवा हो या फिर पूर्वोत्तर के राज्य हों- विधायकों को मंडी से खरीदकर अमित शाह ने हरेक जगह यह कारनामा किया है। क्या आपने कभी गौर किया है कि जिस राज्य में चुनाव होने वाले होते हैं वहां केंद्र का काम छोड़कर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री लगातार दौरे करते हैं, इतने दौरे तो बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी नहीं करते।
म्यांमार में सेना ने इन्टरनेट, सोशल मीडिया और स्वतंत्र मीडिया पर पूरी तरह अंकुश लगा दिया है। हमारे देश में तो तथाकथित लोकतंत्र के बाद भी इन्टरनेट दुनिया के किसी भी देश की तुलना में सबसे अधिक बंद किया जाता है और सोशल मीडिया पर सरकार की नजरें गड़ी रहती हैं। स्वतंत्र मीडिया पर चर्चा ही बेमानी है, क्योंकि हमारे देश का मीडिया स्वयं जनता के विरुद्ध और सरकार की शरण में चला गया है। मेनस्ट्रीम मीडिया तो पिछले अनेक वर्षों से जनता से ही युद्ध कर रहा है। इक्का-दुक्का मीडिया संस्थान, जो आज भी निष्पक्ष हैं उनके पीछे सरकार ने अपने जांच-संस्थानों को पागल कुत्तों की तरह लगा दिया है।
म्यांमार में सेना शांतिपूर्ण आन्दोलनों पर बल प्रयोग कर रही है, गोलियां बरसा रही है। इस मामले में मोदी सरकार बहुत आगे है– यहां आन्दोलन से पहले ही लोकतंत्र समर्थकों को देशद्रोही बताकर जेल में डाल दिया जाता है। म्यांमार में जेल जाने वाले अधिकतर युवा हैं, पर हमारे देश में तो बुजुर्गों, शारीरिक तौर पर अशक्तों को भी जेल में डाल कर मार डाला जाता है। म्यांमार में सेना ने अब तक जितने बंदी नहीं बनाए होंगे उससे कई गुना अधिक बंदी तो मोदी सरकार ने कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने के ठीक पहले ही बना दिए थे।
सरकार और शरणागत मीडिया लगातार दावा करती है कि कश्मीर में हालात सामान्य हैं, पर इन कैदियों को जेल के बाहर नहीं किया गया है। हमारे देश में सरकार आन्दोलनों को कुचलने का काम बखूबी करती है– अपने लोगों को आन्दोलनकारियों के बीच पहुंचा कर हिंसा भड़काती है, सरकारी तंत्र आन्दोलनों के बीच में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाता है, और सीएए-एनआरसी के विरोध के आन्दोलन से निपटने के लिए तो सरकार ने दिल्ली में दंगे ही प्रायोजित कर दिए।
म्यांमार की सेना कोविड-19 को जनता द्वारा जैव-युद्ध बताती है, हमारे देश की सरकार ने तो कोरोना महामारी का इस्तेमाल ही जनता के विरुद्ध हथियार के तौर पर किया है। एक ऐसा युद्ध, जिसमें लाखो लोगों की मौत हो गई, पर सरकार की नजर में कोई नहीं मरा। इससे कम मौतें और लाशें देखकर तो सम्राट अशोक ने हिंसा का रास्ता छोड़कर बौद्ध धर्म अपन लिया था, पर मोदी सरकार में नरसंहार का पैमाना लगातार बढ़ता ही जा रहा है।
अपने 76 वर्ष पूरे होते-होते संयुक्त राष्ट्र सामान्य जनता के लिए अपना पूरा महत्त्व खो चुका है, अब यह उन देशों की धरोहर बन गया है जो जनता का दमन करते हैं और मानवाधिकार का खुलेआम हनन करते हैं। ऐसे देश दुनिया की नजरों में अपने आप को निर्दोष साबित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र की सम्बंधित संस्थाओं के सदस्य पद पर पहुंच जाते हैं। दुनिया में भारत, रूस, चीन, पाकिस्तान, मेक्सिको और क्यूबा जैसे देश मानवाधिकार हनन के मामले में अग्रणी हैं और ये सभी देश संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार संरक्षण से जुडी संस्था, ह्यूमन राइट्स काउंसिल के सदस्य भी हैं और ऐसे देशों को सदस्य बनाने के लिए बड़ी संख्या में अन्य देश भी समर्थन करते हैं।
हाल ही में 2021 से 2023 तक के लिए ह्यूमन राइट्स काउंसिल के सदस्यों के चुनाव में चीन, पाकिस्तान, रूस, मेक्सिको और क्यूबा के अतिरिक्त बोलीविया, कोटे द आइवरी, फ्रांस, गैबन, मलावी, नेपाल, सेनेगल, यूक्रेन, यूनाइटेड किंगडम और उज्बेकिस्तान की जीत हुई है और ये देश दुनिया के मानवाधिकार की अब निगरानी करेंगे। भारत वर्ष 2019 से 2021 तक के लिए इसका सदस्य है। दुनिया में मानवाधिकार का क्यों अधिक से अधिक हनन किया जा रहा है, यह इन देशों की सूचि से समझा जा रहा है।
लगभग सभी मानवाधिकार संगठनों और कार्यकर्ताओं के अनुसार पिछले कुछ वर्षों के दौरान संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार काउंसिल अपनी गरिमा खो चुकी है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान इसके अधिकतर चुने गए सदस्य स्वयं अपने देश में मानवाधिकार का खुलेआम हनन कर रहे हैं, और अपने कारनामों पर पर्दा डालने और अपने विरुद्ध आवाज दबाने के लिए इस काउंसिल की सीट का उपयोग करते हैं।
दुनिया के एक और देश से लोकतंत्र मर गया, पर दुनिया और संयुक्त राष्ट्र को कोई फर्क नहीं पड़ता। यह दूसरे निरंकुश शासकों के लिए एक मिसाल है कि वे अपने देश में जितना चाहें जनता का दमन कर सकते हैं, और दुनिया आंखे बंद कर लेगी।
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