बार-बार आपदाओं के बावजूद तापमान वृद्धि पर मोदी सरकार उदासीन, उपाय के नाम पर निपटने का बस नाटक करती है
हमारी सरकार के पास जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के उपाय हैं- अमेरिका, यूरोपीय देशों और चीन को जिम्मेदार ठहराना और सौर ऊर्जा में कहीं न दिखने वाली उपलब्धियों का डंका पीटना। सौर ऊर्जा के नशे में चूर सरकार कोयले के उपयोग को लगातार बढ़ावा देती जा रही है।
इस वर्ष के पहले सात महीनों में ही देश ने दो चक्रवात, एक जानलेवा हिमस्खलन, चरम गर्मी, भयानक बाढ़, अनेक भूस्खलन की घटनाएं, बादलों का फटना और आकाशीय बिजली गिरने से सैकड़ों मौतें देख ली हैं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैज्ञानिक पिछले अनेक वर्षों से चेतावनी दे रहे है कि जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के प्रभाव से चरम प्राकृतिक आपदाएं साल-दर-साल बढ़ रही हैं और भारत ऐसे देशों में शीर्ष पर है, जहां सबसे अधिक असर होगा।
लेकिन हमारी सरकार जलवायु परिवर्तन की माला तो बहुत जपती है, पर इसे नियंत्रित करने के उपायों में फिसड्डी है। हमारे देश की तुलना में इस क्षेत्र में बेहतर काम एशिया-प्रशांत खेत्र के अनेक छोटे देश कर रहे हैं। हमारी सरकार के पास जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के उपाय हैं– अमेरिका, यूरोपीय देशों और चीन को इसके लिए जिम्मेदार ठहराना और सौर ऊर्जा में कहीं न दिखने वाली उपलब्धियों का डंका पीटना। सौर ऊर्जा के नशे में चूर सरकार कोयले के उपयोग को लगातार बढ़ावा देती जा रही है।
हमारा देश इस समय भयानक बाढ़, बादलों के फटने, चट्टानों के दरकने और भूस्खलन की चपेट में है। इसी दौरान आकाशीय बिजली गिरने की घटनाओं में 80 से अधिक लोगों के साथ ही असम में लगभग 20 हाथियों की मौत हो चुकी है। देश में पिछले कुछ वर्षों के दौरान ही बिजली गिरने की घटनाओं में 35 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो चुकी है। जून के अंत से जुलाई के पहले सप्ताह तक पूरा उत्तर भारत और मध्य भारत अत्यधिक गर्मी से घिरा था और तापमान के नए रिकॉर्ड बन रहे थे। इससे पहले देश के पश्चिमी सागर तट पर तौकते और पूर्वी क्षेत्र में यास चक्रवात ने अपना रौद्र रूप दिखाया था। साल के शुरू में ही उत्तराखंड में ऋषिगंगा नदी के ऊपरी क्षेत्र में ग्लेशियर टूट कर गिरा था, जिसके असर से दो हाइड्रोपावर प्लांट बह गए और काम कर रहे श्रमिक बह गए, जिसमें से अधिकतर का कुछ पता नहीं चला।
वर्ष 2014 के बाद से हमारे देश में एक ऐसी सरकार काम कर रही है जो केवल साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण, निरंकुश शासन, जनता के दमन में माहिर है और दूसरी हरेक समस्या के प्रति उदासीन है और उनसे निपटने का नाटक करती है। इस सरकार के पास किसी भी समस्या के हल के नाम पर दूसरों पर जिम्मेदारी थोपना और पहले से भी बड़ी समस्या खड़ी कर नागरिकों को बेवकूफ बनाने का फार्मूला है। गरीबी, अर्थव्यवस्था, सामाजिक समरसता, असमानता, बेरोजगारी और यहां तक कि कोविड-19 के मामले में भी यही इस सरकार ने किया है। केवल सामाजिक समस्याओं के साथ ही ऐसा इस सरकार ने किया हो, ऐसा नहीं है बल्कि पर्यावरणीय समस्याओं का भी निदान सरकार के पास ऐसा ही है।
तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन का भी मोदी सरकार इसी तरह से निदान कर रही है। आपने गौर किया होगा, पिछले दो-तीन वर्षों से वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण के समाचार अचानक कम हो गए हैं और जलवायु परिवर्तन की चर्चा सरकारी स्तर पर उभरने लगी है। अब तो पर्यावरण और वन मंत्रालय के साथ जलवायु परिवर्तन को भी जोड़ दिया गया है। दूसरी तरफ जलवायु परिवर्तन पर इसी सप्ताह 51 देशों के मंत्रियों की एक बैठक थी, जिसमें नवम्बर में यूनाइटेड किंगडम के ग्लासगो शहर में आयोजित किये जाने वाले कांफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज की 26वें बैठक पर सघन मंत्रणा की जानी थी, उसमें भारत ने हिस्सा ही नहीं लिया। यह सरकार उसी अंतर्राष्ट्रीय बैठक में शिरकत करती है, जहां किसी और पर आक्षेप किया जा सके या फिर उलजलूल कुछ भी बोला जा सके। जहां वैज्ञानिक और तकनीकी विवेचना तय रहती हैं, वहां हमारी सरकार नदारद रहती है। कारण बताया गया, संसद का सत्र चल रहा है।
दूसरी तरफ संसद में प्रधानमंत्री भोली सी सूरत बनाकर बेचारगी दिखाते हुए बताते हैं कि विपक्ष संसद चलने ही नहीं देता। यदि प्रधानमंत्री को लगता है कि विपक्ष संसद का सत्र चलने नहीं देता, तो फिर एक महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय बैठक में पर्यावरण मंत्री ऑनलाइन तो जुड़ ही सकते थे। आश्चर्य यह है कि बैठक में हिस्सा नहीं लेने का ऐसा हास्यास्पद कारण उस देश ने बताया है, जहां संसद-सत्र के बीच में खुद प्रधानमंत्री मोदी विदेश यात्राएं करते हैं। 23 जुलाई, 2018 को प्रधानमंत्री मोदी तीन अफ्रीकी देशों– रवांडा, यूगांडा और दक्षिण अफ्रीका के पांच दिवसीय दौरे पर गए थे और उस समय संसद का सत्र चल रहा था।
इस सम्मलेन का आयोजन जलवायु परिवर्तन से संबंधित कांफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज के 26वें अधिवेशन के यूनाइटेड किंगडम स्थित सचिवालय ने किया था और इसमें कुल 51 देशों को बुलाया गया था। कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज का अधिवेशन यूनाइटेड किंगडम के ग्लासगो शहर में नवम्बर में होना तय है। पर, इस अधिवेशन की तैयारियां पहले से ही जोर-शोर से की जा रही हैं, प्रारम्भिक चर्चाएं लगातार की जा रही हैं, जिससे अधिवेशन के दौरान कुछ ठोस परिणाम निकल सके।
कांफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज के वर्तमान अध्यक्ष अलोक शर्मा ने कहा की पहले सभी देशों को लन्दन आने का न्योता दिया गया था, पर बाद में जो ना आ सके उन्हें वर्चुअल तौर पर जुड़ने की अनुमति दी गई थी। इसके बाद भी भारत सरकार ने संसद-सत्र का हवाला देकर अधिवेशन से अपने आप को बाहर रखा। आलोक शर्मा के अनुसार यह अधिवेशन बहुत प्रभावी रहा और इसमें हरेक सदस्य तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोकने पर एकमत थे। इसके अतिरिक्त पेरिस समझौते की कार्यप्रणाली, जिसे पेरिस रूल बुक के नाम से जाना जाता है, पर विस्तृत चर्चा की गई। सभी देशों ने जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि रोकने से संबंधित दीर्घकालीन रणनीति प्रस्तुत करने पर भी सहमति जताई, जिससे कार्बन उत्सर्जन शून्य के स्तर तक पहुंचाने के लिए एक समय सीमा तय की जा सके।
अब तो भारत सरकार के किसी निर्णय से आश्चर्य भी नहीं होता। जिस संसद के अधिवेशन का हवाला देकर इस अधिवेशन से सरकार ने किनारा कर लिया, उसी संसद सत्र के बीच में पिछले सप्ताह भारत ने जी-20 देशों के ऊर्जा और जलवायु से संबंधित मंत्रीस्तर के अधिवेशन में हिस्सा लिया। इस अधिवेशन में भारत ने वही पुराना रवैया अपनाया और जलवायु परिवर्तन का पूरा ठीकरा विकसित देशों के सिर पर फोड़ दिया। इन्हीं सारे बेतुके दावों से भारत सरकार अपने कोयला-प्रेम को सही ठहराती है। इस अधिवेशन में भारत के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री ने बताया कि दुनिया के कुल ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में से भारत का योगदान महज 7.1 प्रतिशत है।
यह आंकड़ा इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे भारत सरकार के आंकड़ों की बाजीगरी को समझने में मदद मिलती है। जून 2021 में फिक्की के महिला एसोसिएशन को संबोधित करते हुए तत्कालीन पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा था कि पिछले 200 वर्षों में जितना भी ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन पूरी दुनिया में किया गया है, उसमें महज 3 प्रतिशत भारत का योगदान है। आंकड़े पेश करना और उसका स्त्रोत नहीं बताना, यह बीजेपी सरकार की परंपरा के अनुरूप है और प्रकाश जावड़ेकर ने भी यही किया। प्रधानमंत्री मोदी भी लगातार ऐसा ही करते हैं। बहरहाल ऐसा कोई आंकड़ा कहीं भी उपलब्ध नहीं है, पर भारत सरकार यूरोप, अमेरिका और चीन को जिम्मेदार ठहराकर और झूठे आंकड़ों से जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि का हल निकालने में व्यस्त है।
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