मोदी सरकार और वैचारिकता के अभाव में तेजी से लुढ़कते कलाकार-फिल्मकार
‘राष्ट्रवाद के नवाचार’ के तहत हिंदी फिल्मों में इन दिनों दिखावटी देशभक्ति बढ़ गई है। फिल्मों में ‘नेशनलिज्म’ कई रूपों में फूट रहा है। जानकार बताते हैं कि सत्ताधारी पार्टी के समर्थक अपने पक्ष में समर्थन के लिए संगठित रूप से फिल्म इंडस्ट्री में सक्रिय हैं।
रेमो फर्नांडिस की ‘स्ट्रीट डांसर’ फिल्म की अभी शूटिंग चल रही है। इसमें वरुण धवन डांसर की भूमिका में हैं। हाल ही में इस फिल्म की शूटिंग के कुछ दृश्य सोशल मीडिया पर शेयर किए गए। एक दृश्य में डांसर राष्ट्रीय ध्वज लेकर दौड़ते नजर आ रहे हैं। निश्चित ही डांसर किसी डांस कंपिटिशन में भारत की टीम के रूप में हिस्सा ले रहे होंगे। डांस कंपिटिशन में अधिकृत रूप से भारत कोई दल नहीं भेजता। फिर भी डांसर भारतीय होने के नाते तिरंगा लहरा रहे हैं।
‘राष्ट्रवाद के नवाचार’ के तहत फिल्मों में ऐसी दिखावटी दृश्यावलियां बढ़ गई हैं। मौका मिलते ही या मौका निकाल कर हर कोई देशभक्ति दिखा रहा है। कभी राष्ट्रगान, तो कभी राष्ट्रध्वज, कभी देश की बात, तो कभी अतीत का एकांगी गौरव। हिंदी फिल्मों में राष्ट्रवाद का चलन बढ़ा है। ‘नेशनलिज्म’ अनेक रूपों में फूट रहा है। सत्ताधारी पार्टी की सोच और देश के प्रति लोकप्रिय अप्रोच की भावनाएं हिलोरें मार रही हैं।
फिल्म एक कलात्मक उत्पाद है। मुख्यधारा की फिल्मों में कला पर उत्पाद हावी हो चुका है। निर्माता की कोशिश रहती है कि वह दर्शकों के लिए मनोरंजन का ऐसा उत्पाद लेकर थिएटर में आए, जिसे ज्यादा से ज्यादा दर्शक देखने आएं। दर्शकों को लुभाने के लिए यूं तो हमेशा से लोकप्रिय धारणाओं और विचारों पर केंद्रित फिल्में आती रही हैं। प्रत्यक्ष और प्रच्छन्न रूप से आजादी के पहले और बाद के दशकों में भी निर्माता-निर्देशक राष्ट्रीय चेतना और आकांक्षा से आलोड़ित होते रहे हैं। केंद्रीय सत्ता के दिखाए और बांटे सपनों की कथा फिल्मों में परोसी जाती रही है।
हिंदी फिल्मों में यह चलन आम रहा है। फर्क इतना आया है कि एक-दो दशक पहले तक ऐसे प्रयास सायास नहीं होते थे। विचार कहानी का हिस्सा बनकर आते थे। आज की तरह उन्हें थोपना, पिरोना या चिपकाना नहीं पड़ता था। इधर की फिल्मों में जब अचानक हमारे नायक और उसके पक्ष के लोग ‘राष्ट्रवाद’ का सुर पकड़ते हैं, तो खटका सा होता है। ऐसा लगता है कि कहीं कोई दबाव, प्रभाव या झुकाव काम कर रहा है। अभी खौफ या जबरदस्ती की स्थिति नहीं है। वैसे जानकार बताते हैं कि सत्ताधारी पार्टी के समर्थक अपने पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए संगठित रूप से फिल्म इंडस्ट्री में सक्रिय हैं।
सोशल मीडिया से लेकर सभा-सेमिनारों तक में सुचारू रूप से सक्रिय दक्षिणपंथी विचारों के कार्यकर्ता अपने तई समर्थन जुटाने, आधार बनाने और सोच फैलाने में लगे हुए हैं। प्रगतिशील और विरोधी विचारों को ‘सूडो लिबरल’ और ‘सूडो सेक्युलर’ बताकर कोसने का काम बखूबी जारी है। पूरी कोशिश है कि ‘पैराडाइम’ ही बदल जाए और सिर्फ सत्ता के सुकून की बातें की जाएं। प्रतिकूल विचार आते ही टूट पड़ो और अपनी सीमित नकारात्मक जानकारी से धज्जियां उड़ाओ। सोशल मीडिया को नक्कारखाना बना दो। जहां संयत और संतुलित विचार तूती की आवाज बन कर रह जाएं। सोशल मीडिया पर एक्टिव भीड़ विवेक को त्याग चुकी है।
पारंपरिक मीडिया की स्थिति इससे अलग या बेहतर नहीं है। वहां भी विचार और विश्लेषण के नाम पर कचरा फैलाने का काम चल रहा है। चंद पंक्तियों के सवाल और टिप्पणियों के जवाब में अग्रलेख, संपादकीय और समाचार लिखे जा रहे हैं। विमर्श को खास दिशा दी जा रही है। मीडिया और सोशल मीडिया के इस चलन से फिल्म बिरादरी का प्रभावित होना लाजमी है। सोच-समझ और वैचारिकता के अभाव में फिल्मकार तेजी से लुढ़क रहे हैं।
पिछले चुनाव के पहले नरेंद्र मोदी लगातार फिल्म बिरादरी के चुनिंदा सदस्यों से मिलते रहे हैं। प्रधानमंत्री के साथ फिल्म बिरादरी की तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल होती रही हैं। मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री में कुछ व्यक्तियों को संपर्क साधने और करीब लाने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। नतीजा यह होता है कि प्रधानमंत्री से मिलकर लौटने के बाद करण जौहर समेत तमाम लोकप्रिय चेहरे सोशल मीडिया पर ‘नए भारत’ के लिए जरूरी परिवर्तन की ताकीद करते हैं... हामी भरते हैं।
पिछले दिनों जब देश के 49 बुद्धिजीवियों और फिल्मकारों ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा कि कैसे ‘जय श्रीराम’ युद्धघोष बनता जा रहा है, तो उस पर विमर्श और चिंता जाहिर करने के बजाय दक्षिणपंथी धड़े ने खुला पत्र लिखा कि क्यों चुनिंदा मामलों में ही ऐसी आवाजें उठती हैं। इस पत्र पर प्रसून जोशी और कंगना रनोट समेत 62 व्यक्तियों के हस्ताक्षर थे। स्थिति यह है कि कोई भी सवाल पूछे, तो जवाबी हमला कर दो।
पीछे पलट कर देखें तो आजादी के बाद के दशकों में हिंदी फिल्में और फिल्मकार नेहरू के सपनों के भारत की कहानियां लिख और दिखा रहे थे। साम्यवाद, बराबरी, प्रेम, भाईचारा और तरक्की आदि विषयों को प्राथमिकता दी जा रही थी। सामंतवाद की बेड़ियों में जकड़े भारत ने गुलामी तोड़कर अंगडाई ली थी। महात्मा गांधी ने प्रेम, अहिंसा और सद्भाव का पाठ पढ़ाया था। देश की विविधता में एकता की तलाश की जा रही थी। आजादी के बाद के भारत में मौजूद सामाजिक विसंगतियों को निशाना बनाया जा रहा था। राष्ट्र निर्माण की लहर थी। फिल्मकार और कलाकार की भागीदारी थी। आजादी के बाद के दशकों में ये प्रयास गहरी सोच के साथ ऑर्गेनिक तरीके से अमल में लाए जा रहे थे। उस दौर के फिल्मकार स्वतंत्रता आंदोलन की चेतना से प्रेरित और प्रभावित थे। हर तरफ से रूढ़िवादिता और पुरातनपंथी आग्रहों पर चोट की जा रही थी।
पिछले एक दशक में माहौल बदल गया है। निस्संदेह देश में दक्षिणपंथी सोच की लहर है। इस लहर को बनाने, समझने और इस्तेमाल करने में मोदी और शाह की जोड़ी सफल रही है। उन्होंने देश के नागरिकों की धारणा और मानसिकता बदली है। दोबारा मजबूत बहुमत से केंद्र में उनका आना सबूत है कि देश का बहुमत उनके अनुगमन के लिए तैयार है। कायदे से यही मतदाता दर्शक होते हैं। दर्शकों की रुचि, पसंद और प्राथमिकता को व्यावसायिक निर्माता नजरअंदाज नहीं कर सकता, उनके लिए फिल्म पहले एक प्रोडक्ट है।
वे फिल्मों को खरीदार की पसंद के सांचे में ढाल कर प्रचलित नारों, मुहावरों और संवादों से सजाकर आकर्षक पैकेजिंग करते हैं। दशकों से प्रचलित प्रेम कहानियों में बाजार (दर्शक) की मांग के मुताबिक मसाले जोड़ते हैं और अधिकाधिक कमाई की कामना करते हैं। इस साल की सर्वाधिक कमाई की दो फिल्में ‘उरी’ और ‘कबीर सिंह’ का उदाहरण सामने है। एक में ‘नए भारत का उग्र राष्ट्रवाद’ है, तो दूसरे में 21वीं सदी में ‘स्त्री विरोधी पुरुष’ का नायकत्व है।
समाजशास्त्रियों के मुताबिक अपनी प्रसिद्धि और लोकप्रियता के बावजूद फिल्मी हस्तियां सत्ता (पावर) के करीब रहने की कोशिश करती हैं। इसका उन्हें अतिरिक्त लाभ मिले या ना मिले... नियमित नुकसान से वे बच जाते हैं। पिछले सालों में हमने देखा कि कैसे आमिर खान, शाहरुख खान और दूसरी फिल्मी हस्तियां छोटी आपत्तियों, टिप्पणियों और भिन्न विचारों से निशाने पर आ गए। अभी ज्यादातर ने खामोशी ओढ़ ली है। जरूरी नहीं है कि वे सभी खौफ में हों, लेकिन व्यर्थ का पंगा लेने और आंख की किरकिरी बनने से बेहतर है कि सरकारी अभियानों में दिख जाओ और समर्थन में दो-चार शब्द बोल दो। यही समर्थन प्रभाव और झुकाव की अभिव्यक्ति के रूप में फिल्मों में आता है, तो हमें ‘नेशनलिज्म’ के नारे की अनुगूंज सुनाई पड़ने लगती है।
हमेशा से सत्ता और फिल्म बिरादरी की नजदीकी रही है। यह नजदीकी वैचारिक से ज्यादा व्यवहारिक रही है। चापलूसी से दूर नए दौर में सीधे, क्रूर और जबरन तरीके से वर्तमान सत्ता की राजनीतिक विचारधारा और नारों को शब्दों-दृश्यों में बदला जा रहा है। भयंकर महिमामंडन हो रहा है। इसी साल ऐसी अनेक फिल्में आईं, जिनमें व्यक्ति विशेष पर फोकस किया गया और विरोधी राजनीति के व्यक्तियों और नीतियों की छवि को गंदला और मलिन किया गया। बीजेपी के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से ‘पीएम नरेंद्र मोदी’ का ट्रेलर शेयर करना स्पष्ट संकेत था कि इरादे क्या हैं?
दरअसल सारा खेल छवि सुधारने और अपनी सोच को जन-जन तक पहुंचाने का है। देश में आमजन तक पहुंचने का एक सशक्त जरिया फिल्में हैं, इसलिए हम देख रहे हैं कि सरकारी नीतियों, योजनाओं और विचारों को लेकर फिल्में बन रही हैं, उनमें लोकप्रिय अभिनेता-अभिनेत्री काम कर रहे हैं। अक्षय कुमार नए भारत कुमार बन चुके हैं। अजय देवगन, जॉन अब्राहम, कंगना रनोट, विकी कौशल और अन्य सितारे नारों को संवादों में बोल रहे हैं। राष्ट्रीय चेतना की फिल्मों का स्वर बदल चुका है। प्रधानमंत्री पूछ बैठते हैं... हाउ इज द जोश? सच्चाई यही है कि कल फिर से सत्ता बदली, सत्ता के विचार बदले और योजनाएं बदलीं, तो फिल्मों, कलाकारों और फिल्मकारों को बदलते देर नहीं लगेगी। तब उनके पास नई परिस्थिति के अनुकूल तर्क और कारण होंगे।
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