मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों से देश की आधी आबादी हो गई गरीब, पर सत्ता पक्ष को 'थैंक्यू मोदी जी' से फुर्सत नहीं
मोदी सरकार के लाखों-करोड़ों के राहत पैकेजों का कोई भी लाभ मध्य और निम्न आय वर्ग तथा गरीबों को नहीं हुआ। गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या कोविड काल में दोगुनी से ज्यादा हो गई है। आधी से भी ज्यादा आबादी गरीबी झेलने को अभिशप्त हो गई है।
कोविड महामारी के संकट का दुनिया भर के देशों पर आर्थिक-सामाजिक दुष्प्रभाव पड़ा है। इन देशों ने कोविड से उबरने के लिए कारगर प्रयास किए हैं। इसमें नगद सहायता सबसे उपयोगी साबित हुई है। भारत में भी इस महासंकट के भयावह असर से निबटने के लिए प्रयास किए गए हैं। अनेक राहत पैकेजों की घोषणा की गई। पर इनका लाभ देश के केवल धनाढयों को ही मिला है। दमानी, अडानी, अंबानी और साइरस पूनावाला की संपदाओं में आश्चर्यजनक रूप से भारी इजाफा हुआ है। देश कोविड की दूसरी लहर से अभी जूझ रहा है, तब भी शेयर बाजार कुलांचे भर रहा है, सूचीबद्ध कंपनियों का मुनाफा बढ़ा है।
दूसरी तरफ कोरोना काल में 93 फीसदी आबादी की आमदनी में गिरावट आई है। जाहिर है, मोदी सरकार के लाखों-करोड़ों के राहत पैकेजों का असली लाभ धनाढय वर्ग को मिला है। इतने भारी-भरकम राहत पैकेजों के बाद भी मध्य और निम्न आय वर्ग तथा गरीबों को इनका रत्ती भर भी लाभ नहीं हुआ। इनकी आय और खपत में भारी गिरावट आई है। देश के गरीबों की संख्या में जो ऐतिहासिक गिरावट दर्ज हुई थी, उस पर मोदी सरकार के अदूरदर्शी निर्णयों, उपायों और नीतियों के कारण पानी फिर गया है। गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या कोविड काल में दोगुनी से ज्यादा हो गई है। आधी से भी ज्यादा आबादी गरीबी झेलने को अभिशप्त हो गई है। इनमें सबसे दयनीय हालत महिला कामगारों की हुई है।
अनूप सत्पथी कमेटी के अनुसार, राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी सीमा 375 रुपये प्रतिदिन है। लेकिन अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के पिछले दिनों आए एक शोध पत्र ‘स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया’ में बताया गया है कि राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी सीमा से नीचे जीवन बसर करने को मजबूर निर्धनों की संख्या में पिछले एक साल में कोविड महामारी के कारण 23 करोड़ लोगों की भयावह वृद्धि हुई है। इस महामारी से सभी आय वर्ग के लोगों की आय और जीविका पर भयानक दुष्प्रभाव पड़े हैं। लेकिन निर्धनतम परिवारों पर इसकी मार सबसे ज्यादा घातक रही है। बीस फीसदी परिवार पूरी तरह से अपनी आय से हाथ धो बैठे हैं।
इस रिपोर्ट के अनुसार, अप्रैल-मई, 2020 में लॉकडाउन के कारण तकरीबन 10 करोड़ रोजगार खत्म हो गए थे जिनकी भरपाई पूरी तरह से अब तक नहीं हो पाई है। इन दो महीनों में इन लोगों की एक पैसे की भी आय नहीं हुई। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, केरल, तमिलनाडु और दिल्ली में रोजगार का नुकसान राष्ट्रीय स्तर से ज्यादा है। रिपोर्ट के अनुसार, पारिवारिक मासिक आय में आई गिरावट कायम है। कोविड की दूसरी जानलेवा लहर से आर्थिक गतिविधियों को गहरा झटका लगा है। इसलिए पारिवारिक मासिक आय कोविड के पूर्व स्तर पर पहुंच पाई होगी, इसकी उम्मीद न के बराबर है।
सबसे आश्चर्यजनक और दुखदायी बात यह है कि मोदी सरकार ने कभी नहीं बताया कि कोविड के कारण कितने लोग बेरोजगार हुए हैं। प्रति व्यक्ति आय और खपत में गिरावट से क्या गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है? कोविड से मारे गए लोगों की सरकारी संख्या पर किसी को विश्वास नहीं है जिससे मोदी और उनकी सरकार की साख डांवाडोल हुई है। इंडिया-टुडे का ताजा सर्वेक्षण इसकी पुष्टि करता है। इस सर्वेक्षण के अनुसार, एक साल में मोदी की लोकप्रियता 66 फीसदी से घटकर 24 फीसदी रह गई है।
कोविड के संकट से अधिसंख्य आबादी की आमदनी कम हुई है। तमाम परिवारों को जरूरी खर्च के लिए उधार लेना पड़ा है। सोना रख कर कर्ज लेने वालों की तादाद बढ़ी है। इनमें 40 फीसदी लोगों ने मंगलसूत्र गिरवी रख कर कर्ज लिया है। इससे ही कोई भी अंदाज लगा सकता है कि मध्य और निम्न वर्ग की आर्थिक दिक्कतें कितनी भयावह हैं।
निर्धनतम लोग उन्हें माना जाता है जिनकी आय प्रतिदिन दो डॉलर या उससे कम होती है। अमेरिका की चर्चित संस्था प्यू रिसर्च के एक अध्ययन में बताया गया है कि भारत में ऐसे लोगों की संख्या कोविड के कारण पिछले एक साल में दोगुनी से ज्यादा हो गई है। दो डॉलर (150 रुपये) से कम आय वालों की संख्या 6 करोड़ से बढ़कर 13.4 करोड़ हो गई, यानी 7.5 करोड़ लोगों की वृद्धि। इस वृद्धि ने भारत के गरीबी मिटाने के ऐतिहासिक अभियान पर पानी फेर दिया है। 2011 से 2019 गरीबी उन्मूलन में सबसे तेज गति भारत की थी। लेकिन अब निर्धनतम आबादी की सूची में भारत नंबर एक हो गया है। वैसे, कोविड महामारी के पहले 2019 से ही निर्धन लोगों की संख्या में वृद्धि शुरू हो गई थी।
इस तीव्र वृद्धि से अर्थशास्त्री बेहद चिंतित हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2019 में अनुमान लगाया था कि भारत की 28 फीसदी (36.4 करोड़) आबादी गरीब है। अर्थशास्त्री मानते हैं कि कोविड महामारी से उपजे आर्थिक संकट से इस संख्या में बढ़ोतरी ही हुई होगी। कोविड के असर से ही मध्यवर्ग की संख्या में काफी गिरावट दर्ज हुई जो घटकर 6.6 करोड़ रह गई है। कोविड पूर्व यह संख्या 9.9 करोड़ थी।
कृष्ण राम और शिवानी यादव ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में अपने शोधपरक लेख में बताया है कि पिछले वित्त वर्ष 2020-21 में पारिवारिक आय में 12 फीसदी की गिरावट आई है। यह राष्ट्रीय औसत है। इसका सीधा संकेत यह है कि गरीब और मध्य वर्ग की आय में नुकसान औसत 12 फीसदी गिरावट से बहुत ज्यादा है। इन शोधकर्ताओं ने अध्ययन कर पाया है कि बीते एक साल में 21.8 करोड़ नए लोग गरीबी के दायरे में आ गए हैं। ग्रामीण क्षेत्र में 16.8 करोड़ और शहर में 5 करोड़ नए लोग गरीबी की चपेट में आए हैं। कोविड से पहले ग्रामीण भारत में 35 फीसदी (26.5 करोड़) गरीब थे जिनकी संख्या अब बढ़कर 38 से 41 करोड़ हो जाने का अनुमान है। यानी कुल ग्रामीण आबादी में 50.9 से 55.87 फीसदी लोग गरीब हैं। इसी प्रकार शहरी क्षेत्र में 3.6 से 4.6 करोड़ नए लोग इस दौरान गरीबी की चपेट में आ गए। इसका मतलब है कि कुल शहरी आबादी के 39 से 42 फीसदी लोग गरीबी वर्ग में आते हैं। इस गणना से देश की आधी आबादी गरीबी की दायरे में आ जाती है। नई गरीबी की चपेट में आए नए लोगों में सबसे ज्यादा संख्या अनुसूचित जाति और जनजाति की है, लगभग 13-20 प्रतिशत, जबकि सवर्णों के लिए आंकड़ा 12-16 फीसदी है। पेशेगत दृष्टि से गरीबी की सबसे ज्यादा मार छोटे-छोटे खुदरा व्यापारी, कृषि और गैर कृषि मजदूर पर पड़ी है।
देश में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमियों की कुल संख्या 6.33 करोड़ है। इनमें 6.30 करोड़ सूक्ष्म उद्यम हैं, यानी 99 फीसदी। इनमें से 94 फीसदी सूक्ष्म इकाइयों को बैंकों, वित्तीय संस्थाओं, आदि से कोई मदद नहीं मिल पाती है जबकि हर बैंक, राज्य और सरकार का यह दावा है कि वे उनकी सहायता के लिए तत्पर हैं। सबको मालूम है कि देश में कृषि के बाद सबसे ज्यादा रोजगार सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम देते हैं। देश के केंद्रीय बैंक ने माना है कि इस क्षेत्र की स्थिति खराब है। एक सर्वे के अनुसार, 82 फीसदी इन उद्यमियों का मानना है कि उन्हें पुरानी हालत में लौटने में दो साल लगेंगे। रोजगार को सबसे ज्यादा नुकसान भी इस क्षेत्र से हुआ है।
कोविड संकट के दौरान केवल मनरेगा एक ऐसा सरकारी कार्यक्रम है जिससे ग्रामीण मजदूरों को मदद मिली है। इस कार्यक्रम को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस की विफलताओं का स्मारक कहा था। 2013 से 2019 के दौरान औसतन 2.5 करोड़ मजदूरों को मनरेगा से रोजगार मिला जो मई, 2020 में बढ़कर 3.6 करोड़ हो गए और जून, 2020 में 4 करोड़। यह वह दौर था जब शहरों से गांवों में करोड़ों लोगों का पलायन हो रहा था।
पूरी दुनिया की सरकारों ने इस नई गरीबी, बेरोजगारी को अंकुश में रखने के लिए नगद सहायता के लिए खजाने खोल दिए। लेकिन मोदी सरकार ने आपूर्ति पक्ष को मजबूत बनाए रखने के लिए बड़े व्यापारियों पर खजाना लुटा दिया जिसका नतीजा है कि गरीबी उन्मूलन में भारत ने जो सफलता हासिल की थी, वह खाक में मिल चुकी है। पर सरकारी अमला धन्यवाद मोदी जी में लगा हुआ और सत्ताधारी दल दिन-रात हिंदू-मुस्लिम करने में।
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