मोदी सरकार ने ही इस संकट की घड़ी में प्रवासी मजदूरों को मुसीबत में डाला

1947 में बंटवारे के बाद देश सबसे बुरे संकटकालीन दौर से गुजर रहा है और इसके लिए सरकार की ओर से दरअसल बमुश्किल जीडीपी के 1 फीसदी के बराबर का पैकेज दि या गया। करोड़ों गरीब-वंचित लोग जिस संकट का सामना कर रहे हैं, उसे देखते हुए यह राशि कुछ भी नहीं है।

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आनंद शर्मा

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 12 मई को 20 लाख करोड़ यानी भारत के जीडीपी के लगभग 10 फीसदी के बराबर के राहत पैकेज की घोषणा की जिसका सभी लोगों ने स्वागत किया। भारत के लोगों को भरोसा हुआ कि सरकार लाखों-लाख नौकरीपेशा लोगों, प्रवासी मजदूरों और शहरी गरीबों को मुश्किलों से बाहर निकालने के अलावा अर्थव्यवस्था के सामने खड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए प्रतिबद्ध है। लोगों की उम्मीदें हिलोरे मारती रहीं। 25 मार्च को देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा के बाद पहले से ही खस्ताहाल अर्थव्यवस्था की हालत और बुरी हो चुकी थी और इस कारण उद्योग, उद्यमी और कामगार बड़ी उम्मीदों के साथ पैकेज का इंतजार कर रहे थे।

लेकिन वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने जैसे ही पैकेज का ब्योरा सुनाया, सारी उम्मीदें धराशायी हो गईं। प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद से जो उत्साह का माहौल बना था, वह देखते-देखते निराशा-हताशा में बदल गया। प्रवासी मजदूर, गरीब और मुश्किल हालात में गुजर-बसर कर रहे भारत के लोग ठगा महसूस कर रहे थे। सरकार ने दिखा दिया था कि उनकी तकलीफ को लेकर वह बिल्कुल बेपरवाह है।

यह तो अनुमान था ही कि 27 मार्च को वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने 1.7 लाख करोड़ के जिस पैकेज की घोषणा की थी, वह और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया द्वारा बाजार में तरलता लाने के लिए दिए गए प्रोत्साहन को भी 20 लाख करोड़ के इस पैकेज में शामिल किया जाएगा। इसलिए लोग मानकर चल रहे थे कि 9.74 लाख करोड़ की घोषणा तो हो ही चुकी है, उनके लिए उत्सुकता बाकी बचे 10.26 लाख करोड़ से जुड़े ऐलान को लेकर थी।

1947 में बंटवारे के बाद देश सबसे बुरे संकटकालीन दौर से गुजर रहा है और इसके लिए सरकार की ओर से दरअसल बामुश्किल जीडीपी के 1 फीसदी के बराबर का पैकेज दिया गया। इससे सरकार पर जो अतिरिक्त वित्तीय भार आएगा, वह 2 लाख करोड़ से भी कम ही होगा और करोड़ों गरीब-वंचित लोग जिस संकट का सामना कर रहे हैं, उसे देखते हुए यह राशि कुछ भी नहीं। भारत का पैकेज दुनिया में सबसे कम है। दुनिया भर की सरकारों ने औद्योगिक कामगारों को वेतन देने और लोगों के दुख-दर्द को दूर करने के लिए तिजोरी खोल दी है। भारत में जो भी कदम उठाए गए हैं, उनसे केवल तरलता बेहतर होगी लेकिन इनके कारण जरूरतमंदों को तत्काल जो राहत मिलनी चाहिए थी, वह नहीं मिली।

सरकार ने लोगों को गुमराह किया है। सरकार को यह समझना होगा कि अर्थव्यवस्था के लिए प्रोत्साहन पैकेज देने और मुश्किलों में पड़ेउद्योगों तथा हताश-निराश गरीबों को ऋण देने में अंतर है।


घोषित उपायों में बजट में शुरू की गई योजनाओं और पहले से चल रही स्कीमों के लिए किए गए आबंटन को भी शामिल कर दिया गया है। प्रवासी मजदूरों, किसानों और खेतीहर मजदूरों समेत जिन-जिन लोगों की रोजी-रोटी इस मुश्किल दौर में छूट गई है, मोदी सरकार ने उनके साथ धोखा किया है। राज्य सरकारें संकट के इस दौर में आर्थिक परेशानियों का सामना कर रही हैं और केंद्र सरकार ने उन्हें उनके हि्स्से का पैसा भी नहीं दिया है। वित्तमंत्री ने 8 करोड़ प्रवासी मजदूरों को 5 किलो अनाज देने की घोषणा की जो अपने आप में नाकाफी है। राशन कार्ड वालों के लिए देश में कहीं से भी राशन लेने की जो व्यवस्था की गई है, उसे जमीन पर उतरने में महीनों लग जाएंगे। ज्यादातर लोगों के लिए केंद्र सरकार का आथिक पैकेज क्रूर मजाक के अलावा कुछ भी नहीं और इसका उदाहरण है कि वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा प्रधानमंत्री की योजना का ब्योरा देने के बाद भी लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूर सैकड़ों किलोमीटर चलकर अपने-अपने घर पहुंचने के अभियान पर निकल पड़े।

सरकार ने महिलाओं के जनधन खाते में हर माह 500 रुपये की राशि देने की घोषणा की है और इसी से पता चलता है कि इस मुश्किल समय में हम जरूरतमंद लोगों के लिए क्या कर रहे हैं। महीने में 500 रुपये का मतलब हुआ प्रतिमाह 7 डॉलर जो प्रतिदिन 2.5 डॉलर के अंतरराष्ट्रीय न्यूनतम औसत के हिसाब से महीने में 75 डॉलर यानी करीब 5,600 रुपये बैठता है। उसकी तुलना में महीने में 500 रुपया कुछ भी नहीं। उसके बाद भी 500 रुपये प्रति व्यक्ति के हिसाब से चार लोगों के परिवार के लिए जीवन की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए लगभग 2,000 रुपये की जरूरत होगी।

चीजों को सही परिप्रेक्ष्यमें देखना जरूरी है। कोरोना की वैश्विक महामारी दुनिया के लिए अभूतपूर्व संकट बन गई है। वायरस पूरी दुनिया में फैल गया है और इसने हर समुदाय, हर देश, हर महादेश को समान रूप से अपनी चपेट में ले रखा है। कोई भी देश इससे महफूज नहीं। अंतर केवल इसकी तीव्रता और मृत्युदर में है। ध्यान नहीं आ रहा कि इस पैमाने के संकट से कभी दुनिया को दो-चार होना पड़ा हो। वायरस के संक्रमण ने दुनिया की गति को एकदम से रोक दिया है और इसकी जो सामाजिक और आर्थिक लागत है, उसे बर्दाश्त करना मुश्किल है। भारत के लिए यह समय बड़ी ही गंभीर चुनौतियां लेकर आया है।

1.3 अरब की आबादी वाले इस विशाल देश में सामाजिक और आर्थिक विषमता भी जबर्दस्त है। हमारी अर्थव्यवस्था का आकार काफी बड़ा है और इसकी पीपीपी (पर्चेजिंग पावर पैरिटी) 11.4 खरब डॉलर की है लेकिन हमारे यहां गरीबों, पूर्ण बेरोजगारों और आंशिक बेरोजगारों की तादाद करोड़ों में है, छोटे किसानों की संख्या भी लाखों-लाख में है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय लॉकडाउन सबसे क्रूर है। भारत के सभी 28 राज्यों, जिनमें 11 में कांग्रेस और विपक्षी सरकारें हैं, की चुनी हुई सरकारों और सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने इसका समर्थन किया। भारत जैसे संघीय व्यवस्था वाले देश में इस विषय पर सभी दलों में आम सहमति बन सकी क्योंकि वायरस के संक्रमण को रोकना जरूरी समझा गया और देश के सामने यह एक प्राथमिक चिंता का विषय था।

लेकिन, अर्थव्यवस्था का पहिया थम जाने के कारण लोगों को असहनीय सामाजिक और आर्थिक लागत को सहन करना पड़ रहा है। करोड़ों लोगों का काम छिन गया है, उनकी आय का साधन खत्म हो गया है। एक अनुमान के मुताबिक12.2 करोड़ लोगों का रोजगार छिन गया है और बेरोजगारी दर 27.1 फीसदी के उच्चतम स्तर पर पहुंच चुकी है। आईएलओ के अनुमानों के मुताबिक ताजा संकट के कारण 40 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले जाएंगे और इस तरह गरीबी मिटाने के लिए वर्षों से की जा रही मेहनत पर पानी फिरने जा रहा है।


हमारे यहां 90 फीसदी कामगार अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं और एमएसएमई (लघु, छोटी और मध्यम इकाइयां) को मिलाकर उत्पादन में दो-तिहाई की भागीदारी वाला क्षेत्र सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ है। औद्योगिक उत्पादन बिल्कुल गिर गया है और इस बात की आशंका पैदा हो गई है कि हम जीडीपी का 7 फीसदी हमेशा-हमेशा के लिए खो बैठेंगे। और इस वित्तीय वर्ष के दौरान तो जीडीपी दर के नकारात्मक रहने का अनुमान है।

केंद्र सरकार ने बिना किसी पूर्व तैयारी या बिना किसी समन्वय के लॉकडाउन की घोषणा कर दी। राज्य सरकारों से कोई सलाह नहीं ली गई। अचानक ट्रेन-बस को रोक दिया गया, सभी प्रकार की गाड़ियों के चलने पर रोक लगा दी गई जिसके कारण घोर दुविधा की स्थिति बन गई। करोड़ों गरीब लोग बिना खाना, बिना पैसा फंसकर रह गए। उनपर मुसीबत का पहाड़टूट पड़ा। दिहाड़ी मजदूरों, कंस्ट्रक्शन के काम से जुड़े प्रवासी मजदूरों और खेतीहर मजदूरों पर सबसे ज्यादा असर पड़ा है। प्रवासी मजदूर बहुत ही मुश्किल हालात में फंसकर रह गए और उनमें अपने-अपने गांव लौट जाने की हताशा बढ़ती गई। देश के नागरिक के तौर पर उन्हें जो बराबर का सम्मान और अधिकार प्राप्त है, वे उससे वंचित हो गए। प्रवासी मजदूरों का यह संकट सरकार द्वारा खड़ा किया गया है और यह ऐसी मानवीय त्रासदी बन गई है जिसके जख्म भारत की आत्मा पर हमेशा-हमेशा के लिए बन गए हैं।

केंद्र सरकार द्वारा बिना राज्य सरकारों से सलाह-मशविरा किए पहले लॉकडाउन की घोषणा करने से कुछ बुनियादी सवाल खड़े होते हैं। भारत एक संघीय देश है जिसके संविधान में स्वास्थ्य राज्य के अधिकार क्षेत्र वाला विषय है और संक्रामक बीमारी समवर्ती सूची का विषय है। इसके अलावा राज्य के भीतर होने वाला व्यापार और उद्योग राज्य के अधिकार क्षेत्र वाले विषय हैं। लेकिन इनसे जुड़े सभी फैसले केंद्र सरकार ने एनडीएमए अधिनियम 2005 के अंतर्गत लिए। इसका केंद्र और राज्य के संबंधों पर दीर्घकालिक असर पड़ेगा। आदर्शरूप से कोरोना की इस वैश्विक महामारी से केंद्र और राज्य सरकारों को परस्पर सहयोग की भावना से निपटना चाहिए था। इसके साथ ही इस समस्या से निपटने के लिए राज्य सरकारें पैसे की मांग कर रही हैं और केंद्र की ओर से उन्हें पैसे उपलब्ध कराए जाने चाहिए थे।

केंद्र सरकार ने जो भी प्रोत्साहन पैकेज की घोषणा की है, उससे लोगों की तात्कालिक जरूरतें पूरी नहीं होतीं इसलिए इनका कोई सार्थक असर नहीं पड़ने वाला। सरकार का पूरा ध्यान सप्लाई से जुड़ी समस्याओं को सुलझाने पर रहा। यह नजरिया ही दोषपूर्ण है क्योंकि मांग और खपत के मुद्दों पर सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत थी लेकिन सरकार ने इसे वस्तुतः नजरअंदाज ही कर दिया। तरलता को बढ़ाने और एमएसएमई को ऋण उपलब्ध कराने का निकट भविष्य में कोई असर पड़ेगा, इसकी उम्मीद बेमानी है। तमाम औद्योगिक क्षेत्र 2019 के मध्य से ही सुस्ती की गंभीर समस्या से जूझ रहे हैं। कोविड-19 के पहले से ही औद्योगिक उत्पादन लगातार गिर रहा था। स्थिति यह थी कि हमारी एक तिहाई स्थापित क्षमता का इस्तेमाल नहीं हो पा रहा था और निवेश दर दशकों के निचले स्तर पर पहुंच गई थी। अब निजी क्षेत्र में निवेश करने की न तो क्षमता बची और न इच्छा। आज की स्थिति में सरकारी खर्च ही अर्थव्यवस्था को चलाए रख सकता था।

लॉकडाउन को चरणबद्ध तरीके से खोला जा रहा है और इसके कारण दवा तथा आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन को शुरू करने की औद्योगिक गतिविधियां धीरे-धीरे ही पटरी पर आ पाएंगी। कार्गो के आवागमन तथा सीमित रिटेल व्यापार से स्थिति कुछ सुधरेगी लेकिन जहां तक अर्थव्यवस्था में जान आने और रोजगार की बात है, इनके लिए चुनौतियां तो बनी ही रहेंगी। इस समय सरकार कम से कम एमएसएमई और बड़ी इकाइयों की भी पीएफ देनदारी का ख्याल तो रख ही सकती थी। इससे उन्हें जहां तक संभव हो पाता, लोगों की नौकरी बचाने में मदद मिलती।

पैकेज में सरकार की ओर से अतिरिक्त खर्चे की व्यवस्था नहीं है। रोजी-रोटी खो चुके शहरी गरीबों और प्रवासी मजदूरों को मुफ्त में खाना उपलब्ध कराने की सख्त जरूरत थी। सरकार को चाहिए था कि तीन माह के लिए गरीब परिवारों को सात हजार मासिक के हिसाब से नकद राशि उपलब्ध कराती। सरकार का लाखों-लाख लोगों के वापस गांव लौटने के मद्देनजर मनरेगा के बजट में 40 हजार करोड़ का अतिरिक्त आबंटन करना एक सराहनीय कदम है। अच्छा हो कि सरकार मजदूरी बढ़ाकर तीन सौ कर दे और 150 दिन के काम की गारंटी दे।

(लेखक वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं)

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