NDA की सरकार तो बन गई जो सहयोगियों को हो पसंद, वही बात कर पाएंगे मोदी?

अगले 4-5 महीनों में महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा में विधानसभा चुनाव होने हैं। ये चुनाव राज्यों में सरकारों के ही नहीं, मोदी सरकार के भाग्य का भी फैसला करेंगे।

फोटोः सोशल मीडिया
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शरद गुप्ता

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लगातार तीसरे कार्यकाल के लिए शपथ लेना आगे की राह की तुलना में काफी आसान रहा। गुजरात के मुख्यमंत्री (2002-2014) के दौरान उन्होंने निरंकुश शैली अपनाई थी। जब उनकी पार्टी के पास केन्द्र में पूर्ण बहुमत था, तब भी उन्होंने यही रवैया अपना रखा था। 2024 में उनकी सरकार का अस्तित्व सहयोगियों पर निर्भर है और इसलिए यह आसान नहीं होने वाला है। सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या मोदी नरम पड़ेंगे? क्या तेंदुआ अपने धब्बे बदल सकता है?

16 सांसदों वाली तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) और 12 सांसदों वाली जनता दल(यू) मोदी 3.0 को सहारा देने वाले दो स्तंभ हैं। पांच सांसदों वाली चिराग पासवान की लोक जन शक्ति पार्टी के अलावा दो-दो सांसदों वाली एचडी कुमारस्वामी की जनता दल (सेक्युलर) और जयंत चौधरी की राष्ट्रीय लोक दल एनडीए की अन्य पार्टियां हैं।

71 सदस्यीय मोदी मंत्रिमंडल में टीडीपी और जेडीयू को दो-दो पद दिए गए हैं जबकि अन्य दलों को एक-एक। मोदी ने किसी तरह दोनों प्रमुख सहयोगियों को चार बड़े मंत्रालयों- गृह, वित्त, विदेश और रक्षा- या लोकसभा अध्यक्ष के पद की मांग न करने के लिए राजी कर लिया है। इसके बजाय, वे पर्याप्त धन (आंध्र प्रदेश की नई राजधानी अमरावती के लिए) और दोनों राज्यों के लिए विशेष पिछड़ा क्षेत्र का दर्जा दिए जाने के आश्वासन से संतुष्ट दिखते हैं।

बीजेपी द्वारा मंत्रिमंडल गठन के लिए तैयार किया गया फॉर्मूला हर चार सांसदों पर एक मंत्री का था। इससे टीडीपी को चार और जेडीयू को तीन पद मिल गए। मंत्रिमंडल के सदस्यों की संख्या सदन की कुल क्षमता का अधिकतम 15 प्रतिशत हो सकती है। इसका मतलब है कि मोदी मंत्रिमंडल में अब भी 10 और सदस्यों को शामिल करने की गुंजाइश है। बीजेपी सूत्रों के अनुसार, टीडीपी और जेडीयू दोनों को आश्वासन दिया गया है कि उनके शेष सदस्यों को पहले मंत्रिमंडल फेरबदल में शामिल किया जाएगा।


क्या इसका मतलब यह है कि उन्होंने सौदेबाजी की अपनी शक्ति खो दी है? क्या मोदी प्रधानमंत्री के रूप में अपने पिछले दो कार्यकालों की तरह ही ‘निष्ठुर’ होंगे? अब दोनों दलों के सामने क्या विकल्प हैं?

टीडीपी सुप्रीमो एन. चंद्रबाबू नायडू और जेडीयू प्रमुख नीतीश कुमार- दोनों ही होशियार राजनीतिज्ञ हैं। मांगों को जोर-शोर से उठाने के बजाय, वे केवल ऐसे मुद्दे उठा सकते हैं जो बीजेपी को पसंद नहीं हैं। दोनों नेता निश्चित रूप से देश भर में जाति आधारित जनगणना की मांग करेंगे। हालांकि बीजेपी बिहार सरकार में शामिल थी जिसने राज्य में ऐसी ही एक जनगणना का आदेश दिया था लेकिन वह राष्ट्रीय स्तर पर इस परियोजना से बिल्कुल भी सहज नहीं है क्योंकि इससे कोटा और उप-कोटा आरक्षण की तमाम मांगें उठ सकती हैं। महिला आरक्षण अधिनियम जनगणना के आधार पर महिलाओं के लिए सीटों का सीमांकन करेगा, और इसलिए इसमें देरी होने की संभावना है जब तक कि सरकार नरम नहीं पड़ती और 2025 में मध्यावधि जनगणना नहीं कराती। अगली दशकीय जनगणना 2031 में होनी है।

एक और विवादास्पद मुद्दा एम.एस. स्वामीनाथन समिति की रिपोर्ट के अनुसार सभी प्रमुख फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को वैध बनाने की मांग हो सकती है। मोदी सरकार ने अब तक इस मांग को स्वीकार नहीं किया है जबकि किसान नेता इसे बार-बार उठाते रहे हैं। लेकिन अगर सरकार के दो प्रमुख घटकों द्वारा मांग उठाई जाती है या उसका समर्थन किया जाता है, तो सरकार के लिए दुविधा की स्थिति हो जाएगी। 

जेडीयू के महासचिव के.सी. त्यागी पहले ही मांग कर चुके हैं कि अग्निवीर योजना (भारतीय सेना के लिए सैनिकों की चार साल की अनुबंध-आधारित भर्ती) को खत्म किया जाए या संशोधित किया जाए। उन्होंने यह भी दावा किया कि इंडिया ब्लॉक ने नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री पद देने की पेशकश की है। हालांकि कांग्रेस ने यह साफ कर दिया है कि ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं दिया गया है लेकिन त्यागी का बयान आने वाले समय का संकेत है। यह मोदी-शाह की जोड़ी के लिए संकेत है कि अगर नीतीश को पर्याप्त रूप से समायोजित नहीं किया गया, तो वे पीछे हट जाएंगे। क्या मोदी ‘राजनीतिक ब्लैकमेल’ के आगे झुक जाएंगे? या वे स्वघोषित अभेद्यता पर अड़े रहेंगे: ‘मोदी झुकेगा नहीं, भले ही टूट जाए’? पिछले 25 सालों से मोदी को देखने वाले लोग जानते हैं वह स्थिति देखकर रंग बदलने में माहिर हैं। ‘मोदी की गारंटी’ जैसे वादे पहले ही उनके शब्दकोश से गायब हो चुके हैं। चुनाव के बाद अपने भाषणों में- चाहे वह बीजेपी मुख्यालय हो, राष्ट्रपति भवन हो या संसद के सेंट्रल हॉल में एनडीए सांसदों की बैठक हो, मोदी ने एक बार भी थर्ड पर्सन में खुद का जिक्र नहीं किया। वह बड़ी सावधानी से केवल ‘एनडीए सरकार’ की बात कर रहे हैं। 


दिलचस्प बात यह है कि पिछले एक दशक के दौरान एनडीए खत्म हो चुका है। इसका कोई संयोजक नहीं है, कोई अध्यक्ष नहीं है, कोई सचिव नहीं है, कोई सचिवालय नहीं है और कोई कार्यालय भी नहीं है। एनडीए की बैठकें केवल चुनावों से पहले या बाद में बुलाई जाती हैं, और कभी-कभी किसी महत्वपूर्ण संसदीय सत्र के दौरान बीजेपी अध्यक्ष के कार्यालय से निमंत्रण भेजे जाते हैं। इस प्रकार, यह भी देखा जाना बाकी है कि एनडीए को पुनर्जीवित करने को लेकर मोदी कितने गंभीर हैं। या वह केवल बोलने के लिए ऐसा बोल रहे हैं? 

एनडीए सहयोगियों के साथ समझौता करने की तत्परता दिखाने के बावजूद मोदी अपने विरोधियों और यहां तक ​​कि सहयोगियों पर भी पलटवार का कोई मौका नहीं छोड़ते। शिवसेना, जेडीयू, एलजेएसपी, पीडीपी की महबूबा मुफ्ती समेत कई लोग इस बात की पुष्टि करेंगे कि वह पूरी तरह अवसरवादी हैं। उन्होंने उनकी पार्टी को तोड़ने से पहले पांच साल से अधिक समय तक शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे को ‘सहा’। उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री और जेडीयू अध्यक्ष नीतीश कुमार को एनडीए के पाले में लाने के लिए एक बार नहीं, दो-दो बार प्रयास किए। इसी तरह, मोदी ने 2015 में भूमि अधिग्रहण विधेयक और तीन विवादास्पद कृषि विधेयकों (2019 में पारित) को वापस लेकर अपनी राजनीतिक चालाकी का परिचय दिया। गौरतलब है कि नए कृषि कानूनों के खिलाफ पूरे देश में साल भर से विरोध प्रदर्शन चल रहा था। उन्होंने सीएए और एनआरसी को भी लागू करने में जानबूझकर चार साल से ज्यादा देरी की, इसलिए नहीं कि वे ऐसा करने से डरते थे, बल्कि इसलिए कि वे एक उपयुक्त मौके की तलाश में थे। अब नायडू और नीतीश आरएसएस और उसके एजेंडे से दूरी बनाने की मांग कर सकते हैं। आरएसएस ने, शायद त्रिशंकु जनादेश की आशंका में, अगले साल होने वाले अपने भव्य शताब्दी समारोह को पहले ही टाल दिया है। 19 अप्रैल को पहले चरण के मतदान से एक दिन पहले जारी एक बयान में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि उनका संगठन छाती ठोंकने में भरोसा नहीं करता और वह निःस्वार्थ और चुपचाप अपनी यात्रा जारी रखेगा। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि 234 सांसदों के साथ अपनी जमीन वापस ले रहा विपक्ष मोदी सरकार के लिए हालात आसान बनने देगा, इसकी कोई संभावना नहीं है। लोकसभा में विपक्ष के संभावित नेता के रूप में राहुल गांधी हाथ चढ़ाने वाले अधीर रंजन चौधरी और शांत स्वभाव वाले मल्लिकार्जुन खड़गे से कहीं ज्यादा आक्रामक होंगे।

अगले 4-5 महीनों में महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा में विधानसभा चुनाव होने हैं। ये चुनाव राज्यों में सरकारों के ही नहीं, मोदी सरकार के भाग्य का भी फैसला करेंगे। 2024 के लोकसभा चुनावों के नतीजों के आधार पर बात करें तो बीजेपी (माफ कीजिए, एनडीए!) इनमें से किसी भी राज्य में नहीं जीतने जा रहा है। इससे मोदी की पकड़ और कमजोर हो जाएगी। इतिहास ने दिखाया है कि कमजोर तानाशाह जब हताश हो जाता है तो यही हताशा उसे पतन की ओर ले जाती है। यही सबसे बड़ा सवाल है: क्या इतिहास खुद को दोहराएगा?

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