पारदर्शिता से पीछे हटती मोदी सरकार, देश और अर्थव्यवस्था को होगा भारी नुकसान
पीएम मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार में सूचना के अधिकार के कानून को निरंतर कमजोर किया गया। इसके लिए जरूरी नियुक्तियां नहीं की गईं और पर्याप्त बजट का आवंटन नहीं किया गया। प्रशासन में सूचना के अधिकार के प्रति निष्ठा में विभिन्न स्तरों पर गिरावट देखी गई।
पूरी दुनिया के स्तर पर शासन-सुधार की एक प्रमुख पहचान यह बनी है कि सरकार पारदर्शिता से कार्य करे और पारदर्शिता को बढ़ाए। कुछ साल पहले यूपीए सरकार के प्रथम चरण में भारत ने इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम उठाया, जब राष्ट्रीय स्तर पर सूचना के अधिकार का कानून बनाया गया। इसे विश्व के बेहतर सूचना के अधिकार के कानूनों में व्यापक स्वीकृति मिली और कई अन्य देशों के पारदर्शिता अभियानों ने इसे एक माॅडल के रूप में स्वीकार किया।
लेकिन एनडीए सरकार के चार-पांच वर्षों में सूचना के अधिकार के कानून को निरंतर कमजोर किया गया। इसके लिए जरूरी नियुक्तियां नहीं की गईं और पर्याप्त बजट का आवंटन नहीं किया गया। प्रशासन में सूचना के अधिकार के प्रति निष्ठा में विभिन्न स्तरों पर गिरावट देखी गई।
इसका परिणाम यह हुआ कि सूचना मिलने में बहुत देरी होने या सही सूचना मिलने की संभावना कम होने के कारण अधिकांश नागरिकों का इस अधिकार के उपयोग को लेकर उत्साह कम होने लगा और एक बड़ी लोकतांत्रिक संभावना जो कुछ ही साल पहले एक व्यापक अभियान के रूप में उत्पन्न हुई थी वह धूमिल होने लगी। इसका यह अर्थ नहीं है कि सूचना के अधिकार को फिर सशक्त नहीं किया जा सकता है, लेकिन इतना स्पष्ट है कि पिछले चार-पांच वर्षों में इसकी बहुत क्षति हुई है।
मोदी सरकार के दौरान इस प्रवृत्ति ने बहुत जोर पकड़ा है कि अर्थव्यवस्था और विकास के दावों को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया जाए और इस संदर्भ में जो बड़ी विफलताएं और गलतियां हैं उनको किसी तरह लोगों से छिपा कर रखा जाए। यहां तक कि जिन गलतियों को व्यक्तिगत स्तर पर सरकारी अधिकारी भी स्वीकार करते हैं और यहां तक कि जिन्हें कुछ हद तक छिटपुट सरकारी दस्तावेजों में भी स्वीकार किया जा चुका है उनके बारे में भी मोदी सरकार की यह कोशिश रहती है कि इसे बड़ी सफलता के रूप में प्रस्तुत किया जाए।
विमुद्रीकरण एक स्पष्ट उदाहरण है जिसके बारे में अनेक स्वतंत्र अध्ययन यह बता चुके हैं कि यह भारतीय अर्थव्यवस्था और जनसाधारण के लिए कितना हानिकारक सिद्ध हुआ और अनेक सरकारी अधिकारी भी व्यक्तिगत तौर पर इस सच्चाई को स्वीकार करते हैं, लेकिन मोदी सरकार ने अभी तक अपनी जिद पकड़ी हुई है कि यह कदम अर्थव्यवस्था के लिए बहुत लाभदायक सिद्ध हुआ।
इस तरह तथ्यात्मक स्थिति को अनदेखा कर किसी जिद पर अड़े रहना किसी भी सरकार या शासन के लिए बहुत हानिकारक है। यदि कोई बड़ी गलती होने के बाद उसे स्वीकार किया जाता है तो कम से कम यह उम्मीद उत्पन्न होती है कि उस गलती के दुष्परिणामों को कम करने के कदम खुले विमर्श से उठाए जाएंगे। लेकिन अगर गंभीर गलती को खुले तौर पर स्वीकार ही नहीं किया जाता है तो इसका अर्थ यह हुआ कि सरकार इसके दुष्परिणामों को कम करने के लिए खुला विमर्श नहीं कर सकती है या नहीं करेगी।
अगर वह दुष्परिणामों को कम करने के कुछ छिटपुट कदम उठाती भी है तो उन्हें व्यापक विमर्श का लाभ नहीं मिलेगा। काफी हद तक यह कदम भी उन्हीं चंद व्यक्तियों द्वारा निर्धारित किए जाएंगे जिन्होंने गंभीर गलती की या उत्साह में इसका आरंभिक समर्थन किया। इस स्थिति में गलती के असर को कम करने के सही कदम नहीं उठाए जा सकेंगे और इसकी हानि पूरे देश और अर्थव्यवस्था को उठानी पडे़गी।
कुछ समय पहले राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे के नवीनतम रोजगार सर्वेक्षण की रिपोर्ट को दबा दिया गया क्योंकि इससे यह जाहिर होता था कि वर्तमान में देश में बेरोजगारी पिछले चार दशकों के सबसे उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है। हालांकि सरकारी स्तर पर बयान जारी किए गए कि वह तो रिपोर्ट का आरंभिक प्रारूप था, लेकिन उच्च पदों पर तैनात विशेषज्ञों ने बताया कि वह जारी करने की स्थिति में आ चुकी रिपोर्ट थी। इस तरह बेरोजगारी की सही स्थिति को छिपाने के कुप्रयासों के कारण राष्ट्रीय सांख्यिकीय आयोग के सम्मानित सदस्यों को अपना पद भी छोड़ना पड़ा जो कि एक राष्ट्रीय क्षति है।
इससे पहले मोदी सरकार ने जीडीपी या सकल घरेलू उत्पाद के अनुमानों को इस तरह बदलने का प्रयास किया कि पिछली सरकार की तुलना में मोदी सरकार की उपलब्धियों को बेहतर दिखाया जा सके। स्वच्छता अभियान हो या अन्य विकास योजनाएं हों इनकी उपलब्धि को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने के कई मामले सामने आते जा रहे हैं। इनमें भारत की सांख्यिकीय व्यवस्था की प्रतिष्ठा को भी धक्का लगा है और इसकी विश्वसनीयता पहले की अपेक्षा कम हुई है। यह भी एक राष्ट्रीय क्षति है।
यदि बेरोजगारी की गंभीर स्थिति राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे के अधिक प्रमाणिक माने जाने वाले आंकड़ों के माध्यम से सामने आती है तो लोकतंत्र और पारदर्शिता की मांग है कि इसके आधार पर एक व्यापक विमर्श हो कि यह स्थिति क्यों उत्पन्न हुई है और इस समस्या के समाधान के सही उपाय क्या हैं।
लेकिन इसके स्थान पर दूसरी राह सरकार ने यह अपनाई है कि जो आंकड़े सरकार के अपने सिस्टम से आ रहे हैं (जिन्हें अन्य स्वतंत्र अध्ययनों का समर्थन मिल रहा है) उन आंकड़ों को ही दबा दिया जाए और इनमें फेरबदल कर समस्या की मौजूदगी को ही नकार दिया जाए। इस तरह तो लोकतंत्र में गलतियों को सुधारने की जो क्षमता है वही समाप्त हो जाएगी। मौजूदा सरकार की यह प्रवृत्ति बहुत चिंताजनक है और आर्थिक संकट बढ़ाने वाली है क्योंकि जब संकट को स्वीकार ही नहीं किया जाएगा तो उसके समाधान की असरदार कार्यवाही कैसे होगी?
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