आकार पटेल का लेख: अपने ही तय लक्ष्यों को हासिल करने में नाकाम मोदी सरकार, फिर भी जवाबदेही का कोई दबाव ही नहीं!
मोदी सरकार ने 2018 में 2022 के लिए कई लक्ष्य निर्धारित थे, लेकिन उसमें अधिकांश अधूरे हैं या पूरे नहीं हुए हैं। फिर भी मोदी सरकार को जवाबदेह ठहराने के लिए उत्सुक नहीं दिखते हैं, भले ही उसकी अयोग्यता को उसके अपने ही दस्तावेज से क्यों न सामने आती हो।
मोदी सरकार के नीति आयोग ने 2018 में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसका शीर्षक था इंडिया@75। इस रिपोर्ट में सरकार ने अपने लिए कुछ लक्ष्य तय किए थे जिन्हें 2022 तक पूरा किया जाना था।
इस विस्तृत 230 पन्नों के दस्तावेज (पता नहीं कितने लोगों ने इसे पढ़ा होगा) की शुरुआत प्रधानमंत्री के एक नोट के साथ हुई थी। इसमें उन्होंने लिखा था, ““2022 तक नए भारत के निर्माण के में लोगों की अपेक्षाओं में केंद्र सरकार एक सक्रिय भागीदार है।” टीम इंडिया की भावना से, आइए अब हम रणनीति में उल्लेखित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अपनी ऊर्जाओं को संयोजित करें।”
किसी रणनीति को एक सामान्य योजना या योजनाओं के समूह के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिसका उद्देश्य विशेष रूप से लंबी अवधि में कुछ हासिल करना होता है। इसलिए इस दस्तावेज़ से हमें यही मिलेगा।
मोदी के बाद इस दस्तावेज में नीति आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष ने लिखा कि “पिछले चार वर्षों में परिवर्तन का निर्माण हो रहा है। अर्थव्यवस्था आखिरकार अतीत की नकारात्मक विरासतों, खासतौर से बेतहाशा और बिना किसी फिक्र के कर्ज के विस्तार से बाहर निकल रही है।”
पिछले चार वर्षों (2014-2018) में ऐसे नतीजे सामने आए हैं जो समय के साथ तेजी से बढ़ेंगे। और ये नतीजे कुछ ऐसे क्षेत्रों में दिखाई देंगे जहां सरकार ने खुद के लिए लक्ष्य निर्धारित किए हैं।
पहला लक्ष्य जीडीपी विकास दर में सुधार करना था। दस्तावेज़ में कहा गया है कि यह "2017-18 में निवेश की दर (सकल स्थिर पूंजी निर्माण) को 2017-18 के लगभग 29 प्रतिशत से बढ़ाकर 2022-23 तक सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 36 प्रतिशत कर देगा" और ऐसा करने के लिए "निजी और सार्वजनिक निवेश दोनों को बढ़ावा देने के लिए कई उपायों की आवश्यकता होगी।"
संभवतः ये उपाय किए गए थे। लेकिन आखिर नतीजा क्या निकला? विश्व बैंक ने जो ताजा आंकड़े दिए हैं उसके मुताबिक 2021 में यह दर 29 फीसदी है जिसका अर्थ है कि कोई बदलाव नहीं हुआ। 2014 में ही यह 30फीसदी था, इसलिए एक तरह से इसमें गिरावट ही आई।
सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी वृद्धि में गिरावट की शुरुआत 2018 में हुई और मार्च 2020 तक समाप्त होने वाली लगातार नौ तिमाहियों और कोविड की शुरुआत में गिरावट ही होती रही। निस्संदेह इस दस्तावेज़ के लेखकों को उस समय इसकी जानकारी नहीं थी।
इस दस्तावेज में वे आगे कहते हैं कि भारत का टैक्स-जीडीपी अनुपात लगभग 17 प्रतिशत है जो कि ओईसीडी देशों (35 प्रतिशत) के औसत के मुकाबले आधा है। ब्राजील (34 प्रतिशत), दक्षिण अफ्रीका (27 प्रतिशत) और चीन (22 प्रतिशत) जैसी अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भी काफी कम है। सार्वजनिक निवेश यानी सरकारी निवेश को बढ़ाने के लिए, भारत को 2022 तक अपने कर-जीडीपी अनुपात को जीडीपी के कम से कम 22 प्रतिशत तक बढ़ाने का लक्ष्य रखना चाहिए।
पर नतीजा क्या निकला? कुल टैक्स-जीडीपी अनुपात पिछले साल 17 फीसदा था, यानी इसमें कोई बदलाव नहीं आया। इसका एक कारण यह है कि 2019 में कार्पोरेट टैक्स में कटौती की गई थी।
इस विकास की रणनीति के लिए सरकार ने एक और मुद्दा रखा था और वह था रोजगार संकट को खत्म करना। लेकिन इस मोर्चे पर क्या नतीजे रहे हैं वह मैं और अन्य लोग भी इस बारे में लिखते हैं, लेकिन फिर भी बता देना जरूरी है कि 2018 में बेरोजगारी दर रिकॉर्ड 6 फीसदी पर पहुंच गई थी, और यह आंकड़े सरकारी सर्वे के हैं और तब से वही हैं। 2017 के बाद से हर साल कृषि क्षेत्र में लोगों की आमद बढ़ती ही रही है।
दस्तावेज में इसके बाद मैन्यूफैक्चरिंग की बात की गई है और कहा गया है कि मोदी सरकार “मैन्यफैक्चरिंग सेक्टर की विकास दर को 2022 तक दोगुना करने का इरादा रखती है।” लेकिन 2018 में मैन्यूफैक्चरिंग विकास दर 16 फीसदी रही थी और आज यह 14 फीसदी है। यह विकास दर सिर्फ बढ़ी ही नहीं, बल्कि पहले के मुकाबले कम हो गई।
इसके बाद किसानों की आमदनी दोगुना करने का लक्ष्य था, लेकिन इस बारे में सब जानते हैं कि किसानों की जो राय है और उन्होंने उसे अपने सफल आंदोलन के जरिए भी स्पष्ट कर दिया था।
वित्तीय समावेश का अर्थ बैंक में खाता खोलना, जनधन खाते को आधार और मोबाइल से लिंक करना आदि है, और इस मोर्चे पर ठीकठाक प्रगति भी हुई और इसे मानना भी चाहिए।
इसी दस्तावेज में एक जगह कहा गया है कि, “भारत आने वाले अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों की साझेदारी को 1.18 फीसदी से बढ़ाकर 3 फीसदी करना है।” ऐसा भी नहीं हो सका। होना तो ऐसा था कि अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों की संख्या 88 लाख से बढ़कर 1.2 करोड़ होनी थी। ऐसा नहीं हो सका और कुछ हद तक इसका कारण कोविड महामारी हो सकती है।
दस्तावेज में तमाम तरह की बातें कही गई थीं, ऐसे वादे थे जिनका हकीकत से कुछ लेना देना नहीं है। अब चूंकि 2022 आकर जा चुका है तो हम नतीजे देख सकते हैं। क्या आपने किसी को सुना जो इस दस्तावेज के बारे में बात कर रहा हो? याद रखना होगा कि इसे प्रधानमंत्री ने खुद तय किया था। केरल में हुए एक लिटरेचर फेस्टिवल में किसी ने मुझसे पूछा था, इसके बाद ही मैंने 2014 के बाद के आंकड़े लेकर एक प्रेजेंटेशन तैयार किया कि आखिर ऐसी चीजों के बारे में किसी को कुछ पता क्यों नहीं है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि ये ढकी-छिपी बातें हैं। इसमें से अधिकतर जो जानकारियां और आंकड़े हैं वह सरकार के ही हैं। समय-समय पर होने वाले लेबर फोर्स सर्वे (श्रम बल सर्वेक्षण) में बताया गया है कि पहले के मुकाबले अधिक लोग आधुनिक अर्थव्यवस्था छोड़कर कृषि क्षेत्र में चले गए हैं। निवेश की दर, पर्यटकों की आमद और जीडीपी ग्रोथ की दर के साथ ही टैक्ट-जीडीपी अनुपात के आंकड़े आदि सब सरकार के ही हैं।
अगर हमें इस बात पर हैरानी है कि सरकार जो वादा करती है और पूरा नहीं करती है, तो उसके लिए जिम्मेदारी भी नहीं लेती है, तो हमें इसके लिए सरकार को दोष नहीं देना चाहिए। दरअसल सरकार को भारत की कठिन समस्याओं को हल करने का कोई तरीका आता ही नहीं है और यदि हम नीति आयोग की 'रणनीति' पर विचार करें और देखें कि इससे क्या नतीजा निकला, तो तथ्य सामने आता है कि दरअसल कोई योजना थी ही नहीं।
इतना ही नहीं, अपनी नाकामी के लिए जिम्मेदार होने का कोई दबाव भी शायद इस पर नहीं है। हम विपक्ष की भूमिका और मीडिया की भूमिका के बारे में बहस कर सकते हैं लेकिन ऐसा तो हम करते ही रहते हैं। वास्तविकता यह है कि इस सरकार को जिम्मेदार ठहराना कठिन है क्योंकि यह इसे अनदेखा करके आगे बढ़ जाती है और अतीत में जो कुछ कहा है उसे भूल जाती है। मुश्किल इसलिए भी है क्योंकि इसने तो अपनी अयोग्यता को बाकायदा दस्तावेज में लिखा है, फिर भी....
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