घृणा और वैमनस्य के जहर में डूबा सत्ता पर काबिज रहने का हथियार है भीड़ की हिंसा या ‘मॉब लिंचिंग’

हिंदुत्व और कट्टरता के उन्माद में डूबे ये वे लोग हैं जो बेरोजगारी, झूठे वादों और अच्छे दिनों की टूटी उम्मीद से गुस्से में हैं। इन्हीं को घृणा के जहर में डुबोकर सत्ता में रहने का हथियार बनाया गया है

सोशल मीडिया से ली गई प्रतिनिधि तस्वीर
सोशल मीडिया से ली गई प्रतिनिधि तस्वीर
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तसलीम खान

लोगों को विभाजित कर सत्ता पर काबिज रहने का सबसे तात्कालिक और नया हथियार भीड़ की हिंसा के रूप में हमारे सामने है। इस हथियार की भयावहता दिन-ब-दिन बढ़ रही है। इस हथियार को गौरक्षा और राष्ट्रवाद की भट्टी में झोंककर और नुकीला बनाया जा रहा है। परस्पर विश्वास में अविश्वास की आग लगाकर इस हथियार को हिंदुत्व और दक्षिणपंथी विचारधारा में लपेटकर और जहरीला बनाया जा रहा है।

ये सब आकस्मिक नहीं है। एक सुनियोजित षडयंत्र के तहत ये सब किया जा रहा है। षडयंत्र इतना गहरा कि कब लोग हथियार बन गए. उन्हें एहसास तक नहीं। और वे लोगों को मार रहे हैं। सिर्फ शक के आधार पर ही मार रहे हैं। मारे जा रहे हैं वे जिन्हें उनका कुसूर तक नहीं बताया जा रहा। महज शक की बिना पर मारने वाले कुसूर बताते भी कहां है। बिसहड़ा गांव का अखलाक हो, ट्रेन में सफर करता जुनैद हो, अलवर का पहलू खान हो या फिर मोहम्मद उमर। सब के सब सिर्फ शक में मारे गए। उनकी कोई सुनने को तैयार नहीं।

उन्माद का ये हथियार अब भयावह रूप से घातक हो गया है। पहले सिर्फ उन्मादी भीड़ मार रही थी, लेकिन अब उनका साथ सरकारी मशीनरी दे रही है। मीडिया ने इसे ‘मॉब लिंचिंग’ कहना शुरु किया, जिसके असल में कोई अर्थ होते नहीं हैं, सिवाय इसके कि दुनिया को साफ-साफ न पता चल सके कि हिंसा के इस तांडव का कारण क्या है।

उन्मादी भीड़ की हिंसा कई बार तात्कालिक लगती जरूर है, लेकिन यह तात्कालिक है नहीं, क्योंकि इसकी जमीन तो एक निरंतर जारी उस राजनीतिक प्रचार ने तैयार की है, जिसमें मुसलमानों के खिलाफ संदेह और घृणा का माहौल बनाया गया है। हिंदुत्ववादी और दक्षिणपंथी नेता गौरक्षा की खुलेआम बात करते संकोच नहीं करते। इनमें राज्यों के मुख्यमंत्री से लेकर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत तक शामिल हैं।

इसी साल दशहरे पर संघ के स्थापना दिवस पर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने अपने संदेश में साफ कहा था कि गौरक्षा को हिंसा से जोड़ना ठीक नहीं है। उन्होंने कहा था कि, “विजिलांते यानी रक्षा और सतर्कता शब्द का दुरुपयोग हो रहा है। तमाम बुद्धिजीवी और सुप्रीम कोर्ट इस शब्द का दुरुपयोग कर रहे हैं, गौरक्षक इससे ने चिंतित हों और न विचलित। इस शब्द का इस्तेमाल कर कुछ शक्तियां सभी के दृष्टिकोणों को प्रभावति करने की कोशिश कर रही हैं, जिसके चंगुल से शासन और प्रशासन दोनों को निकलना होगा।”

मोहन भागवत ने गाय के नाम पर हिंसा के खिलाफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दी गई सख्त चेतावनी के परोक्ष संदर्भ में कहा था कि गोरक्षा से पवित्रता के साथ जुड़े स्वयंसेवक सरकार के उच्च पदस्थ व्यक्तियों के बयानों और पीट-पीट कर की जाने वाली हिंसा में शामिल लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए सरकारों और सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों से न घबराएं।

कट्टर हिंदुत्व में मोहन भागवत का संदेश पवित्र होता है। और जब मोहन भागवत ने स्वंय ही कह दिया कि गौरक्षक न सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों और न ही सरकार की चेतावनियों से विचलित हों, तो फिर इस उन्मादी भीड़ को कौन रोकेगा। खासकर तब दिल्ली से लेकर जयपुर तक, और अहमदाबाद से लेकर लखनऊ तक भगवा ही लहरा रहा हो।

कुछ दिन पहले भीड़ के उन्माद पर एक वेबसाइट से बात करते हुए जाने माने सामाजिक मनोवैज्ञानिक आशीष नंदी ने कहा था कि इसका कारण यह है कि लोग नाराज हैं, हताश हैं, लेकिन उन्हें नहीं पता कि ऐसा क्यों हैं। आशीष नंदी ने कहा था कि, “इस समय देश में विभिन्न गुटों को आपस में लड़वाने की कोशिश की जा रही है। राष्ट्रवाद, गौरक्षा जैसी भावनाओं को तेज़ किया जा रहा है ताकि लोग आपस में लड़ें और राजनीतिक दल उनपर राज करें।”

यह सत्ता हासिल करने या पहले से हासिल की गई सत्ता पर काबिज रहने का षयडंत्र ही है कि संघ से जुड़ी संस्था विश्व हिंदू परिषज गौरक्षकों को हत्यारा मानने को तैयार ही नहीं। उसका तर्क या कहें कि कुतर्क है कि ‘जो रक्षक है वो हत्यारा’ कैसे हो सकता है। विश्व हिंदू परिषद के इस बयान की न तो कभी संघ और न ही बीजेपी ने निंदा या आलोचना की। ऐसे में गौरक्षा के नाम पर हिंसा का तांडव करने वाले उन्मादी लोगों की भीड़ अनियंत्रित ही होगी।

यूं भी जब देश का प्रधानमंत्री वह व्यक्ति हो जिसने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए फर्जी एंकाउंटर की खुली छूट दे रखी थी, देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री ऐसा हो जिसके राजनीतिक जीवन का आधार ही मुस्लिमों से नफरत और उनके खिलाफ हिंसा भड़काना रहा हो, जब देश के दिल मध्य प्रदेश में ऐसा मुख्यमंत्री हो जिसे राज में सामूहिक बलात्कार को सहमति से बनाया गया संबंध कहा जा रहा हो, जब सत्तारूढ़ राजनीतिक दल का राष्ट्रीय अध्यक्ष ऐसा व्यक्ति हो जिसे आपराधिक मामलों के चलते उसके अपने गृहराज्य से ही तड़ीपार कर दिया गया हो, तो ये उन्मादी भीड़ बेकाबू तो होगी ही। इन कथित गौरक्षकों को पता है कि उनका कुछ नहीं बिगड़ने वाला।

लेकिन कुछ गंभीर सवाल हैं, जिनके जवाब तलाशना बेहद जरूरी हैं क्योंकि अगर ऐसा नहीं हुआ तो भारत का नाम का विचार खतरे में पड़ जाएगा।

  • इस उन्मादी भीड़ में शामिल लोग हैं कौन?
  • कट्टर हिंदुत्व और दक्षिणपंथी विचारधारा के अतिरिक्त भी उनकी कोई पहचान होगी?
  • क्या ये वे लोग हैं जो बेरोजगारी, झूठे वादों और अच्छे दिनों की टूटी उम्मीद से गुस्साए हुए हैं?
  • क्या इसी गुस्से को सांप्रदायिकता की प्रयोगशाला में तैयार घृणा और वैमनस्य के जहर में डुबोकर सत्ता में काबिज रहने का हथियार बनाया गया है?

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Published: 13 Nov 2017, 8:40 AM