प्रवासी मजदूरों को बेहतर सुरक्षा और न्याय की जरूरत, श्रम-विभाग को और सक्रिय होना होगा
स्थानीय आजीविका आधार को मजबूत और विविधतापूर्ण कर ऐसी स्थिति बनाई जा सकती है कि बहुत प्रतिकूल परिस्थितियों में प्रवास करना मजदूरों की मजबूरी न बनी रहे।
22 मई को ग्वालियर रेलवे स्टेशन के पास एक दिल दहलाने वाली स्थिति देखी गई। भीषण गर्मी के प्रकोप की स्थिति में एक बहुत गरीब और लाचार महिला अपने तीन बच्चों के साथ खड़ी रो रही थी और उसके सामने थी उसके पति की लाश।
पूछने पर उसने बताया कि उसका नाम प्रेमकली है और वह अपने पति ओम प्रकाश के साथ पास के एक ईंट भट्टे पर कार्य करने आई थी। कुछ महीने काम करने के बाद उसका पति बीमार हो गया।
जब उसकी स्थिति अचानक अधिक बिगड़ गई तो उन्हें चले जाने को कह दिया गया ताकि ईंट भट्टे पर मौत न दिखाई जाए। वह बहुत कठिनाई से रिक्शा कर पति को यहां तक ला रही थी पर पति की मौत हो गई। प्रेमकली को ईंट भट्टे वालों ने बकाया पैसे नहीं दिए बल्कि कहा कि तुम्हारे पति ने ही हमें कुछ लौटाना है।
कुछ स्टेशन और पुलिस अधिकारियों की सहायता से एक एंबुलैंस की व्यवस्था हो सकी और ओम प्रकाश का शव उसके गांव मोहरा (जिला बांदा) में पहुंचाया जा सका। जब यह लेखक इस गांव में कुछ दिन बाद गया तो पता चला कि ओम प्रकाश के एक अन्य नजदीकी रिश्तेदार की भी ईंट भट्टे से लौटने पर शीघ्र ही मृत्यु हो गई थी। ओम प्रकाश का बड़ा भाई लवकुश भी बहुत समय तक ईंट भट्टों में जाता रहा और अब वह टीबी का मरीज है, बहुत कमजोर स्थिति में है।
गांव की दलित बस्ती के इन लोगों ने बताया कि ईंट भट्टे में दिन-रात जम कर पति-पत्नी काम करते हैं तो कुछ कमाई होती है पर बीमार पड़ने पर यह सिलसिला टूट जाता है। उन्होंने कहा स्वास्थ्य की अनेक समस्याएं हैं पर स्थानीय रोजगार न मिलने पर रोजी-रोटी के लिए प्रवास करना ही पड़ता है। उन्होंने बताया हमारी बस्ती में आधे से अधिक परिवारों के लोग ईंट-भट्टों में जाते रहे हैं और कुछ पड़ोसी गांवों में तो यह प्रतिशत और भी अधिक है। इनमें से अधिकांश मजदूर अक्टूबर-नवंबर के आसपास ईंट-भट्टों में चले जाते हैं और फिर अगले वर्ष जुलाई के आसपास लौटते हैं। इस तरह वर्ष के 12 महीनों में से लगभग 9 महीने प्रवास में ही गुजर जाते हैं।
उनके छोटे बच्चे यदि साथ जाते हैं तो ईंट भट्टों में उनके लिए बहुत प्रतिकूल स्थितियां होती हैं। यदि घर में बुजुर्ग मौजूद हों तो बच्चे उनके पास छोड़े जा सकते हैं पर केवल बच्चों और बुजुर्गों का परिवार बहुत असहाय सी स्थिति में रहता है। स्थिति कैसी भी हो पर बच्चे या तो शिक्षा से वंचित होते हैं या उनकी शिक्षा ठीक से नहीं हो पाती है।
स्थानीय आजीविका आधार को मजबूत और विविधतापूर्ण कर ऐसी स्थिति बनाई जा सकती है कि बहुत प्रतिकूल परिस्थितियों में प्रवास करना मजदूरों की मजबूरी न बनी रहे। इसके अतिरिक्त उनका रजिस्ट्रेशन कर उनका उचित रिकार्ड रखना चाहिए और किसी मुसीबत में पड़ने पर उन्हें मूल निवास क्षेत्र के श्रम कार्यालय में फोन पर संपर्क करना चाहिए ताकि उनके लिए आवश्यक राहत की व्यवस्था की जा सके। प्रवासी मजदूर कानून और बंधुवा मजदूर कानून के विभिन्न प्रावधानों का पालन होना चाहिए। जिन कार्यस्थलों की ओर मजदूरों का प्रवास बड़े पैमाने पर होता है, वहां के श्रम-विभाग को भी अधिक सक्रियता से मजदूरों से हो रहे किसी भी अन्याय और शोषण के विरुद्ध कार्यवाही करनी चाहिए।
ऐसे मजदूर प्रायः कुछ अग्रिम राशि प्राप्त करने के बाद ही अपने गांव से प्रवास करते हैं और बाद में भी अपनी खाद्य आदि आवश्यकताओं के लिए वे अग्रिम राशि लेते हैं। दूसरी ओर कुछ निश्चित मात्रा में ईंट बनाने पर जो भुगतान उन्हें होता है, उसमें से यह सभी भुगतान काट कर उनका अंतिम हिसाब किया जाता है। यह हिसाब-किताब ठीक से हो और इसमें कोई अनुचित कटौती आदि न हो, यह सुनिश्चित करना भी जरूरी है। पर संभवतः सबसे बड़ी जरूरत तो यह है कि शोषण की स्थितियों को मजबूरी में स्वीकार करने से बचा जाए। बड़ी संख्या में ग्रामीण परिवारों, विशेषकर भूमिहीन परिवारों का ऐसी प्रवासी मजदूरी पर निर्भर हो जाना निश्चय ही कोई न्यायसंगत स्थिति नहीं है और स्थानीय स्तर पर आजीविका सुधार से यह सुनिश्चित करना चाहिए के बेशक मजदूर अपनी स्थिति बेहतर करने के लिए कहीं भी जाएं, पर बेहद विकट हालत में शोषण को स्वीकार करने के लिए वे मजबूर कभी न हों।
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