प्रवासी मजदूरों को सरकार से मिला ‘कोरोना तोहफा’, गरीबों के लिए बस कंसंट्रेशन कैंप की औपचारिक घोषणा बाकी
24 मार्च को लॉकडाउन की घोषणा के वक्त प्रवासी श्रमिकों के आवागमन की अनदेखी कोई भूल, बेवकूफी, या हड़बड़ में गड़बड़ जैसी बात नहीं थी। यह महामारी की आड़ में शुरू से ही श्रमिकों पर शिकंजा कसने की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा थी। इसे अब राष्ट्र निर्माण के महान, उच्च लक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा है।
कोरोना महामारी के पहले भारतीय रेलवे रोज 12,000 ट्रेनों का परिचालन करती थी। यानी, केवल 1,500 यात्रियों के हिसाब से सोचें तो 1 करोड़ 80 लाख लोगों को रोज ढोने की क्षमता रखती थीं। यदि केंद्र सरकार ने 24 मार्च को अगले तीन-चार दिनों में सभी प्रवासियों को, चाहे वे अपने ही राज्य के भीतर प्रवास कर रहे थे या बाहर, घर लौटने का विकल्प दिया होता तो लाखों गरीब प्रवासी श्रमिकों, छात्रों और तात्कालिक यात्रा के दौरान फंसे लोगों को जिन तकलीफों का सामना करना पड़ा और जिस प्रकार से प्रवासी मजदूर आज भी अनिश्चितताओं के बीच मर-खप रहे हैं, उसकी नौबत नहीं आती।
इस मोहलत से साढ़े तीन सौ लोगों की जानें नहीं गई होतीं। जो जीवित रहे और सड़कों और पटरियों पर चले, जिन्होंने कंटेनरों तक में छिपकर घर पहुंचना चाहा, जिन पर केमिकल का स्प्रे किया गया, जिन्हें पुलिस और गुंडों के डंडों की मार झेलनी पड़ी, टीवी और अन्य माध्यमों से जिनकी लाचारी और बेबस चेहरा दुनिया ने देखा, उनके आत्मसम्मान का क्या?
क्या अब यह भी सरकार तय करेगी कि लोग अपने घर जाएं या नहीं? अपने परिवार से मिलें या नहीं? काम न धाम, फिर भी वे रुके रहें? बेघरबार हो कर भी रुके रहें? झुग्गी-झोपड़ियों की दुरावस्था में रह कर बीमारी का खतरा भी औरों से ज्यादा झेलें, एक समय के भोजन के लिए घंटों लाइन में लगें, रास्ते में पुलिस की मार भी खाएं और फिर भी रुके रहें? क्या अब लोकतंत्र में लोगों को अपने बारे में निर्णय लेने का अधिकार भी नहीं होगा?
वर्तमान में भारतीय रेल के जिन 20,000 कोचों को क्वारंटीन के लिए अलग रखा गया है, अगर उन्हें छोड़ भी दें, यानी तकरीबन 850 या 1000 ट्रेनों को कम भी कर दें, तब भी 11,000 ट्रेनें सवा करोड़ से अधिक लोगों को ढाई-तीन दिनों के भीतर देश के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंचा सकती हैं। लेकिन आखिर क्यों 29 अप्रैल के बाद अब तक ट्रेनों की संख्या 1000 तक भी नहीं पहुंच पाई है? अभी भी सूरत समेत कई शहरों में प्रवासी मजदूर घर जाने के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं, पुलिस से भि़ड़ जा रहे हैं, लाठी, डंडे और अश्रु गैस के गोले झेल रहे हैं। कई जगहों पर मजदूरों को जबरन रोक कर बंधुआ जैसी स्थिति बनायी जा रही है।
लेकिन इस तरह की ट्रेनों की संख्या बढ़ाने की बजाए रेलवे ने एसी कोच वाली राजधानी स्तर की स्पेशल ट्रेनों को चलाने का फैसला लिया है और वह भी नियमित तौर पर। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि अब जबकि ट्रेनों के नियमित परिचालन की दिशा में कदम उठाया गया है तो भूखे-प्यासे परदेस में पड़े मजदूरों के लिए जाने की व्यवस्था करने की बजाए आखिर क्यों शुरुआत में केवल एसी कोच वाली ट्रेनों को चलाने की घोषणा हुई? आखिर इनमें कौन लोग और कितना किराया देकर सफर करेंगे?
और इसी बीच कई राज्यों ने श्रम कानून के इतिहास में काला अध्याय लिखना शुरू कर दिया। कानूनों के कार्यान्वयन की स्थिति चाहे जो रही हो, कागज पर तो हालात बेहतर थे और उन्हीं कागजों के बल पर मजदूर लड़कर कई बार अपने हक और मर्यादा की रक्षा कर पाते थे। और अब ये सरकारें कागज पर दिए हक भी छीनना चाहती हैं।
दरअसल भारत में बाजारवाद और उदारीकरण की अवधारणा के मूल में ही श्रमिकों के अधिकारों के हनन का भाव है। दोनों में कभी तादात्म्य नहीं बैठ पाया। ऊपर से ब्राह्मणवाद, पुरुषवाद और आजकल बहुसंख्यवाद। इन सबने वर्ग, जाति, लिंग और धर्म के आधार पर विभेद और अन्याय का संस्थानीकरण कर दिया है।
कोरोना महामारी के पूर्व केंद्र सरकार श्रम कानूनों में भारी बदलावों का प्रस्ताव ले कर आई थी। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान आदि राज्यों ने निवेश को प्रोत्साहित करने और मुनाफा बढ़ाने के लिए श्रम कानूनों में ढील और फेरबदल के लिए जो अध्यादेश जारी किये हैं, वे केंद्र सरकार के पूर्व-नियोजित प्रस्तावों से प्रेरित हैं।
इसे इस तरह समझा जा सकता है। एक श्रमिक को रोज 12 घंटे काम करना होगा। छः घंटे के बाद आधे घंटे का ब्रेक मिलेगा। यानी, जिस मजदूर का शिफ्ट दिन में 9 बजे शुरू होता है, उसका शिफ्ट रात के साढ़े 9 बजे खत्म होगा। इसमें आप काम की जगह तक आने-जाने का समय जोड़ दीजिये। श्रमिकों की जिंदगी क्या रह जाएगी?
साफ है कि अब देश में श्रमिक कंसंट्रेशन कैंप की औपचारिक घोषणा मात्र की कमी रह गयी है। यही है हमारी सरकारों की तरफ से देश के श्रमिकों को ‘कोरोना तोहफा’! किसी भी आपदा के समय जब आम श्रमिक वर्ग सबसे कठिन हालात में होता है और जब उसे सहायता, एकजुटता और करुणा की सबसे ज्यादा दरकार होती है, उसे कमजोर देख सत्ता उसी समय उस पर हमला बोलती है। जब 2004 में सुनामी आया था, तब तत्कालीन सरकार ने समुद्र तटों से संबंधित कानून में संशोधन के जरिये वहां से मछुआरों को हटाने और तटों का निजीकरण करने की कोशिश की थी। खैर, तब पीड़ितों की सहायता को लेकर ऐसी हृदयहीन राजनीति नहीं हुई थी।
एक बात तो स्पष्ट है कि 24 मार्च को लॉकडाउन की घोषणा के वक्त प्रवासी श्रमिकों के हितों या उनके आवागमन की अनदेखी कोई भूल, बेवकूफी, या हड़बड़ में गड़बड़ जैसी बात नहीं थी। यह महामारी का लाभ उठाते हुए शुरू से ही श्रमिकों पर शिकंजा कसने की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा थी। इसे अब राष्ट्र निर्माण के महान, उच्च लक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा है। सस्ते श्रम की बदौलत उच्च जीवन शैली के आदि हो चले मध्य वर्ग को भी यह पसंद आएगा। उसके बड़े हिस्से का रोजगार निजी क्षेत्र से ही आता है और सस्ता श्रम उसे बहुत भाता है।
अगर 25 से 30 मार्च के बीच जब संक्रमण की दर भी बहुत कम थी, प्रवासियों के लौटने का इंतजाम किया गया होता तो आज परिस्थिति कुछ और ही होती। प्रवासी डेढ़-दो माह परिवार के साथ बिताने के बाद स्थिति थोड़ा सामान्य होने और गंतव्य पर काम-काज शुरू होने का आभास मिलते ही वापस लौटने की तैयारी कर रहे होते। अर्थव्यवस्था को दोबारा पटरी पर लाने में सचमुच आसानी होती।
फिलहाल यह देखना बचा है कि सरकार के दांव कितने सफल होते है। श्रमिकों की आवाजाही पर रोक और काम के घंटे बढ़ने से केवल प्रवासी ही नहीं सभी श्रमिकों में भारी असंतोष फैलने की संभावना है। श्रमिक वर्ग अपने को पहले से ही ठगा पा रहा है। पर सरकार इसकी परवाह क्यों कर करे? उसने कब लोकमत की परवाह की है? यह बेलगाम और क्रूर ताकत के जोर से चलने वाली सरकार है। भारत के श्रमिक वर्ग में दलित, पिछड़े, मुस्लिम अल्पसंख्यक और इनके पुरुषों और महिलाओं की बहुसंख्या है। यह देश की आबादी की बहुसंख्या भी है। यदि मेहनतकश जनता में अपने मान-सम्मान और हक के लिए कद्र है और उन्हें एकजुट करने वाली ताकतें तैयार हैं तो यह वक्त एक नये और शक्तिशाली श्रमिक आंदोलन के आगाज का वक्त भी साबित हो सकता है।
(लेखक टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के पटना केंद्र के चेयरपर्सन हैं)
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