मृणाल पांडे का लेख: नेतृत्व की सुदर्शन छवियां दिखाता रह गया मीडिया, मार गई महामारी, ढह गई इकोनॉमी
शर्मनाक आपाधापी और लाल बुझक्कड़ी सलाहों से घिरे इस देश की अर्थव्यवस्था विकसित तो क्या ही होती, जितनी थी, उतनी भी नहीं रह पाई। आंकड़ों के अनुसार, उसमें 23.9 फीसदी की सिकुड़न आ गई है। सबसे ज्यादा सिकुड़न निर्माण क्षेत्र में है, फिर खदान, सेवा क्षेत्रों में।
भारत सचमुच एक अजूबा है। 2020 के पहले छः महीनों में हजारों की तादाद में कोविड महामारी से लोग मर गए। कोविड संक्रमण के सबसे अधिक मामले आज भारत में दर्ज हो रहे हैं और हमारे स्वास्थ्य मंत्री कह रहे हैं कि उनको उम्मीद है, अक्टूबर तक बीमारी थमने लगेगी। मार्च, 2020 में देश पर अचानक बिना सलाह-मशविरे के लाद दी गई इकतरफा तालाबंदी ने अगस्त के अंत तक कल-कारखाने ठप्प कर सकल राष्ट्रीय उत्पाद दर का कचूमर निकाल दिया। रातों रात बेरोजगार हुए लाखों प्रवासी शहरी कामगारों को घर लौटते सब देखते रहे, पर कोई दंगा या बड़ा जनांदोलन नहीं उठा। अब जब तालाबंदी पूरी तरह उठ जाएगी तो मध्यवर्ग का सुविधा भोगी हिस्सा भी बेरोजगारी की आंच अपनी देह पर महसूस करेगा क्योंकि हर कहीं से आंकड़े आ रहे हैं कि कॉरपोरेट और सेवा क्षेत्र से लेकर मीडिया तक बेरोजगारी दर चौकड़ीभर रही है। फिर भी कम-से-कम गोदी मीडिया कह रहा है कि उनको मोदी जी सर्वमान्य नेता नजर आते हैं, दूसरा न कोई।
अचंभा यह कि कथित सर्वमान्य शिखर से मास्क लगाकर युवाओं को किसी नए पैकेज की बजाय सलाह दी जा रही है कि वे व्यायाम करें, पारंपरिक खिलौने बेचें, महामारी के बीच भी प्रतियोगी परीक्षा में मास्क लगाकर एग्जाम वॉरियर बन जेईई/नीट परीक्षा दें, परिसर खुलें और बच्चे तथा शिक्षक पढ़ाई-लिखाई में लगें। उत्तर प्रदेश को देखिए जहां हत्याएं या कोरोना के मामले तेजी से बढ़ते दिख रहे हैं और जातीय आधार पर सूबे में हथियारों की मालिकी की तालिकाएं बनवाए जाने की भी खबरें बार-बार आ रही हैं। भव्य राम मंदिर बनवाया जा रहा है। कहा जा रहा है रामजी भला करेंगे।
इन तमाम चुनौतियों की बजाय युवा क्षेत्रीय स्तर पर किन बातों पर उत्तेजित बताए जा रहे हैं? कि मंत्रालयीन गोष्ठियों में लिंक भाषा अंग्रेजी की जगह हिंदी को काहे लादा जा रहा है। कि गिने-चुने लोगों की नौकरशाही सिविल सेवा में इतनी बड़ी तादाद में अल्पसंख्यक लोग क्यों आ रहे हैं? कि रिया ने क्या भोले बिहारी मित्र पर बंगाल का जादू चलाया था?
शर्मनाक आपाधापी और लाल बुझक्कड़ी सलाहों से घिरे इस देश की अर्थव्यवस्था विकसित तो क्या ही होती, वह जितनी थी, उतनी भी नहीं रह पाई। ताजा सरकारी आंकड़ों के अनुसार, उसमें 23.9 फीसदी की सिकुड़न आ गई है। सबसे ज्यादा सिकुड़न निर्माण क्षेत्र में है, फिर खदान और सेवा क्षेत्रों में। गौरतलब है कि यही वे क्षेत्र हैं जिनमें सबसे अधिक रोजगार उपजते रहे हैं। कृषि क्षेत्र ने तनिक नाक रख ली है, पर 3 फीसदी से कुछ अधिक वृद्धि दर कोई बहुत उत्साहजनक नहीं कही जा सकती। मीडिया से उम्मीद थी। लेकिन वहां जो झागदार झगड़े या आक्रोश है, वह ठोस मुद्दों पर नहीं टुटपूंजिये प्रतीकों पर है। सूचनाधिकार को तो ताक पर धर दिया गया है और जरूरत हो तो भी सरकार से बेरोजगारी के सरकारी आंकड़े या प्रधानमंत्री केयर्स फंड के आंकड़े नहीं पाए जा सकते। अलबत्ता देश का सबसे लोकप्रिय नेता कौन? शिखर नेता की मोर को दाना खिलाती छवियां आज जनता का मनोबल बढ़ाएंगी कि कम करेंगी कि वैसा ही रखेंगी, इस पर राय शुमारियां हो रही हैं। उड़ता बॉलीवुड कितनी ड्रग्स लेता है? एक रुपये का दंडभर कर प्रशांत भूषण जीते हैं कि न्याय व्यवस्था? अगर प्रणव मुखर्जी प्रधानमंत्री बन गए होते तो क्या होता? गोदी मीडिया हर चारेक सप्ताह में इसको पुष्ट करने वाले शोध-आंकड़े आपको बरबस थमाता है। पखवाड़े पहले हमने देश की आजादी की सालगिरह मनाई थी या उसकी अनौपचारिक समाप्तिका सोग?
इस बीच संसद में इस बार उठने जा रहे महत्व के मुद्दों की ज्ञानवर्धक चर्चा या कि विदेश नीति तथा सीमा सुरक्षा पर कमरे में खड़ा हाथी जिनको नहीं दिखता, वे सब कांग्रेस में तनिक भी भीतरी कलह की भनक होने पर शेष सब खबरें नेपथ्य में भेज कर उनपर ब्रेकिंग न्यूज चलवाने लगते हैं। विपक्ष, खासकर कांग्रेस, उसमें भी गांधी परिवार को लेकर योजनाबद्ध तरीके से पापशंकी बना दिए गए मीडिया में राहुल गांधी का उतरना उनके पूछे सही सवालों पर ध्यान देने की बजाय उनकी कथनशैली के पुर्जे-पुर्जे करने बैठ रहा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। अगर मोदी जी की तुलना में उनकी छाप सुदूर और अपरिचित है तो एक हद तक यह स्वाभाविक है। अपनी सक्षम मां और मनमोहन सिंह जी के जमाने में वह काफी हद तक नेपथ्य में ही थे। और मीडिया ने जो अतिनाटकीयता ओढ़ ली है, उसमें उनकी गंभीर मुखमुद्रा और लगभग मास्टरी तर्ज-ए-बयां कांग्रेस के प्रतिस्पर्धी और भाषा की उस जादूगरी से फर्क है जो बरबस दर्शकों से वंस मोर निकलवाती रहती है।
फिर भी मीडिया पर सफल होने और आमजन तक अपनी खरी बात पहुंचाने के लिए शायद आज हर नेता को कुछ जरूरी बदलाव करने होंगे। पहली यह कि मातृभक्ति और बुजुर्गी का अतिरिक्त आदर उनकी जनता से खरी बात में आड़े न आए। हां, हां, बड़ों का आशीर्वाद अच्छी बात है, यह तो हम हर बरस टीवी पर प्रचारित किया जाता देखते ही रहे हैं। लेकिन सचाई यह भी है कि एक युवा नेता एक हद तक अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी से जूझ कर ही राजनीति में इस्पात बनता है। नेहरू न केवल मोतीलाल जी से लड़े बल्कि उन्होंने उनको भी बदल दिया। दूसरी बात, कोई बड़ा नेता किसी दूसरे के पगचिह्नों पर पग रख कर बहुत आगे नहीं जा सकता। उसे अपनी राह खुद बनानी होती है और चट्टानें काटनी पड़ें तो वह भी करना होता है। जनमानस में नेता की शक्ल उस युवा की ही नहीं बनी रहनी चाहिए जिसने तूफानों को करीब से देखा-झेला है लेकिन हर बवंडर की हुमक कर सड़क से संसद तक सवारी नहीं की।
नेतृत्व में क्या गुण हों, न हों, यह समझने के लिए हालिया अखबारों में मरणोपरांत प्रणव मुखर्जी पर कई लेखों को पढ़ना रोचक था। कई जगह चर्चा दिखी कि यदि मनमोहन सिंह की जगह वह प्रधानमंत्री बनाए जाते तो भारत कैसा होता? मनमोहन सिंह का बतौर एक प्रधानमंत्री तथा वित्त मंत्री उजला साफ रिकॉर्ड सामने है। उनकी तुलना में प्रणव बाबू का सारा दृष्टिकोण एक काबिल ब्यूरोक्रैट का था जो विकास पर कम और सही नियम-कायदों (स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर्स) पर अधिक ध्यान देता है। मूल बात यह है कि उनमें आधुनिक विश्व अर्थव्यवस्था की वह गहरी पकड़ नहीं थी जिसके बल पर मनमोहन सिंह देश की विकास दर 10 फीसदी बढ़ाले गए। प्रणव बाबू बहुश्रत बहुपाठी थे, पर मनमोहन सिंह उनकी तुलना में शांत, अमर्ष भाव से रहित नजर आते हैं। और भारत की परंपरा में उसके जो सबसे जनता के प्रिय और बेहतरीन शासक- कनिष्क, अशोक, अकबर और नेहरू, शास्त्रीजी या मनमोहन सिंह हैं, वे उदार हृदय, सहिष्णु और ईर्ष्यावश बदला लेने की भावना से लगभग रहित रहे।
2020 में आजाद भारत की सबसे पुरानी पार्टी में पीढ़ियों के बीच के फर्क को सामने उभरते देख भविष्य का अनुमान लगाना दिलचस्प है। लोग मानते हैं कि हमारे यहां सत्ता के लीवरों पर बूढ़े ही बहुतायत में काबिज रहे। पर यह सच नहीं है। नेहरू जी के बाद शास्त्रीजी प्रधानमंत्री बने जो 1947 तक कांग्रेस के संसदीय सचिव थे। उनके बाद (मोरारजी को निराशकर) इंदिरा जी आईं जो उनसे कहीं कम उम्र थीं। जगजीवन बाबू जब मंत्री बने कुल 38 बरस के थे, प्रणव बाबू 33 बरस के। इसलिए कांग्रेस नेतृत्व के लिए अब जरूरी काम यह है कि वह अगले बीस सालों के लिए एक ताजा नई पीढ़ी को संवारे और तैयार होने पर उसे जिम्मेदारी देने में कंजूसी न करे। बुजुर्ग नेता जो आज कांग्रेस में हैं, इसलिए कि कांग्रेसियत की उनको आदत है। पर नई पीढ़ी, नया खून तभी पार्टी की तरफ खिंचेंगे जब उनको अपने समवयसी या लगभग समवयसी वहां बहुतायत से दिखाई दें।
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