सिर्फ मंडी हाउस ही नहीं थिएटर की दुनिया, यमुना पार उभरी रंगमंच और रंगकर्म की नई संभावना
यमुना पार इलाके में जो स्टूडियो थिएटर हैं, वहां नाटक होने के साथ बारहों महीने नाट्य प्रशिक्षण चलता रहता है। जिन्हें एनएसडी में दाखिला नहीं मिलता लेकिन इसी में अपना भविष्य बनाना है, वे इन्हीं संस्थाओं में पहुंचते हैं। यहां रंगमंच को समझने की कोशिश करते हैं।
मौजूदा रंगमंच और रंगकर्म का जो अखिल भारतीय परिदृश्य है, उसे देख कर इस सच से कोई इंकार नहीं कर सकता कि यह एक महानगरीय, आधुनिक, पाश्चात्य और बहुत हद तक अभिजन रंगमंच का मॉडल है। भले ही इससे भिन्न तरह के रंगमंच का भी किसी-न-किसी रूप में अस्तित्व है, प्रभुत्व उसी रंगमंच का है जो महानगरों में सरकारी संस्थानों, सरकार द्वारा पोषित संस्थाओं और कॉरपोरेट घरानों द्वारा चलाया जा रहा है।
उसे ही मुख्यधारा का रंगमंच कहा जा रहा है जिन पर एनएसडी, संस्कृति विभाग, संगीत नाटक अकादमी, श्रीराम सेंटर, मेटा, एनसीपीए, पृथ्वी थिएटर जैसे संस्थानों की मुहर लगी है। बड़े-बड़े तमाम कॉरपोरेट घराने पहले से ही इस इलाके में सक्रिय थे, अब इस धारा में ‘नीता मुकेश अंबानी कल्चरल सेंटर’ ने भी अपनी ग्लोबल उपस्थिति दर्ज कर दी है। जाहिर है, इनके आभा मंडल से निकला रंगमंच कुछ ऐसा सम्मोहन रचता है कि आंखें चुंधिया जाती हैं। ये जो करते हैं, वही दूसरों के लिए नजीर बनता है।
लेकिन यहीं एक बहस भी शुरू हो जाती है- इसमें ‘कितना रंगमंच’ है और ‘कितना जीवन’! ऐसे में रंगमंच के पास क्या विकल्प है? क्या देश भर के रंगकर्मी उसी तरह नाटक करेंगे जैसा कि अभिजन करते-कराते हैं? या इससे इतर कोई वैकल्पिक रास्ता निकालेंगे? क्या अपना कोई नया रंगमंच होगा? ये तमाम सवाल हैं!
पानी की बहती धारा को बांध दें तो पानी अपना मूल स्वाद खो देता है। केन्द्रित रंगकर्म के साथ भी कुछ ऐसा ही है। देशभर का रंगमंच दिल्ली में केन्द्रित है और दिल्ली का मंडी हाउस में। मंडी हाउस के गोल पार्क के चारों तरफ जितनी भी सड़कें निकलती हैं, हर तरफ थिएटर ही थिएटर है। यहां रोज कोई-न-कोई नाटक मंचित होता ही है। कोई सरकारी स्तर पर, तो कोई निजी स्तर पर।
इन प्रेक्षागृहों में नाटक करना इतना आसान भी नहीं है। श्रीराम सेंटर में जहां 6 घंटे के लिए साठ हजार शुल्क है, वहीं कमानी जैसे ऑडिटोरियम के लिए लगभग एक लाख। ‘बहुमुख’, ‘सम्मुख’ और ‘अभिमंच’ तो एनएसडी के लिए स्थायी रूप से आरक्षित हैं। संगीत नाटक अकादमी के बंद या खुले रंगमंच का हाल यह है कि वहां महीनों कोई मंचन शेड्यूल न भी हो, किसी को उपलब्ध नहीं हो सकता।
मंडी हाउस के ये सरकारी ऑडिटोरियम किसी रेलवे प्लेटफार्म पर पड़ी अनाज की उस बोरी जैसे हैं जो पड़ी-पड़ी सड़ जाती हैं, किसी जरूरतमंद को नहीं मिलती। ऐसे में पानी को कब तक बांधकर रखेंगे। इतिहास गवाह है कि बंदिशों के दौर में भी जब मुखर स्वर वाले नाटकों के लिए कोई स्पेस नहीं रह गया था, तब भी रंगमंच की धारा को कोई बांध नहीं सका था। नुक्कड़ों पर घूम-घूम कर नाटक होने लगे थे। उत्पल दत्त ने तो घूम-घूम कर सत्ता को चकमा देते हुए इस तरह नाटक किए कि नाम ही ‘गुरिल्ला थिएटर’ पड़ गया।
तो स्वाभाविक सवाल है कि अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरे के साथ ही रंगमंच के अभिजन हाथ में कैद होने के इस नए दौर में क्या रंगकर्म थम जाएगा? इस संकट ने रंगमंच को नए सवालों से टकराने, नयी राह बनाने का बहाना दे दिया है। और यह सवालों से टकरा भी रहा है, जवाब भी खोज रहा है। एक नया रंगमंच, एक नया रंगकर्म आकार ले रहा है। यह मुखर भी है, स्वर में भी, कंटेंट में भी।
नतीजा, दिल्ली में ही एक और दुनिया आकार ले रही है। मंडी हाउस से थोड़ी ही दूर, यमुना पार इलाके में है लक्ष्मी नगर। बड़ा व्यावसायिक केन्द्र भी है, कोचिंग का अड्डा होने के नाते एजुकेशन हब भी। पॉलिटिकल एक्टिविस्ट भी खूब नजर आते हैं। थिएटर स्ट्रगलर्स की तो बात ही न करिए। यह यहां का नया रंग है जो बीते कुछ सालों में इस पर गहरे चढ़ा है। यहां दिखने वाला हर दसवां युवा आपको थिएटर का ही बंदा दिखेगा। लक्ष्मी नगर ही नहीं, उसके आसपास के निर्माण विहार, प्रीत विहार, मयूर विहार, शकरपुर, मदर डेयरी का भी लगभग यही माहौल है। आज से नहीं, दसियों साल से यह इलाका स्ट्रगलर की शरण स्थली है।
‘मंडी हाउस’ का इलाका अभिजात्य और महंगा होने के कारण वहां रहकर थिएटर करना हर किसी के वश का नहीं। सो पहले की दिनचर्या यही रहती कि दिनभर मंडी हाउस में थिएटर करते, रात को यमुना पार निकल जाते। लेकिन अब इन्हें नया ठिकाना मिल गया है। अब लक्ष्मी नगर (या यमुना पार) में सिर्फ रहना ही नहीं हो रहा, रंगकर्म भी साथ चल रहा। यहीं रहते हैं, यहीं नाटक करते हैं। मंडी हाउस में जितने ऑडिटोरियम होंगे, उससे दुगने-तिगुने स्टूडियो थिएटर लक्ष्मी नगर और आसपास के इलाके में हैं। जितने प्रशिक्षण संस्थान मंडी हाउस में न होंगे, उससे कई गुना यमुना पार खुल गए हैं।
क्या है यह स्टूडियो थिएटर?
कह सकते हैं कि पारंपरिक रंगमंच, अभिजात्य रंगमंच के समानांतर वह रंगमंच जो सामान्य जन के करीब हो। मतलब सरकारी अनुदान पर निर्भर न रहने वाले, कम पैसे वाला रंगकर्म करने वालों ने अपना रास्ता निकाल लिया है। भारत में यह आंदोलन आजादी के एक दशक बाद ही दिखने लग गया था। मुंबई में लोगों ने घरों की छतों पर प्रयोग के तहत नाटक खेलना शुरू कर दिया था। जरूरत पड़ने पर घर के बरामदे और ड्राइंग रूम में भी नाटक हुए। दिल्ली आने के पहले इब्राहिम अलकाजी ने ‘राडा’ के बाद मुंबई से थिएटर करना प्रारंभ किया तो उन्होंने अपनी संस्था ‘थिएटर यूनिट’ के माध्यम से कई नाटकों का मंचन छत पर किया। बाद में सत्यदेव दुबे भी ऐसे प्रयोग करते दिखे।
पाश्चात्य मुल्कों में तो यह आम बात है। विशेषकर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब पश्चिमी देशों में लोगों के अंदर एक विशेष किस्म का डर, भय, अलगाव, कुंठा घर कर गए थे, वे आत्म केन्द्रित होने लगे थे, इसे बढ़ावा मिला। यूरोप की यात्रा के दौरान बादल सरकार ने जब ग्रोटोवॉस्की की टीम को घर के अंदर बरामदे पर, सीमित साधनों से ‘पुअर थिएटर’ करते देखा था तो कलकत्ता लौट कर उन्होंने छोटे से हॉल में अपने कई नाटकों की महत्वपूर्ण प्रस्तुतियां कीं। इस हॉल में 70 से 100 दर्शक तक बैठ जाते थे। कहना न होगा कि कलात्मक और वैचारिक रूप में ये कहीं से उन्नीस नहीं थे।
इन दिनों देश भर में अभिजात्य और महंगे प्रेक्षागृहों के जवाब में स्टूडियो थिएटर वजूद में आने लगे हैं। पटना में परवेज अख़्तर सालों से अपने घर की छत पर नाटक करते आ रहे हैं। लखनऊ में मस्तो ने व्यवस्थित रूप से एक ऐसा थिएटर बना रखा है, जहां लगभग 70 लोग तो आराम से वुडेन प्लेटफार्म पर बैठ जाते हैं। मंच के लिए जितनी, जितने तरह की लाइट चाहिए, व्यवस्थित ढंग से टंगी हुई हैं।
और दिल्ली के यमुना पार के इलाकों में तो कहना ही क्या है? प्रायः हर गली या मेट्रो का पिलर नंबर किसी-न-किसी स्टूडियो थिएटर का लैंडमार्क बन चुका है। कोई इसे स्टूडियो थिएटर कहता है तो कोई ब्लैक बॉक्स थिएटर। नाम भिन्न हैं पर मतलब एक ही है। ‘ब्लैक पर्ल’ थिएटर के निर्देशक ने बिल्डिंग के सबसे ऊपर एक कमरे में जहां स्टूडियो थिएटर बना रखा है, वहीं कमरे के बाहर खुले में ‘रूफ थिएटर’ है। यहां ब्लैक विंग्स भी है, साइक्लोरमा भी खड़ा है और प्रॉपर लाइट के लिए बूथ भी है। अमूल सागर आए दिन आमंत्रित दर्शकों के बीच कोई-न-कोई नाटक छत पर मंचित करते रहते हैं।
लक्ष्मी नगर मेट्रो से उतर कर पांडव नगर की तरफ जानेवाली सड़क के शुरुआत में ही दाईं गली में एक स्कूल है जिसके तीसरे तल पर अस्मिता थिएटर ग्रुप का थिएटर स्टूडियो है। स्कूल की छुट्टी के बाद ऊपर का पूरा तल नाटक की पढ़ाई में तब्दील हो जाता है। यहां उनके दो स्टूडियो थिएटर हैं जिनमें रोज का नाट्य प्रशिक्षण चलता है और जब कोई नाटक तैयार हो जाता है तो उसका मंचन इन्हीं स्टूडियो थिएटर में हो जाता है। ये मंचन केवल प्रशिक्षण के उद्देश्य से नहीं होते। बाहर के दर्शकों की भी इसमें खूब भागीदारी होती है।
साजिदा साजी भी एक स्टूडियो थिएटर चला रही हैं जिसमें प्रशिक्षण और मंचन दोनों होते हैं। विजय श्रीवास्तव का ‘थर्ड बेल’ भी निरंतर सक्रिय है। लक्ष्मी नगर से थोड़ी दूरी वाले इलाकों, जैसे मयूर विहार में कुकरेजा हॉस्पिटल के पास संदीप रावत का ‘समर्थ थिएटर ग्रुप’ चलता है। अपने स्टूडियो थिएटर को वे ब्लैक बॉक्स का नाम देते हैं। यह एक बिल्डिंग के दूसरे तल पर स्थित है। संदीप रावत 60 दर्शकों की क्षमता वाले ब्लैक बॉक्स में नियमित नाटक करते हैं।
इस छोटे से ब्लैक बॉक्स में केवल कम पात्र वाले नाटक ही नहीं, ज्यादा करैक्टर वाले नाटक भी पूरी कलात्मकता के साथ होते हैं। ये इस छोटी सी जगह में नाटक के लिए इतनी बड़ी जगह निकाल लेते हैं कि देखने वालों को कभी भी स्पेस की कमी या कम होना नहीं खलता है। इसी इलाके में हैप्पी रणजीत का ‘यूनिकॉन’, भारती शर्मा का ‘क्षितिज थिएटर ग्रुप’ और उत्पल झा का ‘मंत्र’ भी लगातार सक्रिय है। इनमें से कोई भी ऐसा नहीं जहां थिएटर का कोई भी तत्व, सेट या प्रकाश व्यवस्था में किसी तरह की कोई कमी खटके।
निर्माण विहार में ‘मिनीक्षा आर्ट स्टूडियो’ के निर्देशक नितिन शर्मा हैं। यह एक आधुनिक थिएटर स्टूडियो है जहां रंगमंचीय अवधारणाओं को लेकर कोई कमी नहीं दिखती। ऐसा ही सुसज्जित स्टूडियो थिएटर प्रीत विहार में अनिल शर्मा और सुनील चौहान का है। कई अन्य स्टूडियो थिएटर भी निजी रूप से विभिन्न नामों से से चल रहे हैं। साउथ दिल्ली में भी कई हैं जो मंडी हाउस से दूर होने के कारण ज्यादा चर्चा में न हों लेकिन वहां भी रंगमंचीय गतिविधियां जारी हैं।
ये जो स्टूडियो थिएटर हैं, वहां नाटक तो होते ही हैं, उससे भी बड़ा काम यह कि यहां बारहों महीने नाट्य प्रशिक्षण का काम चलता रहता है। जिन्हें एनएसडी में दाखिला नहीं मिल पाता लेकिन इसी में अपना भविष्य बनाना है, वे इन्हीं संस्थाओं में शरण लेते हैं। संस्थाओं द्वारा तय प्रशिक्षण शुल्क 6 महीने या 12 में महीने चुकता कर रंगमंच को समझने की कोशिश करते हैं। उसके बाद अगर उन्हें दिल्ली में रह कर रंगकर्म करना होता है तो ये इलाके इनकी राह आसान बनाते हैं। फिल्म में कॅरियर बनाने वाले मुंबई का रुख करते हैं।
इन इलाकों में रहने वाले रंगकर्मी दिल्ली के कम, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तराखण्ड, हरियाणा, पंजाब के ज्यादा होते हैं। वह भी मध्य-निम्न वर्ग के युवा। सभी के अपने सपने होते हैं। कुछ पूरे होते हैं, कुछ के अधूरे भी रह जाते हैं। लेकिन रंगमंच और रंगकर्म का जो जादू होता है, वह अगर एक बार किसी रंगकर्मी के दिलोदिमाग में चढ़ जाए तो जल्दी उतरता नहीं है। उतरता भी है तो उसकी खुमारी देर तलक बरकरार रहती है।
(लेखक राजेश कुमार कहानीकार होने के साथ ही कई नाटकों के लेखक और निर्देशक भी हैं और सांस्कृतिक अभियानों में निरंतर सक्रिय हैं)
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