‘पेशवाई’ रोकने के लिए महाराष्ट्र ने कसी कमर
3 जनवरी को हुआ महाराष्ट्र बंद भीमा-कोरेगांव हिंसा के खिलाफ दलितों काजवाब था। 2019 के चुनाव से पहले बीजेपी-आरएसएस के खिलाफ सभी ताकतों के एकजुट होने की संभावना है।
भीमा कोरेगांव में महार समुदाय, जिससे डॉ. भीमराव अंबेडकर आते थे, पिछले 200 सालों से पेशावाओं के खिलाफ अपनी जीत का जश्न मनाता आ रहा है। आमतौर पर पेशवा छत्रपति राजाओं के प्रधानमंत्री हुआ करते थे और उनका राज्य आमतौर पर मराठा राज्य कहलाता था। लेकिन तथ्य यह है कि वे लोग चितपावन ब्राह्मण थे जिन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशजों को बेदखल कर दिया था। यही बात थी जिसके लिए मराठाओं ने उन्हें कभी माफ नहीं किया और जब अंग्रेजी सेना की ओर से महारों ने पेशवाओं की मराठा सेना से युद्ध किया तो उस सेना के ज्यादातर सैनिक मराठा नहीं बल्कि अफगानी मूल के मुसलमान थे। महार, मराठा और ब्राह्मण महाराष्ट्र की तीन प्रमुख जातियां या समुदाय हैं और वे हमेशा एक-दूसरे के साथ संघर्षों में रहे हैं। स्वराज के विचार के प्रवर्तक शिवाजी महाराज ने विदेशी (मुसलमान) शासन से आजादी की अपनी लड़ाई में सभी जातियों और समुदायों को एक साथ लाया था।
लेकिन, उनके बाद के वंशजों में राजवंश की लड़ाई की वजह से पेशवाओं ने जब सत्ता पर कब्जा कर लिया तो उन्होंने राज्य में एक बार फिर वर्णाश्रम व्यवस्था या जाति व्यवस्था लागू कर दिया, जिसके तहत छुआछूत की वजह से वे महारों को अपनी सेना में स्वीकार भी नहीं कर सकते थे।
महार समुदाय के लोग अपनी बुरी हालत और ऊंची जातियों की गुलामी से उबरने के लिए ब्रिटिश सेना में शामिल हुए थे और 1 जनवरी 1818 को पेशवाओं के खिलाफ अपनी जीत पर विशेष तौर पर गर्व करते रहे हैं, जिसने मराठा साम्राज्य को नेस्तनाबूद कर दिया और लगभग पूरे भारत को अंग्रेजों को हस्तांतरित कर दिया।
हाल के वर्षों में महारों और मराठाओं के बीच कुछ अशांति रही है। ये दोनों ब्राह्मण समुदाय को संदेह की नजरों से देखते हैं। 2015 के जुलाई में तीन दलित युवकों द्वारा एक नाबालिग मराठा लड़की के निर्मम बलात्कार और हत्या के बाद दोनों समुदायों के बीच बहुत तनाव था।
मराठाओं के नेतृत्व में आरक्षण और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम को समाप्त करने की मांग करने वाले गुपचुप मोर्चों पर दलित समुदाय ने क्रोधित प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। दलित समुदाय ने कानून में किसी भी तरह का छेड़छाड़ किए जाने पर आंदोलन की चेतावनी दी थी। , अगर किया गया। हालांकि, इनमें से किसी भी घटना ने किसी बड़ी समस्या का रूप नहीं लिया और सांप्रदायिक सौहार्द बरकरार रहा।
वास्तव में, हमेशा से महाराष्ट्र पर शासन करते आ रहे मराठा समुदाय और महाराष्ट्र की सत्ता पर अब काबिज ब्राह्मणों के बीच पिछले तीन सालों के दौरान तनाव उभरा है। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस एक आरएसएस विचारक हैं, जिनका स्वतंत्रता के बाद से महाराष्ट्र की सत्ता को नियंत्रित कर रहे मराठाओं से कोई लेना-देना नहीं है।
दोनों समुदायों के बीच पैदा हुआ अविश्वास दिग्गज नेता शरद पवार के अपनी भावनाओं को काबू कर पाने मेंं विफल रहने में स्पष्ट नजर आ रहा था, जब उन्होंने सार्वजनिक रूप से महाराष्ट्र के लोगों से पूछा कि क्या वे राज्य को पेशवाई राज (ब्राह्मण) में वापस ले जाना चाहते हैं।
ऐसे में इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि भीमा-कोरेगांव हिंसा के षड्यंत्रकारियों ने शरद पवार, मराठाओं और शिवसेना को इस हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराने का प्रयास किया- ये तीनों बीजेपी के खिलाफ हैं। जब पुलिस ने पूर्व बीजेपी पार्षद मिलिंद एकबोटे और संघी विचारक मनोहर उर्फ संभाजी भिड़े को हिंसा फैलाने के लिए हिरासत में लिया, तो यह स्पष्ट हो गया कि इस साजिश की शुरुआत कहां से हुई। और क्यों हुई।
इस पूरे मामले में मराठा और दलित दोनों ओर के नेताओं ने संयम बरता, जिसने अगले साल के संसदीय और विधानसभा चुनाव से पहले महाराष्ट्र में सांप्रदायिक और जाति विवाद पैदा करने की संघ के विचारक की साजिश को नाकाम कर दिया। हिंसा के खिलाफ बंद का आह्वान करने वाले भारीप-बहुजन महासंघ के अध्यक्ष प्रकाश अंबेडकर ने एकबोटे और भिड़े की गिरफ्तारी की मांग की है। जबकि मराठाओं और महारों में एकता कराने में तेजी दिखाने वाले कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अशोक चव्हाण ने ना सिर्फ 1 जनवरी को हुई हिंसा को काबू करने में विफल रहने के लिए, बल्कि पिछले 200 सालों से बिना किसी समस्या और किसी की भावनाओं को आहत किए भीमा कोरेगांव में स्मारक पर इकट्ठा होने वाले लोगों के खिलाफ अपनी पार्टी के समर्थकों को षड्यंत्र करने की इजाजात देने के लिए भी फडणवीस से इस्तीफे की मांग की।
वास्तव में यह एक ब्राह्मण बनाम दलित युद्ध क्यों था और अचानक से नहीं हुआ था। इसका पता पुणे में ब्राह्मण महासंघ में एलगार यात्रा को लेकर हुई चर्चा से चलता है। एलगार यात्रा एक राज्यव्यापी जुलूस है, जो अपनी जीत के 200 साल का जश्न मनाने के लिए दलितों द्वारा निकाला जाना था। इस यात्रा को पुणे में पेशवाओं के पीठ शनिवर्वदा में समाप्त होना था, जहां से उन्होंने 18वीं शताब्दी में भारत के अधिकांश राज्यों पर शासन किया था।
पुणे नगर निगम को बीजेपी नियंत्रित करती है और शहर के सभी विधायक और सांसद बीजेपी के हैं। यात्रा की अनुमति के खिलाफ आवाजें उठने लगीं, जो कि असल में पेशवाओं की हार के खिलाफ थी। और इसमें राजनीतिक रंग उस समय जोड़ा गया जब महाराष्ट्र में ब्राह्मणों के प्रतिनिधि के तौर पर खुद को तेजी से स्थापित कर रही बीजेपी को पता चला कि गुजरात के नव निर्वाचित विधायक और बीजेपी के सबसे नए दुश्मन जिग्नेश मेवानी और जनवरी 2015 में हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में आत्महत्या करने वाले दलित छात्र रोहत वेमूला की मां राधिका वेमूला भी इश यात्रा में शामिल होंगे।
इसलिए यह हिंसा दलितों के खिलाफ ब्राह्मणों का आरोप है। सौभाग्यवश, वे इसे 1 जनवरी से आगे ले जाने में सफल नहीं हुए। गांव में और आसपास रहने वाले दलित अभी भी भय के माहौल में जी रहे हैं, लेकिन वे अब शरद पवार के इस तर्क पर गहराई से विचार कर रहे हैं कि छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशजों के लिए ब्राह्मण राज आदर्श नहीं हो सकता है। 2019 के चुनावों से पहले सभी ताकतों के एकजुट होने की उम्मीद है।
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