मध्यप्रदेश बना संविधान में सेंध का उदाहरण, बीजेपी सरकार में 40 प्रतिशत मंत्री विधानसभा सदस्य नहीं
मध्यप्रदेश में मंत्री बने पूर्व विधायकों को मतदाताओं ने पहले कांग्रेस के चुनाव चिन्ह पर चुना। पर मंत्री बनने के लिए उन्होंने विधानसभा से इस्तीफा दे दिया। पहले जो कांग्रेस नेता के रुप में वोट मांगने गए थे, अब वही लोग एक मंत्री के रुप में वोट मांगने जाएंगे।
मध्य प्रदेश की बीजेपी सरकार में चालीस प्रतिशत मंत्री ऐसे हैं जो विधानसभा के सदस्य नहीं हैं। ये वे हैं जो विधानसभा का सदस्य चुने जाने के लिए मंत्री बनाए गए हैं। संविधान का दो तरह से इस्तेमाल हो सकता है। एक तो संविधान के घोषित उद्देश्यों को पूरा करने के लिए उसे और मजबूत करने की कोशिश करना। इसे ही राजनीति का हासिल कहा जा सकता है। दूसरा अघोषित इरादों को हासिल करने के लिए संविधान में सेंध लगाना और उस सेंधमारी के लिए सुराग खोजना।
भारत का संविधान बनने के बाद केंद्र सरकार और राज्य सरकार के लिए मंत्रिमंडल के गठन के लिए यह एक अपवाद स्वरूप व्यवस्था (संविधान की धारा 74 एवं 164) की गई कि वह व्यक्ति जिसे मंत्रिमंडल का सदस्य बनाया जाता है, वह छह माह के भीतर सदन का सदस्य नहीं होता है तो मंत्री परिषद की उसकी सदस्यता समाप्त हो जाती है।
दरअसल संविधान में ऐसी व्यवस्थाएं उस संसदीय लोकतंत्र को ध्यान में रख कर की गई थीं, जिसे अपनी जड़ें भारतीय समाज में मजबूत करनी थी। लेकिन भारत में अपवाद के लिए बनाई गई संविधान की व्यवस्थाओं का इस्तेमाल ब्रिटेन की पूंजीवादी और साम्राज्यवादी विचारों के किले को मजबूत करने के लिए किया जा रहा है और यह भारतीय संसदीय राजनीति की मुख्य धारा का मूल चरित्र बन गया है।
ब्रिटेन की संसदीय राजनीति का चरित्र पूंजीवादी-साम्राज्यवादी रहा है। वहां यह लोकतंत्र के नाम पर छलावा है। साल 1931 की बात है । जब पहले लेबर प्रधानमंत्री रैम्जे मैक्डानल्ड ने अपने मंत्रिमंडल के तीन सदस्यों के साथ पार्टी छोड़ दी । क्योंकि उनकी आर्थिक नीतियों से मंत्रिमंडल के बाकी सदस्यों की असहमति थी। तब रैम्जे मैक्डानल्ड ने अपनी सदस्यता नहीं छोड़ी। नया जनादेश लेने के लिए कामंस में अपनी सीट नहीं छोड़ी। उल्टे कंजर्वेटिव और लिबरल का समर्थन लेकर प्रधानमंत्री बने रहे। इस उदाहरण से हम यह तुलना करें कि कैसे 1931 की ब्रिटिश राजनीति के हालात में आज हमारा संसदीय लोकतंत्र पहुंच गया है।
संसदीय राजनीति में 1980 के दशक के पहले वर्षों में यह स्थिति थी कि जिन पार्टियों के चुनाव चिन्ह से सदस्य चुने जाते थे, वे सरकार बनाने और सरकार में जगह पाने के लिए दल बदल कर लेते थे। 1980 से पहले सबसे कुख्यात दल बदल के रुप में भजन लाल को याद किया जाता है, जिन्होंने अपनी सरकार का ही दल बदल कर लिया। तब संसदीय राजनीति में ‘आया राम गया राम’ की कहावत मशहूर हुई।
इसके बाद संसदीय राजनीति में दल बदल विरोधी कानून बनाने की मांग उठी। इस बहस का फायदा उठाकर राजीव गांधी की सरकार ने दल बदल विरोधी कानून को अमली जामा पहनाया। लेकिन संसदीय लोकंतत्र में सुधार पार्टियों के सीमित हितों के अवसरों के अनुसार तय होता है। दल बदल विरोधी कानून बना, लेकिन दल बदल करवाने के नए नए तरीके विकसित होते चले गए। दल बदल की कीमत में विविधता आई और उसका तेजी के साथ विस्तार हुआ। अनंत कहानी की तरह दल बदल कानून के उल्लंघन की घटनाएं चल रही हैं।
मध्य प्रदेश उसका एक ऐतहासिक उदाहरण है। यह इस तरह की भयावह कल्पना को जन्म दे रहा है कि दल के बजाय प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री केंद्रित चुनाव हो रहे हैं तो यह संभव है कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री एक तरफ तो सदन के लिए सदस्यों को जीतवाएं और दूसरी तरफ मंत्रिमंडल के लिए गैर सदस्यों का चयन करें। वैसे भी इस स्थिति का लगातार विस्तार हो रहा है कि लोकसभा के निर्वाचित सदस्यों के बजाय राज्यसभा के सदस्यों की मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण नियुक्तियां हो रही हैं और वह भी अच्छी खासी तादाद में।
संविधान कहता है कि लोकसभा के निर्वाचित सदस्यों की संख्या के पंद्रह प्रतिशत से ज्यादा मंत्रिमंडल के सदस्यों की संख्या नहीं होनी चाहिए। इसका यह अर्थ निकाला गया है कि लोकसभा के बजाय राज्यसभा के सदस्यों को ज्यादा से ज्यादा संख्या में मंत्रिमंडल में शामिल किया जा सकता है। मुख्यमंत्री तो जहां विधान परिषद है, वहां उस सदन की सदस्यता को ही प्राथमिकता देने लगे हैं।
संविधान में सुधार की गुंजाईश खत्म हो रही है। संविधान को बदलने की राजनीति संसदीय राजनीति के केंद्र में आ गई है। इसीलिए संसदीय राजनीति में नैतिकता और मूल्यों से जुड़े सवालों की कोई जगह नहीं दिखती है। तकनीकी रुप से कैसे संविधान को धोखा दिया जा सकता है, यह एक सामाजिक अपराध के लिए आरोपी के वकील की तरह संसदीय राजनीति में प्रयास किया जाता है।
मध्य प्रदेश में स्थिति यह थी कि विधानसभा के चुनाव हुए। वहां सत्तारूढ़ बीजेपी को अपनी सरकार बनाए रखने लायक बहुमत हासिल नहीं हो सका। लेकिन कांग्रेस से राज्यसभा का टिकट नहीं मिलने की वजह से मास्टर सिंधिया ने अपने समर्थकों के साथ बीजेपी में शामिल होने का ऐलान कर दिया। यानी पार्टीगत स्तर पर बहुमत को अल्पमत में और पार्टीगत स्तर पर अल्पमत को बहुमत में दिखाने के एक तकनीकी प्रयास से वह खेल हो गया जो कि संविधान के अनुसार संसदीय राजनीति में मतदाताओं के वोट से ही होना सुनिश्चित किया गया है। एक तरह से देखें तो संसदीय राजनीति में कोई पार्टी रह नहीं गई हैं। नेताओं के गुटों का नाम ही पार्टी है और नेताओं के इशारे पर नाचने वालों का नाम ही कार्यकर्ता है।
मध्य प्रदेश में मंत्री परिषद के चौंतीस सदस्य हैं। उनमें 28 नये हैं। इनमें लगभग आधे मंत्री वे बनाए गए हैं जो पूर्व विधायक हैं। यानी वे मास्टर सिंधिया के साथ बीजेपी में शामिल होने वाले 22 पूर्व विधायकों में शामिल हैं। सिंधिया को राज्यसभा का सदस्य बीजेपी ने बनवा दिया और यह मंत्री बनने की शर्तो का पूर्व से इंतजाम भी हो गया है। उनके कार्यकर्ताओं को अब प्रदेश के मंत्री परिषद में जगह दी गई है।
पहले इन विधायकों को मतदाताओं ने कांग्रेस के चुनाव चिन्ह पर चुना। अब वे मंत्री बनने के लिए पूर्व विधायक हो गए ताकि दल बदल विरोधी कानून का उल्लंघन करने के लिए उन्हें दोषी नहीं माना जाए। वरना चुनाव लड़ने से भी हाल फिलहाल मरहूम हो जाते। लिहाजा मतदाताओं द्वारा निर्वाचन की ताकत को चुनौती देते हुए विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। यानी मतदाता की अहमियत उनकी नजर में यह है कि वे जब चाहेंगे निर्वाचित कर लिए जाएंगे। पहले वे कांग्रेस के एक नेता के रुप में विधानसभा की सदस्यता के लिए वोट मांगने गए थे, अब वे मंत्री के रुप में वोट मांगने जाएंगे।
संविधान में सुराग खोजकर सेंध लगाने की नीयत पूरे लोकतंत्र के ढांचे को तहस नहस कर देती है। यानी मतदाताओं को एक कार्यकर्ता के रुप में नहीं बल्कि एक ताकतवर मंत्री के रुप में प्रभावित कर चुनाव जीतने की योजना के रूप में इसे देखा जा सकता है। जबकि निर्वाचन की व्यवस्था में यह स्पष्ट है कि मतदाताओं को किसी भी तरह प्रभावित करना अवैध माना जाता है। दबंगता के प्रभाव में तकनीकी रुप से अपने प्रतिद्वंदी उम्मीदवार से महज एक वोट ज्यादा हासिल कर लेने में महारथ हासिल करने का नाम भर रह गया है संसदीय लोकतंत्र ?
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