मजदूरों पर लॉकडाउन की सबसे ज्यादा मार, शहर से की गांव वापसी, पहले से बदहाल गांवों में कैसे करेंगे जीवन-यापन?
कोविड-19 के कारण लगे लॉक डाउन का सर्वाधिक व्यापक और गंभीर असर उन मजदूरों पर पडा है जो गांवों की अपनी दुनिया छोडकर रोजी-रोटी की खातिर शहरों में बसे थे और अब वापस गांवों की ओर भागे जा रहे हैं।
‘कोविड-19’ ने दुनिया और भारत को भयभीत कर दिया है। यह मानव निर्मित प्रलय है। प्रकृति के क्रोध और मानव के लोभ, लालच और लाभ की प्रतियोगिता ने ये हालात पैदा किये हैं। ऐसे में राज्य और समाज को अपनी भूमिका सोच-समझकर अदा करना चाहिए। राज्य की भूमिका है कि कोरोना वायरस की जांच कराके ही, लोगों को शहर से गांव की तरफ आने दे, लेकिन हमारी सरकार ऐसा नहीं कर रही। उसका परिणाम है, गांव भी अब कोरोना ग्रस्त बनते जा रहे हैं। शहरों का कोरोना अब गांवों की तरफ बढ़ रहा है।
गांव से लाचार होकर लोग शहरों की तरफ आए थे। उन्हें शहरों में बेहतर अवसर, सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य की सुरक्षा का एक बड़ा तंत्र, ‘सिक्योरिटी नेट’ दिखाई देता था, लेकिन शहरी लोभ, लालच ने ‘सिक्योरिटी नेट’ को खत्म करके एक ‘ग्लोबल इकॉनॉमिक नेट’ खड़ा कर दिया। यह ‘नेट’ लाभ की प्रतियोगिता का ‘नेट’ है। इस ‘नेट’ ने लोगों की सामाजिक, स्वास्थ्यगत और पर्यावरणीय सुरक्षा को नष्ट करके केवल आर्थिक सुरक्षा को ही सब कुछ बना दिया है। इसलिए अब शहर में रहने वाले ग्रामीण फिर गांवों में ही सुरक्षा देख रहे हैं, लेकिन वहां भी अब सुरक्षा बची नहीं है, हालांकि शहरों से यह बेहतर है।
ऐसे में सरकारों को गांवों को स्वावलंबी बनाने के लिए कुछ काम करने चाहिए। सरकार को मिट्टी-जल-जंगल के संरक्षण, हर गांव और घर में खुद का खाद्य और बीज बनाने और प्राकृतिक-सजीव खेती को बढावा देने के काम करना चाहिए। इन सभी कार्यो के लिए आर्थिक मदद की जरूरत होगी और सरकार इस हेतु आर्थिक सहयोग की व्यवस्था बनाए।
पुराने जमाने में भारत के गांव स्वयं गणराज्य थे। गांव अपनी मिट्टी, पानी, खाद, बीज की व्यवस्था करके अपनी पैदावार से स्वावलंबी थे। आज गांव का वह स्वावलंबन टूट गया है। अब गांव भी शहर के रास्ते पर चल पड़े हैं। ऐसे में यहां भी सरकार की भूमिका होगी कि वह गांवों को शहरों के नकलची बने रहने की बजाए उन्हें स्वावलंबी बनने में मदद करे। इस हेतु समुदायिक विकेन्द्रित प्रबंधन को बढ़ावा देने वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था खड़ी की जाए।
गांव में निजीकरण रोक कर सामुदायीकरण करना अत्यंत आवश्यक है। गांव के पारिस्थिति की और प्रकृति पोषक बाजार बने। अभी भारत के बाजार केवल लाभ की प्रतियोगिता और लूट के बाजार हैं। इन बाजारों का चरित्र बदलने के लिए ग्रामीण सामुदायिक सहकारिता आधारित बाजारों का सृजन करना सरकारों की जिम्मेदारी है।
वर्तमान शिक्षा पद्धति में शोषण, प्रदूषण और अतिक्रमण की विधि ही पढ़ाई जाती है। इसी विधि से हम आर्थिक लाभ की प्रतियोगिता में जीत पाते हैं, लेकिन अब हमें अतिक्रमण, प्रदूषण और शोषण-मुक्त स्वावलंबी और स्व-पोषणकारी और प्राकृतिक पोषण करने वाले शिक्षण का शुभारंभ करने की जरूरत है। ये सभी कार्यों में सरकार को ही पहल करके, अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी होगी।
अभी सरकार, गंगा में अस्थि-विसर्जन-स्नान आदि के लिए विशेष बसें चलाना चाहती है। यह पहले की तरह गंगा-यमुना जैसी सभी नदियों को पुनः गंदा करने का ही रास्ता है। सरकारों को तय करना चाहिए कि दो माह तक अस्थि-विसर्जन बंद रहे। उद्योगों की गंदगी गंगा में नहीं डालेंगे तो गंगा स्वयं साफ हो जाएंगी। उनकी यह सफाई बनाये रखना, राज्य और समाज की साझी भूमिका है। समाज ने अभी तक जैसी वैकल्पिक व्यवस्था बनाई है कि अस्थि-राख को श्मशान के मंदिर में रखा है, वैसी ही व्यवस्था आगे भी बनाये रखे। खास दिनों में ही गंगा में अस्थि-विसर्जन होवे। सरकार यह व्यवस्था बनाये कि सप्ताह में एक दिन अस्थि-विसर्जन, दो दिन पूजा या स्नान और बाकी के चार दिन गंगा मुक्त बहें।
इस समय समाज को भी पुनर्जीवित होने की आवश्यकता है, उसकी भी अपनी बहुत सारी जिम्मेदारियां हैं। सबसे पहले समाज की जिम्मेदारी है कि वो ‘कोविड-19’ से बचने के लिए अपने स्वास्थ्य की सुरक्षा करने के लिए, अपने मन-मानस को तैयार करे और बीमारी-काल को एक अनुशासित पर्व की तरह मानकर, उसे हराने के लिए उपाय खोजे।
अभी शहरों से जो ग्रामीण थोक में गांव आ रहे हैं, उनको सम्मानपूर्वक, उनके अपने स्थान या सामुदायिक स्थानों पर रोककर जांच कराऐं और उनके साथ-साथ आई बीमारी से सजग रहें। जिन ग्रामीणों के मन में अपने जन्म के समय दबी हुई नाल पर पहुंचने का भाव आया है, तो उन्हें इस अवसर को जरूर प्राप्त कराएं और उनकी जिस प्रकार हो सके, सेवा और सहायता करें।
भारतीय ग्रामीण समुदाय एक सशक्त, संस्कारवान समाज रहा है जो हर संकट काल में एक-दूसरे की मदद करता था। अब उसके पुराने संस्कारों को पुनर्जीवित करने का अवसर आया है, इसलिए ग्रामीणों को मिलकर, गांव में सभी सामुदायिक संसाधनों के प्रबंधन में जुटना चाहिए। गांव की पुरानी सामुदायिक खेती, यदि गांव में संभव हो सके तो करने पर विचार करना चाहिए। उजड़े हुए समाज और भारत के गांवों ने पहले भी अपने आपको दुबारा बसाया है। पूरे भारत में आजादी के बाद ऐसे हजारों गांव हैं जो अपनी समझ और संगठन की शक्ति से दुबारा पुनर्वसित हुए हैं। ‘तरुण भारत संघ’ ने भी पिछले 37 वर्षो में ऐसे हजारों गांवों के साथ काम किया है जो बेपानी होकर उजड़ गए थे और अब वे पानीदार बनकर पुनः बस गए हैं।
‘कोविड-19’ के बाद यह अवसर है कि भारत के ग्रामीण समाज को पुनर्वसित होकर, पुनर्जीवित होना होगा। यह काम केवल अकेले राज का नहीं है और न अकेले समाज का है। भारत के गांवों के पुनर्वास में राज और समाज, अपनी-अपनी, अलग-अलग भूमिका और साझी भूमिका को समझकर काम करेंगे तो भारत के गांव, पुनः भारत को गांवों का स्वावलंबी गणराज्य बना देंगे।
जब करीब चार दशक पहले हमने गांवों में काम शुरु किया था तो हमारा नारा था कि-‘दिल्ली-जयपुर हमारी सरकार, हमारे गांव में हम ही सरकार‘ और ‘गांव का पानी गांव में, खेत की मिट्टी खेत में‘ और ‘हर घर में बने अपना बीज-खाद्य, तभी होगी गांव की चोटी, गांव के हाथ।‘ इन नारों का संदेश था कि गांवों के स्वावलंबन से स्वराज्य हो। ‘कोविड-19’ के बाद हमारी पहली सरकार- भारत सरकार, दूसरी सरकार- राज्य सरकार और तीसरी सरकार - ग्राम पंचायत, नगर पंचायत और नगरपालिका। इन सभी को अपनी-अपनी भूमिका समझकर इन कामों में जुटना चाहिए ताकि हम अपने गांवों और अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित कर सकें।
(यह लेख सप्रेस से साभार)
(राजेन्द्र सिंह तरूण भारत संघ के अध्यक्ष एवं जल बिरदारी के राष्ट्रीय समन्वयक हैं। और जल, जगंल, जमीन के संरक्षण का अभूतपूर्व कार्य कर रहे हैं)
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