आकार पटेल का लेख: भारत भी अपने पड़ोसियों की तरह एक बहुसंख्यकवादी राष्ट्र बन चुका है
भारत में बहुसंख्यक समुदाय ने सत्ता के हर तत्व पर कब्जा कर लिया है और अल्पसंख्यक, विशेषकर मुस्लिम, बल्कि दलित और आदिवासी को हाशिए पर डाल दिया है, हालांकि वे बहुलतावादी होने का दावा करते हैं।
बहुसंख्यकवाद क्या है?
राजनीतिक संदर्भों में इसकी परिभाषा इस तरह है कि ऐसी व्यवस्था जहां बहुसंख्यक समुदाय को दूसरे समुदायों के मुकाबले ज्यादा अधिकार हों और उन्हें दूसरों से ज्यादा प्राथमिकता मिलती हो। ऐसा दो तरह से होता है। एक तो कानून बनाकर, और इसके उदाहरण मौजूद हैं, और दूसरा एक खास तरीका वह है, जो इन दिनों हमारे सामने धीरे-धीरे आ रहा है।।
अल्पसंख्यक समुदाय को धमकाने करने का सबसे पुराना तरीका यह है कि इसके लिए संवैधनिक रास्ता अपनाया जाए। ऐसे किसी भी देश में यह साफ होता है कि एक समुदाय को दूसरों से अधिक तवज्जोह दी जाती है। श्रीलंका के संविधान में लिखा है कि “श्रीलंका गणराज्य बौद्ध धर्म को सबसे अहम स्थान देगा और इस तरह यह सरकार की जिम्मेदारी होगी कि वह बुद्ध शासन की रक्षा करे और उसे बढ़ाए।”
यह पंक्ति हमेशा सत्ता में बैठे लोगों को उन लंकावासियों के साथ दुराचार करने का अवसर देगी जो बौद्ध नहीं हैं। संवैधानिक प्रमुखता से होने वाले नुकसान किसी व्यक्ति पर निर्भर होते हैं। एक नेता जो सिद्धांत को दृढ़ता से लागू करने के लिए इच्छुक है, वही सबसे ज्यादा नुकसान करेगा। लेकिन हकीकत यह है कि संविधान का यह आदेश है हमेशा एक खतरा बना हुआ है।
जैसा कि हमने देखा है कि, बौद्ध धर्म में दी गई प्रधानता गैर-विशिष्ट और सौम्य है। हालांकि, इस तरह के जुमलों का इस्तेमाल एक ट्रिगर के रूप में किया जाता है। पाकिस्तान के संस्थापकों ने शायद सोचा नहीं था कि उनके देश में अल्पसंख्यकों के साथ ऐसा भेदभाव होगा। लेकिन वे देश के संवैधानिक स्वरूप में इस्लाम के तत्वों को भी देखना चाहते थे। मोहम्मद अली जिन्ना की मृत्यु के छह महीने बाद, उनके उत्तराधिकारी लियाकत अली खान के नेतृत्व में पाकिस्तान की संविधान सभा ने लंबी और शानदार बहस के बाद पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित किया।
यह बहस ज्यादातर पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के बांग्ला भाषी हिंदुओं और मुसलमानों के बीच थी। मुसलमान इस्लामिक भाषा को संविधान में शामिल करना चाहते थे जिसे वे गैर-विशिष्ट और सौम्य मानते थे। इनमें "संप्रभुता केवल अल्लाह की है" जैसी पंक्तियों को शामिल किया गया था, और यह कि पाकिस्तान में "लोकतंत्र, स्वतंत्रता, समानता, सहिष्णुता और सामाजिक न्याय के सिद्धांत, इस्लामी पद्धति के अनुसार पूरी तरह से लागू किए जाएंगे।"
हिंदुओं ने इस पर आपत्ति की। उनका कहना था कि इस वक्त भले ही इन शब्दों को शामिल कराने की वकालत करने वालों रकी मंशा अच्छी हो, लेकिन बाद में यानी आने वाले दिनों में इन्हीं शब्दों के आधार पर गैर-मुस्लिमों के साथ भेदभाव करने वाले प्रावधानों के रूप में दुरुपयोग किया जा सकता है। इस पर वोटिंग कराई गई और धर्म के आधार पर डिवीजन किया गया। लेकिन किसी हिंदू ने मुसलमानों के साथ वोट नहीं दिया और न ही मुसलमानों ने हिंदुओं के साथ। कुछ समय बाद ही वह हुआ जिसकी हिंदुओं ने आशंका जताई थी। धीरे-धीरे पाकिस्तान के संविधान ने और अधिक कट्टर रूप अपनाना शुरु कर दिया और जल्द ही राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के पद कानूनी रूप से केवल मुसलमानों के आरक्षित कर दिए गए। बाद में, इसी संवैधानिक प्रक्रिया के माध्यम से, मुसलमानों के ही एक संप्रदाय को काफिर (धर्मद्रोही) घोषित किया गया और सताया गया।
हमारे पड़ोस भूटान में सिर्फ एक बौद्ध राजा का ही शासन हो सकता है। उसका सरकार और धर्म दोनों पर नियंत्रिण होता है, उसका अपने लोगों और उनकी भूमि पर पूर्ण अधिकार होता है। कुछ साल पहले तक, नेपाल एक हिंदू राष्ट्र था, क्योंकि यह एक क्षत्रिय राजा द्वारा शासित था, जिसे एक पुरोहित ने मनु स्मृति द्वारा निर्धारित किया था। बांग्लादेश का संविधान ‘बिस्मिल्लाह इर रहमान इर रहीम’ की पंक्ति के साथ शुरु होता है। हालांकि यह सच है कि बंगाली इसका बहुत ज्यादा फायदा नहीं उठाते हैं लेकिन यहां पाकिस्तन जैसे हालात नहीं बनते हैं। संवैधानिक अधिनायकवाद हमेशा उस नेता के को अहमियत देता है जो आक्रामक रूप से सौम्य शब्दों की व्याख्या करता है।
चलिए अब हम उस विशेष तरीके की बात करें जिसमें एक राष्ट्र कैसे बहुसंख्यवादी हो सकता है। भारत दक्षिण एशिया में एकमात्र ऐसा विशेष गणतंत्र है जो संवैधानिक रूप से बहुलतावादी है। इंदिरा गांधी ने विशेष रूप से "धर्मनिरपेक्ष" शब्द को संविधान की प्रस्तावना में सिर्फ इसलिए जोड़ा था क्योंकि उससे पहले इस शब्द का अर्थ स्पष्ट नहीं था। लेकिन आज बाहर से जो पर्यवेक्षक भारत को देखते हैं वे आज के भारत को पाकिस्तान या लंका या किसी अन्य दक्षिण एशियाई बहुसंख्यवादी राष्ट्र से अलग नहीं पाएंगे।
इसमें कोई शक नहीं कि भारत में कोई भी प्रधानमंत्री बन सकता है, लेकिन अभी तक कोई मुस्लिम पीएम नहीं बना है। हम इस तथ्य से खुश हो सकते हैं कि पाकिस्तान के विपरीत हमारे यहां मुस्लिम राष्ट्रपति हुए हैं, लेकिन एक पाकिस्तानी राष्ट्रपति के पास जो अधिकार हैं, वैसे अधिकार हमारे राष्ट्रपति के पास नहीं होते हैं और वह महज एक रबर स्टाम्प की तरह होता है। अगर पाकिस्तान तरह ही हमारे राष्ट्रपति के पास संसद को बरखास्त करने का अधिकार होता तो यकीन मानिए कि हमारे यहां एक भी मुस्लिम राष्ट्रपति नहीं हुआ होता।
हुआ यह है कि भारत में बहुसंख्यक समुदाय ने सत्ता के हर तत्व पर कब्जा कर लिया है और अल्पसंख्यक, विशेषकर मुस्लिम, बल्कि दलित और आदिवासी को हाशिए पर डाल दिया है, हालांकि वे बहुलतावादी होने का दावा करते हैं।
हम अपने आप से झूठ बोलते हैं कि हम अलग हैं, जबकि हकीकत में ऐसा है नहीं। हमने अन्य माध्यमों से बहुसंख्यवाद को अपनाया है। नागरिकता संशोधन विधेयक को एनआरसी के साथ मिलाकर पढ़ें तो साबित हो जाएगा कि मेरे कहने का तात्पर्य क्या है। कश्मीर में, असम में, आतंक के मुद्दे पर हमारी कार्रवाई भी यही दिखाती है। बाबरी मस्जिद के फैसले (जिसे मस्जिद तोड़े जाने के बाद अयोध्या मामले के रूप में भी जाना जाता है) को बड़े पैमाने पर कुछ और होने का दिखावा करने के उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है।
तथ्य यह है कि बहुसंख्यवाद का भारतीय मॉडल भले ही अभी अधिक सूक्ष्म और कम खुरदुरा है, लेकिन बहुत ही घातक है। यह मॉडल मानता है कि एक समुदाय पूर्व-प्रतिष्ठित है और इसे प्रधानता और एक विशेष स्थान हासिल है। लेकिन साथ ही हम अल्पसंख्यकों पर आरोप लगाते हैं कि तुष्टिकरण के चलते उन्हें रोजगार, आवास और अन्य मामलों में फायदा मिलता है, हालांकि आंकड़े इसके विपरीत ही तस्वीर दिखाते हैं।
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