लोकसभा अध्यक्ष के नाम पत्र: संसद में बनाए गए कानूनों में कौन सी ऐसी बात है, जिसकी चर्चा दूसरे देशों की संसद को नहीं करनी चाहिए?
अंतर-संसदीय संघ के अध्यक्ष, श्री ड्यूएर्ट पाशेको के साथ आपने संसद भवन के केन्द्रीय कक्ष में 16 मार्च 2021 को संसद सदस्यों को सम्बोधित किया। इस मौके पर आपके साथ प्रधानमंत्री, श्री नरेन्द्र मोदी; राज्यसभा के उपसभापति, श्री हरिवंश भी उपस्थित थे।
अध्यक्ष जी,
अंतर-संसदीय संघ के अध्यक्ष, श्री ड्यूएर्ट पाशेको के साथ आपने संसद भवन के केन्द्रीय कक्ष में 16 मार्च 2021 को संसद सदस्यों को सम्बोधित किया। इस मौके पर आपके साथ प्रधानमंत्री, श्री नरेन्द्र मोदी; राज्यसभा के उपसभापति, श्री हरिवंश भी उपस्थित थे।
इस मौके पर आपके उद्गार के अंशों को पढ़कर यह पत्र लिख रहा हूं।
इस आयोजन में आपके भाषण पर इस नजरिये से टिप्पणी नहीं करना चाहता हूं कि आपने इसमें संसद के संदर्भ में कितनी बातें की और उससे ज्यादा सरकार और विशेष तौर पर प्रधान मंत्री जी के नेतृत्व की कितनी सराहना की। मैं शोध का छात्र हूं और आपके भाषण में संसद से ज्यादा सरकार की उपलब्धियों के संदर्भ में कही गई बातों का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत कर सकता हूं। लेकिन मैं यह पत्र संसदीय लोकतंत्र के एक नागरिक के रुप में चिंतित होकर लिख रहा हूं।
अध्यक्ष जी, इस मौके पर आपने कहा कि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने सदैव विश्व शांति को प्राथमिकता दी है तथा विस्तारवाद और आतंकवाद का विरोध किया है। कोविड-19 की चुनौती के संबंध में आपने ज़ोर देकर कहा कि प्रधान मंत्री, श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक जिम्मेदार भागीदार के रूप में अग्रणी भूमिका निभाई है। भारत ने 150 से भी अधिक देशों को कोविड के उपचार संबंधी सामग्री उपलब्ध कराई है तथा कोविड-19 का मुकाबला करने के लिए कई देशों में त्वरित कार्रवाई करने वाले दलों की तैनाती की है।
यहां मेरा यह मानना है कि अंतर संसदीय संघ से जुड़े किसी कार्यक्रम में लोकसभा के अध्यक्ष की मौजूदगी भारत और भारत की संसद के बतौर सर्वोच्च प्रतिनिधि होती है।
मैं इस पत्र में केवल आपके भाषण के उस अंश को लेकर चिंतित हो रहा हूं जिसमें आपने यह कहा है कि “किसी भी संसद को अन्य संसदों में पारित कानूनों तथा अन्य संप्रभु देशों के आंतरिक मुद्दों पर चर्चा नहीं करनी चाहिए। राष्ट्रीय संसदों को अन्य देशों की संप्रभुता का सम्मान करना चाहिए।”
अध्यक्ष जी, आपको पता है कि संसद के बनाए कानूनों को लेकर इस समय पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा विरोध भारत की सड़कों पर देखा जा रहा है। भारत को कृषि अर्थव्यवस्था का देश माना जाता रहा है और लगभग हर राजनीतिक मंचों पर किसानों को अन्नदाता के रुप में संबोधित किया जाता है। उस देश का किसान वर्ष 2020 के भारत के संविधान दिवस 26 नवंबर से राजधानी दिल्ली की प्रादेशिक सीमाओं पर लाखों की संख्या में आंदोलनरत हैं। लाखों की संख्या में आत्महत्या करने के लिए किसानों को मजबूर होना पड़ा है। किसान कृषि के ढांचे और किसानों के पारिवारिक और सामाजिक ढांचे को बुनियादी तौर पर प्रभावित करने वाले संसद में बने कानूनों को रद्द करने की मांग कर रहे हैं। उपरोक्त कानूनों के अलावा श्रमिक भी उनके संवैधानिक अधिकारों और मानवीय जीवन पर गहरा असर डालने वाले कानूनों को रद्द करने की मांग कर रहे हैं। भारत को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा किया जाता है लेकिन उस देश का किसान और मजदूर संसद के कानूनों को अपने हितों और सुरक्षा के विपरीत देखता है।
अध्यक्ष जी, आपको यह जानकारी है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह महसूस किया जा रहा है कि भारत में लोकतंत्र के स्तर में कमी आई है। लोकतंत्र के स्तर के पैमाने पर विश्व भर के 180 देशों में भारत का स्थान 140 वां है। 162 देशों में मानवीय आजादी के आधार पर भारत का स्थान 111वां है। अमरीका के एक संगठन फ्रीडम हाउस के अनुसार, भारत 17 से 100वें स्थान पर आ गया है। स्वीडन की एक संस्था विश्व के देशों में प्रजातंत्र के घटते-बढ़ते स्तर पर नजर रखती है, जिसका मुख्यालय गोथेनबर्ग विश्वविद्यालय में है। इस संस्था के अनुसार, भारत में लोकतंत्र का स्तर दिन ब दिन गिरता जा रहा है। संस्था ने कहा है कि भारत से प्रेस की आजादी पर दबाव के समाचार पहले की तुलना में काफी अधिक संख्या में सुनने और पढ़ने को मिल रहे हैं। यह बात मीडिया, सिविल सोसायटी और प्रतिपक्ष की पार्टियां भी महसूस कर रही हैं।
अध्यक्ष जी, भारत के संविधान में मनुष्य जाति के लिए तीन शब्दों का इस्तेमाल होता है। एक शब्द लोग है। जैसे हम भारत के लोग। लोगों ने भारत के नागरिक बनने और एक निश्चित उद्देश्य हासिल करने के लिए संसद, सरकार का गठन करने का एक सहमति पत्र तैयार किया, जिसे हम संविधान के रुप में पढ़ते और महसूस करते हैं। संविधान की संस्कृति को नागरिकों की संस्कृति के रुप में विकसित करने की शपथ लोगों ने ली है। हर देश के नागरिक होते हैं। लेकिन यह नागरिक देश की सीमाओं में कैद नहीं होता है, क्योंकि वह मनुष्य है। इसीलिए भारत के लोग भी तीसरे शब्द के रुप में व्यक्ति की गरिमा, स्वतंत्रता के लक्ष्य तक पहुंचने की शपथ तक जाते हैं। इन्हीं उद्देश्यों के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर के मंच स्थापित किए गए हैं, जिसमें शायद ही किसी संस्था के सहमति-पत्रों पर भारत ने अपने हस्ताक्षर नहीं किए हों।
अध्यक्ष जी, पूरे विश्व में एक जाति का विस्तार हो रहा है। वह है देशविहीन जाति। यह मनुष्यों के बीच की वह जाति है, जिन्हें पूरे विश्व में देशों की संप्रभुता के बीच बनते देखा जा रहा है । उन्हें हम अपने देश व आसपास के देशों में रोहिंग्या के नाम से पुकारते हैं। वे किसी देश के नागरिक के रुप में स्वीकार नहीं होते हैं, लेकिन वे विश्व के मनुष्य हैं। लेकिन मैं ‘रोहिंग्या’ को एक कानून के रुप में बनते देख रहा हूं। क्या संप्रुता के नाम पर हर देश का रोहिंग्या तैयार किया जा रहा है?
मैं इस प्रश्न के लेकर चिंतित हो रहा हूं कि भारत की लोकसभा के अध्यक्ष को अंतर संसदीय संघ के बैनर के नीचे ये बात क्यों कहनी पड़ रही है कि किसी भी संसद को अन्य संसदों में पारित कानूनों तथा अन्य संप्रभु देशों के आंतरिक मुद्दों पर चर्चा नहीं करनी चाहिए। राष्ट्रीय संसदों को अन्य देशों की संप्रभुता का सम्मान करना चाहिए। ”
मैं यह सवाल पूछना चाहता हूं कि विश्व भर में क्या यह संसदीय संस्कृति का अंग रहा है कि किसी संसद में पारित कानूनों पर चर्चा नहीं करनी चाहिए। या फिर इस संस्कृति से संसदीय संस्कृति समृद्ध हुई है कि किसी संसद ने लोक हित में पारित कानूनों को दूसरी संसद ने स्वीकारा और उसका स्वागत किया है और संसद के उन कानूनों की भर्त्सना की है और उससे खुद को दूर रखने की चुनौती स्वीकार की है जिसे लोक हित के विरुद्ध माना जाता है। खासतौर से मानवीय स्वतंत्रता और गरिमा के विपरीत माना जाता हो।
अधय्क्ष जी, क्या हमें अपने संसद में बनाए कानूनों को लेकर एक आत्मविश्वास भी मजबूत हुआ है ? मैं एक नागरिक के नाते महसूस करता हूं कि दुनिया के किसी हिस्से में मानवतावादी, पर्यावरणविद्, संसदीय विशेषज्ञ, शिशाविद्, विधि शास्त्री, कलाकार आदि भारत की किसी घटना को लेकर चिंता जाहिर करते हैं तो उसे देश के अंदरूनी मामलों में दखलंदाजी के रुप में पेश किया जाता है और भारत में वैसे लोगों के साथ स्वर मिलाने वाले नागरिकों को राष्ट्रद्रोही करार देकर जेल में डाल दिया जाता है।
अध्यक्ष जी, संसद का वह आत्मविश्वास कहां चला गया? हम सबसे पुराने और मजबूत लोकतंत्र होने का दावा करते हैं, लेकिन उतना ही हमारा भय अपने बनाए कानूनों को लेकर बिल्कुल नया दिखता है। आखिर संसद में बनाए गए कानूनों में कौन सी ऐसी बात है, जिसकी चर्चा दूसरी संसद को नहीं करनी चाहिए। हमने तो यहां यह तक महसूस किया है कि हम अपनी दूसरी सदन यानी राज्यसभा तक की आम भावनाओं को देश हित के विरुद्ध देखते रहे हैं। देश संप्रभु होता है, लेकिन ध्यान रखना ही होगा कि सरकार के पास ही संप्रभुता की मुहर गिरवी नहीं होती है। वह एक विचार है। उसकी व्याख्या की स्वतंत्रता ही लोकतंत्र है। इसीलिए लोकतंत्र को किसी देश की संप्रभुता तक सीमित करने वाले विचार के रुप में स्वीकार नहीं किया जाता है। इतिहास में तानाशाही ने अपनी ‘संप्रभुता’ को हम सबसे स्वीकार कराने की कोशिश में सफल नहीं हो पाई है, क्योंकि वह मनुष्यों की गरिमा व स्वतंत्रता के विपरीत होती है।
राज्य सभा के उपसभापति, श्री हरिवंश ने इस मौके पर कहा कि जन प्रतिनिधि के रूप में सांसद समसामयिक मुद्दों के बारे में अपनी सरकारों को प्रभावित करने और जनमत तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। तो अध्यक्ष जी अपने कानूनों को लेकर जनमत तैयार करने की क्षमता से क्या हम चूक रहे हैं और संसद को एक नैतिक भय की हवा लग गई हैं?
उन्होंने यह भी कहा कि वैश्विक चुनौतियों के प्रभावी समाधान के लिए संसदों सहित सभी भागीदारों में सहयोग और समन्वय आवश्यक है। भारत की संसद और इसके सदस्य ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण संरक्षण, शांति और सुरक्षा, उग्रवाद और आंतकवाद, महिला-पुरुष असमानता, सामाजिक-आर्थिक असमानता और सतत विकास जैसे मुद्दों के बारे में लोगों के साथ-साथ सरकारों को भी सजग बनाने में सक्रिय भूमिका निभाते आ रहे हैं।
अध्यक्ष जी, वैश्विक वातावरण में संसदें अपने नागरिकों के लिए कानून के नाम पर मनुष्यों को प्रभावित कर रही हैं.
अंतर-संसदीय संघ के अध्यक्ष, श्री ड्यूएर्ट पाशेको ने कहा कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के नाते भारत का बहुत सम्मान किया जाता है और यह अन्य देशों के लिए एक उदाहरण है।
अध्यक्ष जी , भारत सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के नाते उदाहरण बने रहना चाहता है या फिर भारत की संसद में पारित कानून लोकतंत्र के स्तर में आने वाली गिरावटों के कारण के रुप में दर्ज हो, इस दिशा को सुनिश्चित करने के निर्णायक मोड़ पर हम खड़े हैं।
किसी देश का पर्यावरण वैश्विक प्रभाव डालता है और उस पर संसदों में चिंता जाहिर की जाती है। इसीलिए अध्यक्ष जी उन कानूनों की पूरी दुनिया में समीक्षा होनी चाहिए, जो नागरिकता और मनुष्यता को गहरे से प्रभावित करती है। संसदों को ‘रोहिंग्या’ के विस्तार की इजाजत नहीं दी जा सकती है।
मैं उन तमाम बातों के लिए क्षमा प्रार्थी हूं यदि संसदीय लोकतंत्र और संवैधानिक संस्कृति के अनुकूल नहीं लगते हो।
एक नागरिक
अनिल चमड़िया
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