मृणाल पाण्डे का लेख: आरक्षण में पीछे के दरवाजे से सेंध?
हरियाणा सरकार ने निजी कंपनियों के लिए सिर्फ हरियाणा के स्थायी निवासियों को रोजगार में आरक्षण देने वाले कानून (हरियाणा स्टेट इंप्लॉयमेंट ऑफ लोकल कैंडिडेट्स एक्ट, 2020) की अधिसूचना जारी कर एक नया भिड़ का छत्ता छेड़ दिया है।
हरियाणा सरकार ने निजी कंपनियों के लिए सिर्फ हरियाणा के स्थायी निवासियों को रोजगार में आरक्षण देने वाले कानून (हरियाणा स्टेट इंप्लॉयमेंट ऑफ लोकल कैंडिडेट्स एक्ट, 2020) की अधिसूचना जारी कर एक नया भिड़ का छत्ता छेड़ दिया है। यह कानून राज्य की सभी कंपनियों, न्यासों, साझीदारी वाली फर्मों और सीमित स्वत्वाधिकार वाली साझा कंपनियों को बाध्य करेगा, कि वे (50,000 रुपये मासिक के वेतन वाली) 75 प्रतिशत नौकरियां लोकल बेरोजगारों के लिए अनिवार्यत: आरक्षित करें। उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला ने यह कहकर कुछ मरहम लगाने की कोशिश की है, कि जो गैर-हरियाणवी लोग पहले से राज्य में काम पर हैं, उनको नहीं हटाया जाएगा और यह कानून नई भर्तियों पर ही लागू होगा। पर उन लोगों के कान खड़े हैं जो बाहरी राज्यों से भारी तादाद में यहां आकर कम वेतन पर उन कामों को निपटाते रहे हैं, जिनको लोकल लोग या तो खुद नहीं करना चाहते, या हुनर न होने की वजह से कर नहीं पाते।
अपने यहां धरतीपुत्र बनाम बाहरिया लोगों को रोजगार देने पर काफी समय से महनामथ मचता आया है। उत्तर भारतीयों को लेकर यह दक्षिण भारत में हुआ, (बिहार या उत्तर प्रदेश के) ‘भैया लोगों’ को लेकर गुजरात में हुआ, महाराष्ट्र में यह पहले दक्षिण भारतीयों को लेकर, फिर गुजरातियों और हाल के बरसों में ‘भैया लोगों’ को लेकर हो चुका है। अब हरियाणा की बारी है जहां अब कानूनन नौकरियों को लोकल लोगों के लिए आरक्षित बनाने की योजना लागू होने जा रही है। 2020 की कोविड तालाबंदी ने साफ दिखाया कि बाहरी राज्यों से पलायन कर आए निचले दर्जे के कामगारों की आर्थिक-सामाजिक दशा कितनी खस्ता और अनिश्चित बनी रहती है। फिर भी तालाबंदी उठते ही वे काम पर वापसी के लिए बाध्य हैं, क्योंकि लोकल मालिकान और इन कामगारों के बीच मुझको और नहीं, तुझको ठौर नहीं, का नाता कायम है।
आम तौर से अपने यहां की बिजनेस बिरादरी नेता- अफसर की अगाड़ी और घोड़े की पिछाड़ी से बचती रहती है। लेकिन इस मुद्दे का संभावित नुकसान बहुत होगा। इसी लिए राज्य के एक व्यापारिक चैंबर्स के मुखिया कहने को मजबूर हुए कि राज्य की इंडस्ट्री पर धरतीपुत्र सोच का नतीजा घातक हो सकता है। डर यह भी है, कि कहीं हरियाणा की देखा-देखी दूसरे राज्य भी सस्ती लोकप्रियता कमाने और अपने प्रशासन की विफलताओं पर पर्दा डालने के लिए इसी तरह का कानून लाकर निजी लोकल उद्योगों में तीन चौथाई नौकरियां आरक्षण के तहत नकर दें। कहने को कानून विशेषज्ञों का कहना है कि प्रस्तावित कानून एकाधिक कसौटियों पर खारिज हो सकता है। एक, जन्मस्थान के आधार पर आरक्षण देना या लेना संविधान सम्मत नहीं है। दूसरे, संविधान के तहत देश के सभी नागरिकों को आजीविका कमाने के लिए सारे देश में कहीं भी जाने- कमाने का हक है। यह कानून उसमें बाधा डालेगा। इसलिए यह प्रस्तावित कानून, जिसे राज्यपाल तथा विधानसभा की स्वीकृति मिल चुकी है, अदालत गया, जो कि जाएगा ही, तो इसका पारित होना असंभव है। 2019 में आंध्र प्रदेश ने भी आरक्षण देने के लिए ऐसा ही जो कानून बनाया था उसको अदालत में चुनौती दी जा चुकी है और अंतिम फैसला अभी आना है। पर तमाम बातों के बावजूद जो बात चिंताजनक लगती है वह यह, कि आरक्षण में छेद करने के मामले सिर्फ इंडस्ट्री तक सीमित नहीं। संघ परिवार आरक्षणों को संशोधित कर मेरिट को मानक बनाने पर कई बार कह चुका है। और कई राज्य नई सरकारी नौकरियां पैदा करने में विफल होने के बाद इस तरह का कानून लाकर निजी क्षेत्र से बाहरिया लोगों को विदा कर वहां स्थानीय मतदाता वर्ग के लिए रोजगार सृजन का मौका देखते हैं ताकि उनका नंबर एक सरदर्द बना बेरोजगारी का मसला सुलझे। उत्तर कोविड काल में सब देश अपने-अपने आर्थिक चूल्हे अलग करने के मूड में हैं। भारत भी रह-रह कर आत्मनिर्भर और चीनी माल के बहिष्कार की बात करता दिखता है। ऐसे वक्त में बाहर से पूंजी खींचकर या बड़े घरेलू पूंजी निवेशक पाना दुष्कर है। इसलिए कई राज्य सरकारों को क्षेत्रीयतावादी आरक्षण को निजी उद्योगों पर लागू करके कम-से-कम अगले चुनाव तक अपनी पार्टी के लिए लोकल वोटों का मजबूत बैंक साधे रखना अधिक काम्य है।
कोविड की मार से पहले ग्लोबल बाजार फलफूल रहे थे। तब केंद्र सरकार ‘सबका साथ, सबका विकास’, और अंतरराज्यीय तथा अंतरराष्ट्रीय व्यापार को अधिक सहूलियत देने की बात करती थी। विश्व तालिका में भारत की ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ वाली फेहरिस्त में बेहतरी दिखा कर उसने बड़ी तालियां पिटवाईं। बाहरी उद्योग जगत को भारत में निवेश का बढ़ावा देने के लिए श्रम कानूनों तथा कंपनी कानूनों में भी बड़े सुधार किए गए। अब यदि निजी क्षेत्र में क्षेत्रीयता के आधार पर भारी आरक्षण अनिवार्य बना दिया गया तो परदेसी पूंजी ही नहीं देसी पूंजी भी ऐसे राज्य से अन्यत्र पलायन की सोचेगी। इस कानून के तले उपक्रमी पड़ोसी राज्यों से न तो कुशल कामगार बुला सकेंगे और नही उनको सस्ते मजदूर उपलब्ध होंगे। लिहाजा, माल की गुणवत्ता तो नहीं सुधरेगी, और माल निरंतर महंगा भी बनता जाएगा।
कोई पूंजीवादी क्रांति भी तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक उसके पास पूंजीवादी लॉबी और मध्यवर्गीय तब के का समर्थन और उनकी मुखर प्रचार सेना न हो। क्षेत्रीय आरक्षण के बाद वैसा समर्थन मिलना संदिग्ध है। यह ठीक है कि क्षेत्रीय जनता के हित एक बिंदु से अधिक बाधित नहों, लेकिन लोकल युवाओं को हुनरमंद बनाने के लिए खोले गए स्थानीय उच्च शिक्षा संस्थानों, प्रशिक्षण केंद्रों और औद्योगिक उपक्रमों को भी तो ऐसे कुशल प्रशिक्षक चाहिए जो हरित क्रांति से अमीर बने उन राज्यों में अभी नहीं हैं जिनके प्रशिक्षित युवा विदेश जा चुके हैं। कुल मिलाकर इसमें अक्लमंदी नहीं कि क्षेत्रीयता, जाति और धर्माधारित वोट बैंक दुहने का पाप तो चुनाव-दर-चुनाव जारी रखा जाए, और फिर उसके प्रायश्चित को अजंडा बना कर आरक्षण को एक बेमेल कानूनी जामा पहना दिया जाए।
यह तनिक विस्मयकारी है कि यह सोच विपक्ष से नहीं उपजी जिसने भाजपा की अपनाई गई जाति, धर्म की राजनीति की मार से सत्ता गंवाई है। यह सोच अभूतपूर्व मतों से जीत कर अधिकतर राज्यों में अपनी सरकारें बना चुकी भाजपा के बीच से निकल रही है। वृहत्तर नजरिए से यह उसे भी नुकसा नहीं पहुंचाएगी। भाजपा शासित राज्यों ने अगर अपने-अपने उद्योग जगत के इर्द-गिर्द दीवारें खड़ी करनी शुरू कीं, तो बाहर के हुनरमंद लोगों पर बड़े पैमाने पर निर्भर रहे हरियाणा, आंध्र प्रदेश या गुजरात सरीखे राज्य जो आईटी, निर्माण, खेती, कपड़ा उद्योग से लेकर हीरा और सोने के गहनों का फायदेमंद व्यापार करके मालामाल हुए हैं, कुछ ही समय में बदहाल हो सकते हैं। इससे भाजपा शासित राज्यों के बीच भी क्षेत्रीय हित टकराने से मनमुटाव बढ़ेंगे। उत्तर भारत, जहां भाजपा का पूरा कब्जा है, से देश भर को सस्ते श्रमिक और हुनरमंद कारीगर भेजने वाले आबादी बहुल राज्यों में बेरोजगारी दर बढ़ने से घरेलू स्थिति विस्फोटक होगी। उधर, दक्षिण के संपन्न भारतीय राज्य जिनमें से अधिकतर अभी अपने दबंग बड़े क्षेत्रीय दलों से शासित हैं, पहले भी केंद्र द्वारा तरह-तरह के आदेश थोपे जाने के खिलाफ परचम लहराते आए हैं। उनमें पैठ बनाना भाजपा के लिए कठिन होगा सो होगा, वे विभेदकारी मनसूबे पाल बैठें तो वह देश की अखंडता के लिए खतरनाक होगा।
जरूरी है कि बहुमत से संसद को पूरी तरह कब्जे में लिए बैठी भाजपा अपने ही शासित प्रदेश के इस प्रस्तावित नए कानून पर विहंगम और समग्र नजरिए से समय रहते सोचे। बिना लोगों को भरोसे में लिए, बिना विपक्ष से संसद में खुली बहस किए कृषि या उद्योग या श्रम कानूनों में फेरबदल करके क्षेत्रीय आधार पर निचली नौकरियां आरक्षित बना दी गईं तो होगा यह कि भाजपा के ही हरियाणा, गुजरात या कर्नाटक जैसे राज्यों से दर-बदर हुए लोगों के कारण उनके ही गढ़ उत्तर प्रदेश, बिहार तथा मध्य प्रदेश में बेरोजगारी दर उछलेगी और इन आबादी बहुल राज्यों में असहमति का ज्वार उमड़ पड़ेगा। यह तो भाजपा भी निश्चय ही नहीं चाहेगी।
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