जलवायु परिवर्तन के कारण भाषाएं हो रहीं विलुप्त, रिपोर्ट में चौंकाने वाले खुलासे
दुनिया से औसतन 40 दिनों के अंतराल पर एक भाषा विलुप्त हो जाती है। यह एक खतरनाक तथ्य है, पर दुखद यह है कि जलवायु परिवर्तन इस विलुप्तीकरण को पहले से अधिक तेज कर रहा है।
वर्ष 2022 में तमाम देशों के कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में कटौती के खोखले दावों के बीच दुनिया ने वर्ष 2021 की तुलना में 1 प्रतिशत अधिक कार्बन डाइऑक्साइड को वायुमंडल में उत्सर्जित किया। सबसे अधिक 6 प्रतिशत की वृद्धि भारत में हुई, जबकि दूसरे स्थान पर अमेरिका है जहां यह वृद्धि 1.5 प्रतिशत दर्ज की गई। दूसरी तरफ चीन में उत्सर्जन में 0.9 प्रतिशत की कमी आंकी गई, जबकि यूरोपियन यूनियन में यह कमी 0.8 प्रतिशत तक रही। इन देशों और क्षेत्रों के अलावा शेष दुनिया में उत्सर्जन में 1.7 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। ये सभी आंकड़े ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट द्वारा प्रकाशित कार्बन बजट 2022 में दर्ज किये गए हैं।
इसके अनुसार यदि कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन की दर पर लगाम नहीं लगाया गया तो अगले 9 वर्षों के भीतर ही दुनिया का औसत तापमान पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। पिछले वर्ष वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की वायुमंडल में औसत सांद्रता 417.2 पार्ट्स पर मिलियन, यानि पीपीएम, रही जो पूर्व औद्योगिक काल की तुलना में 51 प्रतिशत अधिक है। पिछले वर्ष जीवाश्म इंधनों के दहन से वायुमंडल में 36.6 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित हुई, जबकि वर्ष 2021 में इसकी मात्रा 36.3 गीगाटन थी।
अमेरिका के नासा ने हाल में ही बताया है कि वर्ष 2022 अब तक का पांचवां सबसे गर्म वर्ष रहा है। पांचवें स्थान पर वर्ष 2015 भी है। वैज्ञानिक तौर पर पृत्वी के तापमान का लेखाजोखा वर्ष 1880 से रखा जा रहा है, और पिछले 9 वर्ष इस पूरे इतिहास के सबसे गर्म 9 वर्ष रहे हैं। पिछले वर्ष पृथ्वी का औसत तापमान पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में 1.11 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। इस बढ़ाते तापमान और जलवायु परिवर्तन का असर अचानक बाढ़, भयंकर सूखा, चक्रवातों, अत्यधिक गर्मी और सर्दी, जंगलों की आग इत्यादि के तौर पर पूरी दुनिया में पूरे वर्ष देखने को मिल रहे हैं। पर, इसका सबसे घातक प्रभाव सागर तल का लगातार बढ़ना है, जिससे दुनियाभर में सागर तटों और द्वीपों का बड़ा हिसा जल्दी ही डूब जाएगा। बुरी खबर यह है कि सागर तल के बढ़ने की दर लगातार बढ़ती जा रही है। 19वीं शताब्दी के अंत तक सागर तल के बढ़ने की दर औसतन 20 सेंटीमीटर रही, पर अनुमान है कि अब से वर्ष 2050 तक यह दर 25 से 30 सेंटीमीटर रहने वाली है। दूसरी तरफ सागर तटों पर बाढ़ की घटनाएं 10 गुना बढ़ जाएंगी। जाहिर है जलवायु परिवर्तन के कारण अनेक द्वीपों का नामो-निशां जल्दी ही दुनिया के नक़्शे से हमेशा के लिए मिट जाएगा। इन द्वीपों पर दुनिया की अनेक जनजातियां रहती हैं, और हरेक जनजाति की अपनी एक विशिष्ट भाषा है। जब जनजातियों पर संकट आएगा तब उनकी भाषा भी प्रभावित होगी और संभव है अनेक भाषाएं हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएं।
दुनिया से औसतन 40 दिनों के अंतराल पर एक भाषा विलुप्त हो जाती है। यह एक खतरनाक तथ्य है, पर दुखद यह है कि जलवायु परिवर्तन इस विलुप्तीकरण को पहले से अधिक तेज कर रहा है। यदि इस दिशा में कुछ नहीं किया गया तो वर्तमान में दुनिया में बोली जाने वाली लगभग 7000 भाषाओं में से आधी से अधिक इस शताब्दी के अंत तक विलुप्त हो चुकी होंगीं। हमारा इतिहास कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं के विलुप्तीकरण के बारे में बहुत कुछ बताता है – ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, साउथ अफ्रीका और अर्जेंटीना में जनजातियों द्वारा बोली जानी वाली कुल भाषाओं में से आधे से अधिक वर्ष 1920 तक विलुप्त हो चुकी थीं। क्वींस यूनिवर्सिटी के स्ट्रेथी लैंग्वेज यूनिट की निदेशक अनास्तासिया रिएह्ल ने विलुप्त होती भाषाओं पर वर्षों से अनुसंधान किया है और हाल में ही उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के लिए इस विषय पर रिपोर्ट तैयार की है, जिसमें कहा गया है कि दुनिया की भाषाओं के लिए, विशेष तौर पर जनजातीय भाषा और इसमें सम्मिलित ज्ञान के लिए, जलवायु परिवर्तन ताबूत की आख़िरी कील की तरह काम कर रहा है।
वैश्वीकरण और आबादी के बड़े पैमाने पर विस्थापन के कारण अधिकतर भाषाएं वर्तमान में संकट में हैं क्योंकि विस्थापन के बाद नए जगह पर वह भाषा नहीं बोली जाती है, या फिर विस्थापितों की भाषा को नया समाज तिरस्कार की नज़रों से देखता है। समस्या यह है कि विस्थापन और आबादी के पलायन को जलवायु परिवर्तन बढाता जा रहा है। इस भाषाओं के साथ एक तरीके की क्रूरता ही कहा जाएगा कि अधिकतर भाषाएं उन क्षेत्रों में बोली जाती हैं, जो क्षेत्र तेजी से आबादी के नहीं रहने लायक बनते जा रहे हैं।
दक्षिणी प्रशांत क्षेत्र में वानुआतु एक देश है जिसका कुल क्षेत्रफल 12189 वर्ग किलोमीटर है, पर यहाँ 110 भाषाएं बोली जाती हैं, यानि औसतन हरेक 111 वर्ग किलोमीटर पर एक भाषा। भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार भाषा का यह घनत्व दुनिया में सर्वाधिक है। दुखद यह है कि यह एक ऐसा देश है जिसे बढ़ाते सागर तल के कारण डूबने का ख़तरा सबसे अधिक है। द्वीप या सागर तटीय क्षेत्र चक्रवातों की बढ़ती आवृत्ति और तेजी से बढ़ते सागर तल से खतरे में हैं तो दूसरी तरफ मुख्य भूमि पर तापमान वृद्धि और सूखा के कारण कृषि और मत्स्य पालन पर संकट है। ऐसे में इन क्षेत्रों से जनजातियों का पलायन बढ़ता जा रहा है। ऐसे पलायन के बाद आबादी तो दूसरी जगह पहुंच जाती है, पर स्थानीय भाषा वहीं छूट जाती है और फिर विलुप्त हो जाती है। जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ते प्राकृतिक आपदाओं से पूरी दुनिया की आबादी प्रभावित हो रही है और विस्थापन की दर बढ़ती जा रही है। वर्ष 2021 में दुनिया में 2.37 करोड़ आबादी ने आतंरिक विस्थापन किया, जबकि वर्ष 2018 में यह संख्या 1.88 करोड़ ही थी। आतंरिक विस्थापन वह है जो एक देश के भीतर ही एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में किया जाता है। पिछले 10 वर्षों के दौरान दुनिया में होने वाले कुल विस्थापन में से 20 प्रतिशत से अधिक एशिया और प्रशांत क्षेत्र में किये गए हैं। इससे अनेक भाषाएं विलुप्त हो गईं हैं, या फिर विलुप्तीकरण के कगार पर हैं। समस्या यह है कि भारत, फिलीपींस और इंडोनेशिया में अनेक भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें बोलने वाले 100 से भी कम है।
अ मैप ऑफ़ क्रिटिकली इनडेजर्ड लैंग्वेजेज में दुनिया की 577 ऐसी भाषाओं का विस्तार में वर्णन है जो तेजी से विलुप्त हो रही हैं। इसके अनुसार ऐसी भाषाओं का मुख्य केंद्र अफ्रीका, प्रशांत क्षेत्र और हिन्द महासागर के पास के देश हैं। जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि का सबसे अधिक असर भी इन्हीं क्षेत्रों पर पड़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र के यूनेस्को के अनुसार जब किसी भाषा को बोलने वालों की संख्या 10000 से कम हो जाती है तब वह भाषा संकटग्रस्त हो जाती है, और विलुप्तीकरण की तरफ बढ़ने लगती है। इस दौर में अधिकतर जनजातीय भाषाएं संकटग्रस्त हैं, इसी समस्या पर दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2022 से 2032 तक के दशक को जनजातीय भाषा दशक के तौर पर मनाने का ऐलान किया है। इस दशक की घोषणा करते हुए दिसम्बर 2022 में संयुक्त राष्ट्र सामान्य सभा के अध्यक्ष कस्बा कोरोसी ने कहा कि भाषा के नष्ट होने से केवल बहुमूल्य ज्ञान ही नहीं बल्कि पूरे समाज की सांस्कृतिक विविधता को आघात पहुंचता है।
लिविंग टंग इंस्टिट्यूट फॉर इनडेजर्ड लैंग्वेजेज के निदेशक डॉ ग्रेगरी एंडरसन के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण हम भाषा और संस्कृति के विनाश की तरफ तेजी से बढ़ रहे हैं और अगली शताब्दी तक बहुत कुछ ख़त्म हो चुका होगा। जब किसी भाषा को बोलने वाला अंतिम आदमी भी चला जाता है तब समाज पर यह एक क्रूर प्रहार है। दिक्कत यह है कि जनजातियों को समाज की मुख्यधारा में शामिल करने के नाम पर सबसे पहले उनकी भाषा छीनी जाती है। अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और स्कैन्डिनेविया ने यही किया जा रहा है – बच्चों को स्कूलों में और बड़ों को कार्यस्थलों पर किसी भी स्थिति में अपनी भाषा में बात करने का अधिकार नहीं है। दूसरी तरफ अनेक अध्ययन बताते हैं कि अपनी मातृभाषा में बात ना कर पाने के कारण मानशिक रोगों का शिकार हो सकते हैं और आपकी आदतें बदल सकती हैं। बांग्लादेश में किये गए एक अध्ययन के अनुसार अपनी मातृभाषा में बात करने वाले युवा शराब का कम सेवन करते हैं और हिंसा से दूर रहते हैं।
भाषाओं के विलुप्त होने की दर भारत में दुनिया के किसी भी देश से अधिक है। इसका एक कारण सरकार की जनगणना से सम्बंधित नीतियां भी हैं। वर्ष 1971 की जनगणना के समय से उन भाषाओं की सूचि नहीं बनाई जाती, जिन्हें बोलने वालों की संख्या 10000 से कम हो। यही कारण है कि वर्ष 1961 की जनगणना में देश की 1652 भाषाओं का जिक्र है, जबकि वर्ष 1971 के बाद यह संख्या अचानक गिरकर 108 भाषा तक पहुंच गई यूनेस्को के अनुसार भारत में 197 भाषाएं संकटग्रस्त हैं, यह संख्या दुनिया में सबसे अधिक है। इसके बाद अमेरिका में 191, ब्राज़ील में 190, चीन में 144 और इंडोनेशिया में 143 भाषाएं संकट ग्रस्त हैं।
विलुप्त होती कुछ भाषाएं ऐसी भी हैं जिनके बहुत प्रयास के बाद बचाया जा सका है। अमेरिका में हवाइयन भाषा को बोलने वाले वर्ष 1970 में महज 2000 लोग बचे थे, पर अब इनकी संख्या 18700 तक पहुंच गई है। न्यूजीलैंड में माओरी जनजाति के केवल 5 प्रतिशत युवा अपनी भाषा बोलते थे, पर अब इनकी संख्या 25 प्रतिशत से भी अधिक है। दूसरी तरफ हमारे देश में कुछ ऐसी जनजातीय भाषाएं भी हैं जिन्हें बोलने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है, अब इसमें साहित्य भी लिखा जा रहा है और कुछ भाषाओं में तो फिल्में भी बन रही हैं। ऐसी भाषाओं में सबसे आगे है – ओडिशा, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में बोली जाने वाली भाषा गोंडवी। महाराष्ट्र, राजस्थान और गुजरात में बोली जाने वाली भीली, मिजोरम की मिजो, मेघालय की गारो और खासी और त्रिपुरा की कोकबोरोक को बोलने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है।
दुनिया में पूंजीवाद के विकास ने पारिस्थितिकीतंत्र, पर्यावरण, संस्कृति और मानवीय संवेदनाओं को विनाश के कगार पर पहुंचा दिया है और इसके साथ ही भाषाएं भी नष्ट हो रही हैं। भाषाओं के साथ ही पारंपरिक ज्ञान का अथाह भण्डार भी नष्ट हो रहा है।
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