देश को महंगा पड़ रहा है योजना आयोग का अभाव, खत्म करना विपरीत दिशा में जाने वाला फैसला साबित हुआ
निश्चय ही योजना आयोग में कई कमियां थीं और इसमें सुधार की जरूरत थी। पर योजना आयोग को सुधारने और अधिक मजबूत करने के स्थान पर उसे समाप्त ही कर देना बहुत अनुचित निर्णय था और जिस दिशा में जाने की जरूरत है, उससे विपरीत दिशा में जाने जैसा निर्णय था।
हाल के समय में जब कई बार अनुचित आर्थिक नीतियों की चोट लोगों ने महसूस की या सरकारी नीतियों में पर्याप्त तैयारी का अभाव पाया, तो उस समय योजना आयोग की अनुपस्थिति का बहुत तीखा अहसास होता है। इन 6-7 वर्षों में ही यह स्पष्ट हो गया है कि योजना आयोग को समाप्त करने का एनडीए सरकार का निर्णय देश के लिए बहुत महंगा सिद्ध हुआ है। केंद्र और राज्यों के आर्थिक संबंधों को बेहतर बनाने में और भली-भांति संचालित करने में भी आज योजना आयोग की कमी महसूस की जा रही है।
एनडीए सरकार के गठन के बाद इस नई सरकार के सबसे पहले कार्यों में यह प्राथमिकता थी कि योजना आयोग को समाप्त कर दिया जाए। जिस योजना आयोग ने 12 पंचवर्षीय योजनाओं के दौर में आजाद भारत की विकास यात्रा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, उसे एक झटके में और बहुत अचानक समाप्त कर दिया गया। इतने महत्त्वपूर्ण निर्णय के लिए कोई व्यापक विमर्श नहीं किया गया, जैसे कि पहले से योजना आयोग को भंग करने का निर्णय ले लिया गया हो। हां, इसके स्थान पर नीति आयोग की स्थापना जरूर की गई पर यह एक अलग तरह का संस्थान है और जो बड़ी रिक्तता योजना आयोग को भंग करने से आई है उसकी पूर्ति नीति आयोग से नहीं हो सकती है।
योजना आयोग को ऐसे समय पर समाप्त किया गया है जब जलवायु बदलाव के दौर में विकास नियोजन की आवश्यकता पहले से और बढ़ गई है। इस दौर में अप्रत्याशित मौसम, बढ़ती आपदाओं, कृषि और स्वास्थ्य जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में नई समस्याओं और चुनौतियों के कारण अधिक सावधानी से किए गए नियोजन की जरूरत और बढ़ गई है। एक ओर सभी लोगों की बुनियादी जरूरतों को टिकाऊ तौर पर पूरा करने की अति महत्त्वपूर्ण चुनौती पहले से सामने थी, अब इसके साथ यह भी जरूरी हो गया है कि यह लक्ष्य ऐसी राह पर चलते हुए प्राप्त किया जाए जिसमें साथ-साथ ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन भी कम हो सके।
स्पष्ट है कि विकास नियोजन की जरूरत पहले की अपेक्षा कम नहीं हुई, अपितु और बढ़ गई है। अतः इस दौर में योजना आयोग को समाप्त करना बहुत ही अनुचित और हानिकारक निर्णय था।निश्चय ही योजना आयोग में कई कमियां थीं और उसमें सुधार की जरूरत थी। पर योजना आयोग को सुधारने और अधिक मजबूत करने के स्थान पर उसे समाप्त ही कर देना बहुत अनुचित निर्णय था और जिस दिशा में जाने की जरूरत है, उससे विपरीत दिशा में जाने जैसा निर्णय था।
भारत में योजनाबद्ध विकास की नींव आजादी के पहले ही रख दी गई थी और इस दिशा में आरंभिक प्रयासों से सुभाषचंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरू जैसे अग्रणी नेता जुड़े थे। वर्ष 1950-66 के दौरान आजाद भारत ने पहली तीन वर्षीय पंचवर्षीय योजनाएं पूर्ण की। वर्ष 1966-1969 के आर्थिक संकट के व्यवधान के बाद 1969-70 में चैथी पंचवर्षीय योजना आरंभ हुई, पर इसमें बहुत कटौतियां करनी पड़ीं। पांचवी योजना को वर्ष 1977 में नवनिर्वाचित जनता पार्टी सरकार ने ‘रालिंग योजना’ में बदल दिया। छठी योजना 1980 में आरंभ हुई और 1990 तक सातवीं योजना पूरी हो गई।
फिर 1990-92 के राजनीतिक अनिश्चय में योजना की प्रक्रिया कुछ दूर हो गई। पर वर्ष 1992 के बाद 8वीं योजना शुरू हुई तो आगे नवीं (1997-2002), दसवीं (2002-2007) और ग्यारहवीं (2007-2012) योजनाओं का कार्य निरंतरता से चलता रहा। वर्ष 2012 में जब 12वीं योजना बहुत तैयारियों और अध्ययनों के साथ शुरु हो गई तो किसी ने यह सोचा भी नहीं था कि इतनी मेहनत से तैयार की गई योजना को शीघ्र ही बीच अधर में छोड़ दिया जाएगा और साथ में योजनाएं तैयार करने और क्रियान्वित करने की पूरी प्रक्रिया ही छिन्न-भिन्न हो जाएगी।
मौजूदा केन्द्रीय सरकार ने इतना बड़ा निर्णय लेने से पहले राज्य सरकारों से पर्याप्त विमर्श नहीं किया कि वहां के राज्य स्तर के योजना आयागों या बोर्डों की क्या स्थिति होगी और वे नियोजन को जारी रखना चाहती हैं कि नहीं। अचानक ऐसा निर्णय ले लिया गया जिससे बहुत अनिश्चय और अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न हुई। यदि राज्य सरकारों से पर्याप्त विमर्श किया जाता और उनकी राय को पर्याप्त महत्त्व दिया जाता तो शायद योजना आयोग को इस तरह समाप्त करने की स्थिति उत्पन्न ही नहीं होती।
पर्यावरण संकट के विकट होने के साथ विस्तृत नियोजन की आवश्यकता निश्चित तौर पर बहुत बढ़ गई है। पहले जो माॅडल था उसमें विभिन्न संसाधनों और लोगों की जरूरतों का मेल हमें स्थापित करना था। अब जो स्थिति है वह अधिक जटिल है। हमें यह भी देखना है कि जो कार्बन स्पेस है या पर्यावरण संरक्षण के आधार पर हमें जितना स्थान प्राप्त है, उस स्थान में ही सब लोगों की जरूरतों को कैसे पूरा करें।
यदि इस आधार पर योजना बने तो यह स्पष्ट हो जाता है कि विषमता को तेजी से कम करते हुए समता आधारित विकास की जरूरत अब पहले की अपेक्षा और तेजी से बढ़ गई है। पर लगता है कि कुछ शक्तिशाली स्वार्थ इस स्थिति को और ऐसे निष्कर्ष को लोगों से छिपाना चाहते हैं और इस कारण उन्होंने पंचवर्षीय योजनाओं और उन्हें तैयार करने वाली योजना आयोग को ही समाप्त कर दिया है। पर विपक्षी दलों और जन संगठनों को चाहिए कि वे योजनाबद्ध विकास और योजना आयोग की बेहतर रूप में पुनर्स्थापना के उद्देश्यों और एजेंडे को जीवित रखें।
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