खरी-खरी: मंडल की उर्जावान अंगड़ाई से सकपकाया कमंडल, और यूपी से निकलता राष्ट्रीय संदेश
इस बार 2022 विधानसभा चुनाव की घोषणा होते ही बीजेपी में बगावत फूट पड़ी। कुछ ऐसे संकेत मिलने लगे कि प्रदेश में पुनः मंडल करवट ले रहा हो। यदि ऐसा है तो यह एक महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना है और यह हिन्दुत्व एवं नरेन्द्र मोदी के लिए खतरे की घंटी है।
चुनाव तो पांच प्रदेशों- पंजाब, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मणिपुर और गोवा में हो रहे हैं परंतु चर्चा अधिकांशतः उत्तर प्रदेश की है। बात स्वाभाविक भी है। देश का सबसे महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश लोकसभा में 80 सांसद भेजता है। इसका महत्व देश की राजनीति में सबसे अधिक होना ही चाहिए। यही कारण है कि इस प्रदेश में तनिक भी राजनीतिक गतिविधि होती है, तो मीडिया शोर मचाने लगता है। परंतु जब चुनाव की घोषणा होते ही उत्तर प्रदेश की भगवा सरकार के तीन मंत्री- स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और धर्म सिंह सैनी एवं लगभग एक दर्जन बीजेपी विधायक पार्टी छोड़कर समाजवादी पार्टी में शामिल हो जाएं, तो जाहिर है कि चर्चा कुछ अधिक ही होगी। क्योंकि सन 2014 से प्रदेश में हिन्दुत्व राजनीति का डंका बज रहा है। मोदी जी का जादू यहां ऐसा चढ़कर बोल रहा है कि मंडल की जातिवादी राजनीति की भी हवा निकल गई।
भगवामय उत्तर प्रदेश ने सन 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों अथवा 2017 में विधानसभा चुनाव में मंडल की जातिगत राजनीति छोड़कर धर्म की हिन्दुत्व राजनीति को पूर्णरूप से स्वीकार कर लिया। परंतु इस बार 2022 विधानसभा चुनाव की घोषणा होते ही बीजेपी में बगावत फूट पड़ी। कुछ ऐसे संकेत मिलने लगे कि प्रदेश में पुनः मंडल करवट ले रहा हो। यदि ऐसा है तो यह एक महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना है और यह हिन्दुत्व एवं नरेन्द्र मोदी के लिए खतरे की घंटी है। तो आइए, जरा समझें कि यूपी में क्या हो रहा है।
बीते तीन दशकों में छिपी है यूपी की सियासी गुत्थी
उत्तर प्रदेश की गुत्थी सुलझाने के पहले प्रदेश की पिछले तीन दशकों की राजनीति समझनी होगी। आपको याद होगा कि प्रदेश में 1989 में जनता दल की हवा के समय में दल की ओर से मुलायम सिंह की सरकार सत्ता में आई थी। उसी के साथ-साथ केन्द्र में वी पी सिंह ने प्रधानमंत्री का पद संभाला था। वी पी सिंह ने 1990 में मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू कर पिछड़ों को सरकारी नौकरियों एवं सरकारी शिक्षण संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा कर दी थी। बस, देखते-देखते देश एवं विशेषतया उत्तर प्रदेश तथा बिहार में मानो एक क्रांति आ गई हो। उत्तर प्रदेश एवं बिहार में पहले से मुलायम एवं लालू यादव की सरकार थी। वी पी सिंह एवं इन दोनों मुख्यमंत्रियों ने पिछड़ों के आरक्षण को ‘सामाजिक न्याय’ का रंग देकर राजनीति में पिछड़ों को सत्ता का रूप दे दिया।
इसी के साथ पिछड़ों ने ‘सामाजिक न्याय’ के नारे के साथ समाज में पिछड़ों के साथ जाति के आधार पर होने वाले अन्याय का मुद्दा भी जोड़ दिया। यह सदियों पुरानी जातीय व्यवस्था के लिए एक घोर समस्या थी। इसने हिन्दू समाज में अगड़ों एवं पिछड़ों के बीच एक खाई उत्पन्न कर दी जो अगड़े समाज के लिए खतरनाक थी। अतः अब जातीय व्यवस्था के लिए यह समस्या थी कि इस खाई को कैसे पाटा जाए। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अगड़ों ने संघ एवं बीजेपी को आगे किया जिसने इस समस्या से निपटने के लिए तुरंत कमंडल राजनीति आरंभ कर दी।
यह कमंडल क्या था?
कमंडल संघ की ओर से मंडल राजनीति का तोड़ था। इसका मुख्य उद्देश्य समाज में अगड़ों का सदियों पुराना वर्चस्व बनाए रखना था और पिछड़ों एवं दलितों को किसी प्रकार सत्ता से दूर रखना था। इसके लिए संघ एवं बीजेपी ने भारतीय मुसलमान को हिन्दू समाज के दुश्मन का रूप देना आरंभ किया ताकि हिन्दू समाज में अगड़ों एवं पिछड़ों के बीच उत्पन्न जातीय खाई धर्म के नाम पर पट जाए। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए संघ की ओर से एक सटीक रणनीति बनाई गई जिसमें बाबरी मस्जिद एवं राम मंदिर विवाद को तेज किया गया।
आपको याद होगा कि मंडल राजनीति के आरंभ होते ही सन 1990 में ही यकायक बाबरी मस्जिद निर्माण का मुद्दा उठ खड़ा हुआ। यह मामला सन 1940 के दशक से अदालत में पड़ा था। परंतु मंडल आरक्षण के बाद यकायक विश्व हिन्दू परिषद ने यह मांग रख दी कि अयोध्या में मुसलमान बाबरी मस्जिद हटाकर उस स्थल पर राम मंदिर निर्माण की अनुमति दें क्योंकि यह स्थल भगवान राम का जन्मस्थान है। इस मांग के उठते ही मुस्लिम पक्ष की ओर से मस्जिद संरक्षण हेतु बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी मैदान में कूद पड़ी। उधर, विश्व हिन्दू परिषद एवं बीजेपी ने ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ की कसम खा ली।
बस, देखते-देखते अयोध्या विवाद हिन्दू-मुस्लिम आस्था का विवाद बन गया। 1992 आते-आते देश मंडल भूलकर कमंडल की धर्म की राजनीति के आधार पर हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर बंट गया। 6 दिसंबर, 1992 को जब हिन्दू भीड़ ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाई उस समय तक मुसलमानों को पूरी तरह हिन्दू शत्रु के रूप में स्थापित कर दिया गया था। यह संघ की कमंडल राजनीति की विजय थी क्योंकि अब हिन्दू समाज अगड़े-पिछड़े के बंटवारे को भूलकर पुनः मुस्लिम विरोध में एकजुट हो चुका था।
1993 में भी भारी पड़ा था कमंडल पर मंडल
परंतु उत्तर प्रदेश एवं बिहार में सत्ता का मजा उठा चुके पिछड़ों ने पुनः मंडल को जान दी। सन 1993 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव आते ही दलितों के नेता कांशीराम से हाथ मिलाकर पुनः सामाजिक न्याय का मुद्दा खड़ा कर दिया। इस चुनाव में पुनः मंडल राजनीति की विजय हुई। और इसके बाद से लगभग तीन दशकों तक अधिकांश समय तक उत्तर प्रदेश एवं बिहार में पिछड़ों या दलितों की सरकार रही।
परंतु कमंडल राजनीति ने पिछड़ों को इन दो राज्यों में सीमित कर दिया एवं बीजेपी ने अगड़ों के हितों वाली केन्द्र में अटल बिहारी सरकार सन 1998 में बना लीह। मंडल उफान थमकर एक क्षेत्रीय समस्या बन गया। उधर, सन 2002 में गुजरात में हुए दंगों के बाद नरेन्द्र मोदी हिन्दू हृदय सम्राट के रूप में उभरे। सन 2014 में संघ की ओर से मोदी प्रधानमंत्री पद के दावेदार बने। मोदी ने मुस्लिम घृणा की राजनीति का डेवलपमेंट के साथ मिश्रण कर देश में हिन्दू वोट बैंक बनाकर बीजेपी को सत्ता पर अपने दम पर कब्जा करवा दिया।
अब संघ को हिन्दुत्व के हीरो के रूप में एक राष्ट्रीय हीरो मिल गया जिसके नेतृत्व में संघ हिन्दू राष्ट्र की रचना में जुट गया। सन 2017 में मोदी के नेतृत्व में ही बीजेपी ने मंडल नेता अखिलेश यादव को चुनाव में परास्त किया। प्रदेश में संघ ने उत्तर प्रदेश की कमान योगी आदित्यनाथ के हाथों में दे दी। योगी जी गोरखपुर मठ के घोर हिन्दुत्ववादी नेता हैं। वह ठाकुर वर्चस्व एवं मनुवादी जाति प्रथा में विश्वास रखते हैं। उन्होंने अपने पांच साल के शासन में केवल मुसलमान ही नहीं अपितु पिछड़ों एवं दलितों को भी रगड़ दिया। दलितों का हाथरस जैसी रेप की घटना से सामना हुआ। पिछड़ों ने जब किसान आंदोलन के रूप में सरकार का विरोध किया, तो लखीमपुर खीरी में उनपर ट्रैक्टर एवं गाड़ी चढ़ाकर उनकी हत्या कर दी गई। सिविल सोसायटी या मीडिया में किसी ने मुंह खोला, तो वह जेल पहुंच गया। मुसलमान की जो दुर्दशा हुई, वह सबको पता ही है।
ऐसी स्थिति में पिछड़ों एवं दलितों को सत्ता में भागीदारी का प्रश्न ही नहीं उठ सकता, पर चुनाव आते-आते पिछड़ों को समझ में आने लगा कि हिन्दुत्व उनके हक में नहीं है। यही कारण है कि बीजेपी में सम्मिलित पिछड़े नेताओं ने चुनाव की घोषणा होते ही बीजेपी के विरुद्ध बगावत कर दी। केवल इतना ही नहीं, वे सब बागी नेता समाजवादी पार्टी में सम्मिलित होकर पुनः सामाजिक न्याय एवं आरक्षण की चर्चा करने लगे।
यह सन 2014 के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक नया मोड़ है जिसके दो अर्थ हैं। सर्वप्रथम उत्तर प्रदेश में सन 1993 के समान पुनः हिन्दुत्व खतरे में है। दूसरे यह इस बात का भी संकेत है कि प्रदेश में मंडल राजनीति पुनः अंगड़ाई ले रही है, अर्थात जमीन पर पिछड़ों, दलितों का एक वर्ग एवं मुस्लिम समाज का एक राजनीतिक गठजोड़ उत्पन्न हो रहा है। बीजेपी इसकी काट अधिक से अधिक पिछड़ों एवं दलितों को टिकट देकर इन जातियों का वोट बांटने की रणनीति अपना रही है। उधर, मुस्लिम समाज का वोट बांटने के लिए भावुक मुस्लिम राजनीति करने वाले असददुद्दीन ओवैसी को मैदान में उतारा जा रहा है। ओवैसी को उनके आलोचक बीजेपी की बी टीम कहते हैं।
स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश का चुनाव एक दिलचस्प मोड़ ले रहा है। चुनाव मंडल एवं कमंडल के बीच एक संघर्ष का रूप ले रहा है। ऐसे में प्रश्न यह है कि हिन्दुत्व विरोधी शक्तियों को क्या करना चाहिए। वह तमाम शक्तियां जो हिन्दुत्व विरोधी हैं, उनकी रणनीति वही होनी चाहिए जो सन 1993 में थी। अर्थात पिछड़ों, दलितों एवं मुसलमानों का वोट आपस में बंटना नहीं चाहिए। इनको एकजुट होकर उसी प्रत्याशी को वोट करना चाहिए जो बीजेपी को हराने की स्थिति में हो। इसी के साथ-साथ सेकुलर हिन्दू को भी इनके साथ हाथ मिलाना चाहिए। धर्म के नाम पर मुसलमान ओवैसी की भावुक राजनीति से दूर रहें। इसी प्रकार जाति के नाम पर पिछड़ों एवं दलितों को भीअपने वोट का बंटवारा नहीं करना चाहिए। यदि ऐसा हो गया तो उत्तर प्रदेश ही नहीं, अपितु सारे देश में हिन्दुत्व राजनीति संकट में पड़ सकती है।
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