कश्मीर: जिस फैसले की घोषणा के लिए करना पड़ा पूरे राज्य को नजरबंद, उसे लागू करने में क्या होगा हश्र !

बच्चा समय पर घर न लौटे, घंटों उससे संपर्क न हो, तो जरा सोचें कि क्या हाल होगा। जब देश के गृह मंत्रालय को सारे देश की पुलिस को आदेश देकर कश्मीरियों की सुरक्षा के विशेष इंतजाम करने को कहना पड़े, तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि कश्मीरी किस दौर से गुजर रहे हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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राजेंद्र चौधरी

इसमें कोई दो राय नहीं है कि सरकार की कश्मीर नीति के दूरगामी परिणाम होंगे। 5 अगस्त, 2019 भारत के इतिहास में मील का पत्थर साबित होगा। कश्मीर पर सरकार के निर्णय की कई नजरिये- कानूनी, नैतिक, कश्मीरी और शेष भारत के लोगों के नजरिये- से समीक्षा की जा सकती है, और की भी जानी चाहिए। लेकिन किसी भी नीतिगत निर्णय के मूल्यांकन का एक बुनियादी आधार यह भी है कि वह निर्णय अपने लक्ष्य को हासिल करने में सफल होगा भी या नहीं। इस नजरिये से कश्मीर के घटनाक्रम के मूल्यांकन में प्रसिद्ध पहलवान बजरंग पूनीया द्वारा किया गया यह ट्वीट बहुत अच्छा प्रस्थान बिंदु है- “न कश्मीर में ससुराल चाहिए, न ही वहां पर मकान चाहिए, बस कोई फौजी शरीर तिरंगे में लिपटकर नआए, अब ऐसा हिंदुस्तान चाहिए।”

मोदी सरकार द्वारा कश्मीर पर उठाए गए कदमों का उद्देश्य भी तो वहां शांति की स्थापना करना है, आतंकवाद को खत्म करना है। अगर यह नहीं हुआ, तो फिर सरकार की इस कार्रवाई का क्या फायदा? ‘तिरंगे में लिपटी लाशें न आएं- यह तब ही हो सकता है जब कश्मीर में शांति स्थापना हो। इसके लिए जरूरी है कि कश्मीर के लोग बड़े पैमाने पर इस कार्रवाई का स्वागत करें, इस कदम को स्वीकार करें। लेकिन क्या ऐसा होता दिखाई दे रहा है? जिस कार्रवाई की घोषणा करने के लिए सरकार को कश्मीर को नजरबंद करना पड़ा है, उसको लागू करना कितना आसान होगा, यह शीशे की तरह साफ है।

देश-दुनिया का अनुभव यही इंगित करता है। अमेरिका- जैसा देश तालिबान से कोई समझौता करके अफगानिस्तान से बाहर निकलने के रास्ते तलाश करने पर मजबूर हो रहा है। यह उस अमेरिका की हालत है जो दुनिया का सबसे संपन्न और ताकतवर देश है। वही तालिबान को खत्म करने के लिए अफगानिस्तान में घुसा था। वही आज उसी से समझौता करके अपने देश लौट जाना चाहता है, क्योंकि यह लड़ाई उसे बहुत महंगी पड़ रही है। ताकत के बल पर आज तक इजराइल चैन से नहीं रह पा रहा जबकि उसे अमेरिका और दुनिया भर में बसे यहूदियों का समर्थन हासिल है। अगर आज तक फलस्तीन, जहां की अशांति कश्मीर से भी पुरानी है, में शांति स्थापित नहीं हुई और इसके बावजूद नहीं हुई है कि आज भी इजराइल में हर युवा के लिए फौज में सेवा करना जरूरी है, तो हमें अपने भविष्य के बारे में कोई मुगालता नहीं पालना चाहिए। शुतुरमुर्ग की तरह आंखें बंद करने से खतरा टलने वाला नहीं है। समझदार वही है जो दूसरों की गलतियों से सीखे।

भले ही हर्षोन्माद में डूबा देश का एक बड़ा तबका आज इसको नजरअंदाज कर रहा हो, पर यह तय है कि अगर कश्मीर के लोग इस कदम को स्वीकार नहीं करते, तो वहां शांति स्थापित नहीं हो सकती, और अगर कश्मीर में शांति स्थापित नहीं होती है, तो बजरंग पूनीया भले ही न चाहें, तिरंगे में लिपटी लाशें पूरे देश में पहुंचती रहेंगी। अगर फौजें कश्मीर में लड़ती रहेंगी, जहां पहले से ही दुनिया में सबसे ज्यादा सुरक्षाबल मौजूद हैं, तो रक्षा खर्च में हुई बढ़ोतरी की मार, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में कटौती भी पूरे देश को झेलनी पड़ेगी।


हाल ही में सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकेन्डरी एजुकेशन (सीबीएसई) द्वारा परीक्षा फीस कई गुना बढ़ाए जाने से पालकों में खलबली मची है। ये तो है, शेष देश का भविष्य। अब अगर इसमें कश्मीरियों का हश्र भी जोड़ लें तो क्या होगा ? घर में बच्चा समय पर न लौटे, घंटा-दो घंटा उससे फोन-संपर्क न हो, तो जरा सोच कर देखें कि क्या हाल होता है हमारा। जब देश के गृह मंत्रालय को सारे देश की पुलिस को विशेषआदेश देकर कश्मीरी लोगों की सुरक्षा के लिए विशेष इंतजाम करने को कहना पड़ता है, जब जिला पुलिस कप्तान कश्मीरी छात्रों के साथ फोटो खिंचवा कर उन्हें आश्वस्त करते हैं, तो इस का कुछ अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है कि कश्मीरी लोग किस मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं। यह दौर कुछ दिनों या हफ्तों का नहीं है।

हो सकता है कि यह मूल्यांकन गलत साबित हो (सभी चाहेंगे कि यह गलत ही साबित हो) और कश्मीर में जल्द शांति स्थापित हो जाए, लेकिन आम आदमी देर-सवेर सरकार के निर्णय का आकलन इसी आधार पर करेगा। शेष भारत के लोगों के निजी हित में भी यही है कि इस आधार पर इस निर्णय को तौला जाए। जहां तक केंद्र और राज्यों के बीच संबंध का सैद्धांतिक पक्ष है, एक राष्ट्र- एक विधान की बात है, तो अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री रह चुके वरिष्ठ राजनेता यशवंत सिन्हा ने हाल ही में छपे अपने एक लेख में उल्लेख किया है कि वर्तमान सरकार ने नगा विरोधियों के साथ 2015 में किए गए समझौते में नगालैंड को कश्मीर सरीखी स्वायत्तता देने का वायदा किया था।

इससे साफ है कि सरकार के निर्णय के पीछे सिद्धांत कम, राजनीति ज्यादा है। जहां तक कश्मीर में बाकी देशवासियों द्वारा जमीन खरीदने पर रोक की बात है तो यह बात अब जगजाहिर है कि ऐसी रोक देश के अन्य कई राज्यों में आज भी लागू है। जो बात जगजाहिर नहीं है, वह यह है कि धारा-35ए के माध्यम से कश्मीर में जारी यह रोक आजादी के पहले से वहां के तत्कालीन हिंदू राजा द्वारा लगाई गई थी।

कश्मीर पर सरकार के निर्णय के मूल्यांकन में हम शेष भारत वालों को निज हित में एक और बात को भी ध्यान में रखना चाहिए। आमतौर पर ऐसा नहीं होता कि कोई व्यक्ति बाहर वालों के लिए तो निरंकुश साबित हो और घरवालों के लिए बेहद लोकतांत्रिक। दिखावे के तौर पर भले ही व्यक्ति/ संगठन/पार्टियां अलग-अलग अवसर पर अलग-अलग रूप धर लें, पर अंदरूनी तौर पर आमतौर व्यक्ति एक-सा रहता है। ऐसा न हो तो इसे एक मानसिक बीमारी माना जाता है, खंडित व्यक्तित्व माना जाता है। इसलिए जो कार्यशैली सरकार ने कश्मीर पर अपनाई है, उससे आने वाले दिनों में हमारा भी बार-बार वास्ता पड़ने की आशंका है। नोटबंदी जैसे कई और पटाखे फूट सकते हैं।

(लेखक हरियाणा के महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर हैं)

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