कश्मीर के अंदर भी कश्मीर अदृश्य, कोई नहीं जानता कितनी बड़ी आबादी किस चीज के लिए तरस रही है
कश्मीर में छापे और गिरफ्तारी आम बात है, लेकिन इस बार पता नहीं चल रहा कि कितने लोगों को हिरासत में लिया गया है और कितनों को अज्ञात स्थानों पर भेजा गया है? जिस तरह लगाए गए प्रतिबंध अभूतपूर्व हैं, पूरी संभावना है कि इन सब सवालों के जवाब भी अभूतपूर्व ही होंगे।
उम्मीद तो यही है कि इस बार स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले के प्राचीर से जनता को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मुख्य मुद्दा अनुच्छेद 370 को हटाना और जम्मू-कश्मीर को दिए गए विशेष दर्जे को छीनना होगा। यही संभवतः यह बताने के लिए स्पष्ट है कि अमरनाथ यात्रा को जल्दबाजी और अधूरे ढंग से क्यों खत्म किया गया; राज्य में अन्य सभी तीर्थ यात्राओं को क्यों स्थगित किया गया और देश में सबसे विषम और हिंसाग्रस्त राज्य की संरचना में बदलाव के लिए संसद में गोपनीयता के जरिये संकल्प लाने का यह समय क्यों चुना गया।
भारत के इस एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य की खास रूपरेखा को बदलने का वर्तमान हर्षोन्माद देश की उस आजादी को मनाने के दिन भारी उत्साह में बदल दिया जाएगा जिसे उन महापुरूषों के संघर्षों से हासिल किया गया जिनकी उदारवादी मूल्यों, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता में गहरी आस्था थी, लेकिन जिन्हें समारोह मनाने के लिए इस तरह इतनी निर्ममता से कुचल दिया गया, जिसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता।
5 अगस्त को राष्ट्रपति के महज एक आदेश और संकल्प के जरिये जम्मू-कश्मीर के लोगों के राजनीतिक और भौगोलिक भाग्य का तब फैसला कर दिया गया जब वे कर्फ्यू या सड़कों पर लगाए गए प्रतिबंधों की वजह से अपने घरों में कैद थे। लोगों से उनकी राय जानने के बारे में सोचने की तो बात ही दूर है, चुनावों में भारी बहुमत हासिल करने वाली केंद्र की बहुसंख्यावादी सरकार ने राज्य विधानसभा का यह अधिकार भी छीन लिया कि वह राज्य को मिले विशेष दर्जे में किसी बदलाव का फैसला ले सके।
इन सब के पीछे जो तर्क दिए जा रहे हैं, वे भ्रांति पैदा करने वाले हैं क्योंकि पूरी कार्यवाही ही धोखे से भरी हुई है। जम्मू-कश्मीर का बंटवारा और इसे पूर्ण राज्यों में भी नहीं, दो केंद्र शासित प्रदेशों में बदलना इस नाम पर हो गया कि यह यहां रह रहे लोगों की भलाई के लिए है और इससे आतंकवाद का खात्मा होगा और विकास होगा।
क्या सरकार सचमुच ऐसा कुछ मान रही है कि यहां के लोग इतने सक्षम नहीं हैं कि वे अपने लिए सही और गलत का फैसला कर सकें? इस तरह का कठोर फैसला लेने के पीछे जो निहित उद्देश्य केंद्रीय गृह मंत्री ने बताए हैं, आने वाले दिनों में देखना होगा कि वे किस तरह पूरे होते हैं। लेकिन सबसे पहले यह देखना होगा कि वे किस कीमत पर पूरे होते हैं और इन्हें हासिल करने में जो कुछ किया जाता है, उनका क्या महत्व है।
जम्मू और उसके आसपास के जिलों- साम्बा और कठुआ, में धारा 144 लागू है। यहां चार या इससे अधिक लोग जमा नहीं हो सकते। वस्तुस्थिति यह है कि कई इलाकों में धारा 144 इस तरह लागू है, मानो अघोषित कर्फ्यू हो। फिर भी, राज्य में कुछ इलाके अब भी ऐसे हैं जहां फोन काम कर रहे हैं, टेलीविजन चैनल पर प्रोग्राम आ रहे हैं, अखबार बांटे जा रहे हैं और इंटरनेट भी चल रहा है, भले ही यह सब थोड़ा बहुत ही उपलब्ध हो।
वैसे, इन पंक्तियों को लिखे जाने तक लद्दाख क्षेत्र के बारे में कुछ भी पता नहीं चल रहा है। यह इलाका काफी फैला हुआ है और आबादी दूर-दूर बसी है और उनके बीच संपर्क भी बहुत सीमित है। लेकिन जम्मू से उत्तर की तरफ, जम्मू-श्रीनगर हाईवे और जम्मू-पुंछ हाईवे के इर्द-गिर्द पूरा राज्य सेना के जवानों और कंटीले तारों से भरा हुआ है और बिल्कुल ठहरा हुआ है। बहुत कम आबादी वाली चेनाब घाटी या राजौरी-पुंछ के संवेदनशील सीमाई जिलों से कोई सूचना नहीं मिल रही है।
जो थोड़ी-बहुत सूचनाएं आ भी रही हैं, तो वे श्रीनगर के उस इलाके से जो नियंत्रित वीवीआईपी क्षेत्र है और वे भी उन टेलीविजन चैनलों से जिनके लोगों को एक खास होटल में ठहराया गया है। विभिन्न टेलीविजन स्टूडियो से देश को बताया जा रहा है कि अधिकारियों ने इस बात की पुष्टि की है कि स्थिति नियंत्रण में है और खाने-पीने के जरूरी सामान और स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हैं। पत्रकार खींच दी गई लक्ष्मण रेखा से बाहर नहीं जा सकते। क्या यह उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए है? या खास तौर पर बनाए गए घेरों में रह रहे कश्मीरियों को उनसे बचाने के लिए यह किया गया है?
वरिष्ठ पत्रकार मुजामिल जलील अभी श्रीनगर में थे। दिल्ली लौटने के बाद उन्होंने फेसबुक पर लिखाः “मैं अभी-अभी श्रीनगर से दिल्ली लौटा हूं। वहां 1946 से बदतर हालात हैं। श्रीनगर सैनिकों और घुमावदार तारों के घेरों में है। कल मुझे पारायपोरा से रेजिडेंसी रोड स्थित अपने ऑफिस पहुंचने में तीन घंटे लग गए। मोबाइल और लैंडलाइन फोन डिस्कनेक्ट कर दिए गए हैं। इंटरनेट ऑफ है। एटीएम में पैसे नहीं हैं। पूरे कश्मीर में बहुत सख्ती वाला कर्फ्यू लागू है। बहुत परेशानियों के साथ मैं श्रीनगर के बाहरी इलाकों में ही थोड़ा-बहुत इधर-उधर जा सका। शहर के उस छोटे-से हिस्से से बाहर की मेरे पास कोई सूचना नहीं है। लेकिन मैंने यह जरूर सुना कि पुराने शहर बारामूला में कुछ विरोध हुआ है। मैं जिससे भी मिला, वह अचंभित था। विचित्र तरह की स्तब्धता है। हमने विरोध कर रहे दो लोगों के मारे जाने की बात सुनी लेकिन इन्हें पुष्ट करने का कोई तरीका नहीं है। कश्मीर वस्तुतः कश्मीर के अंदर भी अदृश्य हो गया है। चेकप्वाइंट्स पर खड़े सुरक्षा जवानों को पत्रकारों को बैरियर पार न करने देने के खास निर्देश दिए गए हैं। मैंने राजबाग पुलिस स्टेशन के बाहर एक होटल के अंदर दिल्ली से आई टीवी न्यूज चैनल की टीम को देखा- वे कह रहे थे कि कश्मीर शांत है।”
जिस ऐतिहासिक 5 अगस्त को लोगों ने कर्फ्यू के साथ आंखें खोलीं और जिस दिन उनकी दुनिया बदल गई, तब से दो दिनों बाद भी कश्मीर से यही एक सूचना है जो विस्तार से है। यह पता नहीं है कि कितने लोगों को पता है कि हुआ क्या है। हाल के दिनों में घाटी और इलाके के अन्य हिस्सों में सुरक्षा बलों की अतिरिक्त टुकड़ियां भेजी गई हैं लेकिन उनकी संख्या पता नहीं है। कोई नहीं जानता कि कितनी बड़ी आबादी किस चीज के लिए तरस रही है, किसके पास जरूरी सामग्री है या नहीं है, स्वास्थ्य सुविधाओं तक कितनों की पहुंच है या नहीं है? कितने बच्चे जन्म ले रहे हैं और बिना रुदन कितने लोगों की मौत हो रही है और कितने लोग बैरिकेड्स पर तैनात जवानों से अपनों की अंत्येष्टि के लिए आने-जाने की इजाजत मांग रहे हैं? यह भी पता नहीं चल रहा कि क्या विरोध कर रहे लोगों को गोलियों और छर्रों का सामना करना पड़ रहा है? इनमें कितने लोग हताहत हो चुके हैं? घाटी में छापे और गिरफ्तारियां आम बात हैं, फिर भी पता नहीं चल रहा कि कितने लोगों को हिरासत में लिया गया है और कितनों को अज्ञात स्थानों पर भेज दिया गया है? जिस तरह लगाए गए प्रतिबंध अभूतपूर्व हैं, ऐसे में इस बात की पूरी संभावना है कि इन सब सवालों के जवाब भी अभूतपूर्व ही होंगे।
आशा करनी चाहिए कि ये आशंकाएं निर्मूल हों लेकिन जिस तरह का आधिकारिक बल लगाया गया है, उनमें इस तरह के संदेह होना लाजमी है। अगर दो पूर्व मुख्यमंत्री जेल में रखे गए हैं और एक बीमार तथा बुजुर्ग पूर्व मुख्यमंत्री को घर में कैद कर रखा गया है, तो शेष आबादी का क्या हाल होगा, वह किन स्थितियों का सामना कर रही होगी, कहना मुश्किल है।
लेकिन यह सब कुछ भूल जाएं, सरकार और देश को इस स्वतंत्रता दिवस पर उत्साह में भर जाने की वजह मिल गई है। जम्मू-कश्मीर अब अंततः और पूरी तरह भारत का अभिन्न हिस्सा है। आजादी नागरिक स्वतंत्रता और मूलभूत लोकतांत्रिक अधिकारों के जरिये आती है। इस इलाके के लोग हमेशा से देश के अविभाज्य अंग रहे हैं। लेकिन यह सब उनके लिए इस वक्त पूरी तरह बेमानी है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं। लेखिका कश्मीर टाइम्स की कार्यकारी संपादक हैं)
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