दक्षिण द्वार भले ही बंद हो गया हो बीजेपी के लिए, लेकिन नीतियों से बढ़ती जा रही है उत्तर-दक्षिण खाई

कर्नाटक में बीजेपी की हार ने बेशक उसके लिए दक्षिण का दरवाजा बंद कर दिया हो लेकिन उसकी नीतियों ने उत्तर-दक्षिण की खाई को चौड़ा ही किया है।

हाल के कर्नाटक चुनाव में जीत में का जश्न मनाते कांग्रेस कार्यकर्ता (फोटो - Getty Images)
हाल के कर्नाटक चुनाव में जीत में का जश्न मनाते कांग्रेस कार्यकर्ता (फोटो - Getty Images)
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अभय शुक्ला

कर्नाटक चुनाव से जुड़े तमाम आयामों पर मीडिया-सोशल मीडिया में तरह-तरह से बहस चल रही है। मसलन, भारत जोड़ो यात्रा का कितना असर पड़ा, वोटों की अंतिम संख्या में ईवीएम और ‘एटीएम’ का योगदान कितना रहा, क्या अब कुमारस्वामी बोरिया-बिस्तर बांधकर सिंगापुर में जा बसेंगे, क्या रिजॉर्ट मालिकों को एक बार के लिए टैक्स में छूट दी जानी चाहिए क्योंकि सरकार बनाने में खरीद-फरोख्त की जरूरत न पड़ने से उनका बड़ा नुकसान हो गया!

बीच-बीच में उठती इस तरह की लहरों के बावजूद कर्नाटक के नतीजों से सियासी समुंदर में आई हलचल धीरे-धीरे शांत हो जाएगी, बशर्ते अमित शाह ‘ऑपरेशन कमल’ का 2023 संस्करण लाकर कोई नया तूफान न खड़ा कर दें। लेकिन कुछ और मुद्दे हैं जिन्होंने मुझे परेशान कर रखा है।

लगभग पांच करोड़ साल पहले भारतीय प्लेट, ऑस्ट्रेलिया के दक्षिण से अलग होती हुई यूरेशियाई प्लेट से टकरा गई जिससे आज का भारतीय उपमहाद्वीप बना। मोदी और उनकी ब्रिगेड न सिर्फ भूविज्ञान बल्कि इतिहास से भी अनजान है और इसीलिए उसने एक और ‘उपमहाद्वीपीय’ अलगाव की प्रक्रिया को जैसे शुरू कर दिया है जिसमें भारतीय प्रायद्वीप के दक्षिणी राज्य इसके उत्तरी भाग से अलग होने लगे हैं। 

कर्नाटक के चुनावी नतीजों ने बीजेपी के लिए दक्षिण द्वार बंद कर दिया है। (फोटो: Getty Images)
कर्नाटक के चुनावी नतीजों ने बीजेपी के लिए दक्षिण द्वार बंद कर दिया है। (फोटो: Getty Images)

कर्नाटक ने बीजेपी के लिए निर्णायक रूप से दक्षिण के दरवाजे को बंद कर दिया है। बीजेपी के लिए 2024 में तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में पैर जमाने की जो भी थोड़ी-बहुत संभावना थी, वह कर्नाटक में हार के साथ ऐसे गायब हो गई जैसे मोदी के चेहरे से विजयी मुस्कान। नतीजतन, अब हमारे पास दो भारत हैं जिनमें बहुत कम समानता है और भरोसा तो उनके बीच यकीनन नहीं है। 

वैसे, दक्षिणी राज्यों और शेष भारत के बीच की खाई 2014 से भी पहले से बढ़ रही थी, लेकिन अब यह कभी न भरने वाली खाई का आकार लेती जा रही है। किसी भी राष्ट्र या समाज के स्वास्थ्य को तय करने वाले जितने भी संकेतक हैं- आर्थिक, जनसांख्यिकीय, विकास, शासन- उनके आधार पर ये दक्षिणी राज्य शेष भारत से बिल्कुल अलग दिखने लगे हैं। प्रति व्यक्ति आय को ही लें और इसकी तुलना उत्तर के पांच ‘हिन्दू गढ़’ वाले राज्यों से करें तो यह फर्क साफ दिखेगा।

नीचे दिए ग्राफिक्स देखें:

दक्षिण द्वार भले ही बंद हो गया हो बीजेपी के लिए, लेकिन नीतियों से बढ़ती जा रही है उत्तर-दक्षिण खाई

साक्षरता दर, कुल प्रजनन दर, शिशु मृत्यु दर, गरीबी अनुपात, बेरोजगारी जैसे दूसरे संकेतकों के मामले में भी यही पैटर्न दिखता है। जो चाहें, सरकारी वेबसाइटों पर देख सकते हैं। एक और अहम आंकड़ा है: राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 30 फीसदी दक्षिणी राज्यों से आता है, भले वे देश की आबादी का केवल 18.2 फीसद हिस्सा हों। और फिर भी, जब केंद्रीय (वित्त आयोग) से कुछ पाने की बात आती है, तो उन्हें हिन्दी पट्टी के राज्यों की तुलना में बहुत कम मिलता है। 15वें वित्त आयोग ने आम बजट 2023-24 से अकेले उत्तर प्रदेश को ₹1,83,237 करोड़ देने की सिफारिश की जो सभी पांच दक्षिणी राज्यों को मिलाकर दी गई राशि, यानी ₹1,61,386 करोड़ से भी ज्यादा है। 

दक्षिण इसे भेदभाव के रूप में देखता है जो 2014 के पहले से भी होता रहा है। लेकिन, अब तो हालत और भी बुरी हो गई है। जबसे बीजेपी सत्ता में आई है, उसने इस असंतोष को और भड़का दिया है। वह शैक्षिक पाठ्यक्रम के साथ खिलवाड़ करके, नाम बदलने के अभियान में हिंदी को दक्षिण के गले में जबरदस्ती लटका रही है। इसका हालिया उदाहरण हैं फॉरेस्ट कन्जर्वेशन एक्ट को बदलकर वन संरक्षण एवं संवर्धन अधिनियम करने का प्रस्तावित संशोधन और राज्यपालों के साथ चुनी हुई सरकारों का टकराव। अभी तमिलनाडु के राज्यपाल ने सुझाव दिया है कि राज्य का नाम बदला जाना चाहिए। विंध्य के दक्षिण की भावनाओं, संवेदनाओं या यहां तक कि इतिहास के बारे में बहुत कम सोचा जाता है। 

लेकिन अब केतली में जो उबाल आ रहा है, वह दक्षिणी राज्यों पर अपनी मुस्लिम विरोधी, अति राष्ट्रवादी, हिन्दुत्व विचारधारा थोपने की बीजेपी की कोशिश है। वह इतिहास की अपनी अज्ञानता के कारण यह नहीं समझ पाती कि दक्षिण अल्पसंख्यकों के प्रति इस तरह की कट्टरता या मजहबी नफरत को कतई नहीं चाहता। बीजेपी कई बातों को समझने का जहमत नहीं उठाती। एक, दक्षिण में हिन्दू धर्म का इतिहास अगर उत्तर से ज्यादा नहीं तो उतना ही प्राचीन तो है ही। दो, दक्षिण का हिंदू धर्म उत्तर की तरह के भय और असुरक्षा से पीड़ित नहीं है क्योंकि मुगल अपने शासनकाल में बहुत देर से दक्षिण में आए। जब मुगल दक्षिण गए, तब तक मंदिरों को तोड़ने का उनका जुनून ठंडा पड़ चुका था और उसकी जगह व्यापार और सहयोग की कहीं अधिक परिपक्व राजनीति ने ले ली थी। तीन, भौगोलिक तौर पर देश के विभाजन की भयावहता से दक्षिण बहुत दूर था और इसलिए इसके दो प्रमुख समुदायों के पास एक दूसरे से डरने या नफरत करने की कोई वजह नहीं है। चार, यह अन्य बड़े अल्पसंख्यक, ईसाइयों के साथ सदियों से सद्भाव के साथ रह रहा है, तब से ही जब से सेंट फ्रांसिस जेवियर मई, 1542 में गोवा के तट पर उतरे थे।


इन सबके बावजूद बीजेपी सालों से दक्षिण में धार्मिक भावनाएं भड़काने की कोशिश कर रही है, और इन चुनावों से पहले उसने कर्नाटक को अपनी दक्षिणी प्रयोगशाला बना लिया था। एक कठपुतली सरकार की मदद से इसने सब कुछ आजमाया- हिजाब, हलाल, टीपू सुल्तान, मुसलमानों के लिए कोटा हटाना, बजरंगबली- लेकिन वह बुरी तरह विफल रही। हालांकि, इस प्रक्रिया में, इसने उत्तर-दक्षिण की खाई को चौड़ा कर दिया और उसने दक्षिण के मन में न सिर्फ अपने बल्कि सभी उत्तर भारतीय राजनीतिक दलों के लिए संदेह पैदा कर दिया। 

दक्षिणी राज्यों में इस तरह की धारणा भी मजबूत हो रही है कि उत्तर उनके विकास और प्रगति में बाधा की तरह काम कर रहा है और अपने फायदे के लिए सभी राष्ट्रीय संसाधनों पर कब्जा कर रहा है। इससे भी बुरी बात यह है कि जब से बीजेपी ने दिल्ली में सत्ता संभाली है, उन्हें यह भी लग रहा है कि उन्हें राजनीतिक रूप से हाशिये पर धकेला जा रहा है। उन्हें जो भ्रम सताता है, वह संशोधित जनसंख्या के आंकड़ों के आधार पर संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन है जो 2026 में होने वाला है। इसे 1971 से निलंबित रखा गया है। यह एक विवादास्पद मुद्दा है क्योंकि इसमें दक्षिणी राज्यों की सीटों के घट जाने का अनुमान है। वजह यह है कि आबादी को काबू करने में दक्षिण ने बेहतर काम किया है। 

अगर 2011 की जनगणना को परिसीमन का आधार बनाया जाता है तो चार उत्तरी राज्यों- यूपी, बिहार, एमपी और राजस्थान- को 22 सीटों का लाभ होगा जबकि चार दक्षिणी राज्यों- आंध्र प्रदेश, केरल, तमिलनाडु और तेलंगाना- को 17 सीटों का नुकसान। उत्तर के राज्य ही बीजेपी के मुख्य आधार हैं जबकि दक्षिण में वह अप्रासंगिक ही है। संभव है, बीजेपी अपनी ‘सामान्य’ दूरदर्शिता के साथ पहले से ही उसी दिशा में काम कर रही हो। नए संसद भवन में लोकसभा के 884 सदस्यों की व्यवस्था की जा रही है और दक्षिण ने इसपर भी गौर किया ही होगा। 

शुद्ध भूवैज्ञानिक संदर्भों में कहें तो प्रायद्वीपीय प्लेटें अभी बेहद तनाव और टेक्टोनिक दबाव में हैं। 2024 में बीजेपी की जीत का नतीजा ‘उपमहाद्वीपीय अलगाव’ हो सकता है। जाहिर है, बीजेपी इसके लिए माकूल माहौल बना रही है और यह हम सभी के लिए चिंता की बात है। इस रोशनी में भी हमें कर्नाटक में भाजपा की हार को देखना चाहिए।

(अभय शुक्ला रिटायर्ड आईएएस अधिकारी हैं।)

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