सिर्फ 3 साल पहले की बात है, जब चुनावी फायदे के लिए देश को झोंक दिया गया था महामारी के मुंह में
महज तीन साल पहले की बात है जब चुनावी फायदे के लिए देश को कोविड महामारी के चंगुल में डाल दिया गया था। महामारी से निपटना तो दूर, इसके शिकार मरीजों के लिए जरूरी दवाओं और उपकरणों तक का इंतजाम नहीं किया गया था। क्या देश इसे भूल सकेगा?
तीन साल पहले 15 अप्रैल 2021 को कोविड के लिए बनी नेशनल टास्क फोर्स ने तीन महीने में पहली बार बैठक की। इससे पहले इसकी बैठक 11 जनवरी को हुई थी। तब तक कोविड केसों की संख्या 2,16,000 और इससे होने वाली मौतों की संख्या 1,100 पार कर चुकी थी। दो दिन बाद यानी 17 अप्रैल 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आसनसोल में एक विशाली रैली को संबोधित किया और उन्होंने खुद ही कहा कि इसमें लाखों लोगों ने हिस्सा लिया।
उस समय देश में प्रतिदिन आने वाले कोविड केसों की संख्या 2,60,000 और मौतों का आंकड़ा 1,500 था।
इस समय तक मोदी कोविड के प्रसार की भयावहता से अनजान थे, हालांकि उनकी ही सरकार ने खासतौर से और चेतावनी देकर कोविड की दूसरी लहर आने की आशंका जताई थी। जब तक वह शाम को रैली संबोधित करने के बाद बंगाल से दिल्ली लौटे तब तक शायद टीवी चैनलों पर दिल्ली के अस्पतालों की हालत और हाहाकार देखकर ही उन्होंने कुछ कदम उठाने के बारे में सोचा। उन्होंने अगले दिन 18 अप्रैल को कुंभ में होने वाली गतिविधियों को रद्द कर दिया। तब तक प्रतिदिन केसों की संख्या 2,75,000 हो चुकी थी, लेकिन फिर भी इसके बाद को अपनी मालदा, मुर्शिदाबाद, बीरभूम और कोलकाता में अपनी रैलियां खत्म करने में तार दिन और लगे।
उन्होंने ऐलान किया कि अब रैलियां वर्चुअल होंगी (हकीकत में सिर्फ भाषण देने वाला नेता ही वर्चुअल था जो स्क्रीन पर आता था, बाकी उसे सुनने के लिए भीड़ तो वैसे ही जमा कराई जा रही थी)। तब तक प्रतिदिन केसों की संख्या 3,32,000 और मौतौं की संख्या 2200 पार कर चुकी थी। उस दिन मोदी ने अपनी रैली रद्द कर दी और एक आज्ञाकारी की तरह चुनाव आयोग ने भी सभी राजनीतिक दलों के रैलियां करने पर रोक लगा दी।
कोविड की इस दूसरी लहर के दौरान मोदी ने अपनी जान जोखिम में डालकर देश का मार्गदर्शन किया। क्रियात्मक तौर पर उनको कार्यालय यानी पीएमओ के अलावा कोई भी देश में कोविड रणनीति नहीं चला रहा था। जब मार्च और अप्रैल 2021 में दूसरी लहर की भयावहता ने प्रचंड रूप ले लिया था तो केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस महामारी के बारे में एक भी मुद्दे पर निर्णय नहीं लिया और न ही इस पर कोई चर्चा की। हालांकि इस दौरान केंद्रीय मंत्रिमंडल की पांच बार बैठक हुई, लेकिन इनमें सिर्फ बेंगलुरु की मेट्रो परियोजना के दूसरे चरण और कुछ दूसरे देशों के साथ समझौतों जैसी चीजों को ही हरी झंडी दिखाने का काम हुआ।
यहां तक कि 11 मई को हुई केंद्रीय कैबिनेट की बैठक में भी उत्तराखंड में रोप वे प्रोजेक्ट को मंजूरी देने का काम ही हुई। मंत्रियों को नहीं पता था कि मोदी की वैक्सीनेशन रणनीति क्या है या फिर कोई रणनीति है भी कि नहीं। 18 मई को नितिन गडकरी ने और भी फर्म्स को कोविड वैक्सीन बनाने का लाइसेंस दिए जाने के बारे में पूछा था। इसके बारे में अगले दिन खबर छपी थी, और इसमें कहा गया था कि इसी बारे में एक महीने पहले पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मोदी को सुझाव दिया (लेकिन इस सुझाव पर उस समय के स्वास्थ्य मंत्री हर्ष वर्धन ने बेरुखी से अहंकारपूर्ण जवाब दिया था।)
जब महामारी की विशालता अनियंत्रित होती दिखी तो मोदी किंकर्तव्यविमूढ़ नजर आने लगे। मार्च से सितंबर 2020 के सात महीनों के दौरान वे 82 बार आम लोगों के सामने आए, शारीरिक तौर पर भी और वर्चुअल तौर पर भी। अगले चार महीनों में वे 111 बार नजर आए।
फरवरी से 25 अप्रैल 2021 के बीच, उन्होंने 92 बार दर्शन दिए। 25 अप्रैल को कुंभ और बंगाल में रैलियों के बाद मोदी गायब हो गए। अगले 20 दिन पता नहीं चला, मोदी कहां हैं। आपदा और मुसीबत के समय प्रधानमंत्री नदारद थे, उस समय जब लोगों को सबसे ज्यादा सरकार की जरूरत थी।
अप्रैल और नवंबर 2020 को दो बार सरकार को चेताया गया कि ऑक्सीजन की कमी होने की आशंका है। इस बाबत हुई एक बैठक के मिनट्स में साफ तौर पर लिखा है, “आने वाले दिनों में भारत के सामने ऑक्सीजन सप्लाई का संकट आ सकता है।”
अप्रैल से पहले तक जहां मोदी ने खुद इस महामारी को गंभीरता से नहीं लिया, फिर भी उन्होंने इसे निजी तौर पर संभालने पर जोर दिया। अगर कोविड से बिगड़े हालात को नियंत्रित करने की कोई रणनीति थी भी तो वह सीधे मोदी के कार्यालय से संचालित हो रही थी, इसमें केंद्रीय मंत्रिमंडल की कोई भूमिका नहीं थी। जैसा कि इंडियन एक्सप्रेस की एक हेडलाइन में कहा गया था, ‘पीएमओ ही फैसले ले रहा था’। और यही वह तरीका था जिससे कि मोदी की पूरी सरकार संचालित होती रही है।
फरवरी के आखिरी सप्ताह में शुरू हुई लहर को न सिर्फ रफ्तार पकड़ने दिया गया बल्कि इसे और तेजी से फैलने की एक तरह से जुगत भी लगा दी गई। मार्च के चार सप्ताह से लेकर अप्रैल के तीन सप्ताह तक, भारत में विशाल सभाएं आयोजित की गईं जो सीधे तौर पर या तो बीजेपी ने या फिर उसके लिए की गई थीं। इसका नतीजा देश की स्वास्थ्य व्यवस्था को भुगतना पड़ा, जो पहले से ही बेहद नाजुक हालत में थी, और गरीबों के लिए तो कभी उपलब्ध ही नहीं थी। इसी दौरान महामारी से निपटने का दूसरा पहलू भी सामने आया, और वह था आकस्मिक लहर के प्रभावों का अनुमान लगाने में नाकामी और चिकित्सा उपकरण उपलब्ध कराने के लिए जरूरी तैयारी में कमी।
पहली मार्च और 30 अप्रैल के बीच के 8 सप्ताह के दौरान भारत में प्रतिदिन केसों की संख्या 40 गुना बढ़ी जो 11,000 से बढ़कर 400,000 पहुंच गई। दुनिया का कोई भी हेल्थकेयर सिस्टम इतनी बड़ी संख्या में रोगी विस्फोट को बोझ नहीं सह सकता। आबादी और लोगों को बचाने का एक ही तरीका हो सकता है कि इससे बचने और बीमारी से लड़ने के लिए जरूरी वस्तुओं और दवाओँ का भंडार किया जाए, भले ही उनकी जरूरत अभी न हो, लेकिन उनका उत्पादन कर उन्हें आने वाले वक्त के लिए अलग रख दिया जाए। लेकिन भारत ने ऐसा नहीं किया।
अप्रैल 2020 में सरकार ने फैसला किया कि वह मेक इन इंडिया के तहत निर्मित 50,000 वेंटिलेटर खरीदेगी, लेकिन सिर्फ 35,000 हजार हासिल कर सकी, क्योंकि उसे तब तक लगने लगा था कि महामारी तो वापस जा चुकी है। हालांकि मारुति जैसे कार्पोरेट ने कहा कि उन्होंने वेंटिलेटर बनाए हैं, लेकिन सरकार ने उन्हें नहीं खरीदा।
21 फरवरी 2021 को कोविड की दूसरी लहर से दो महीने पहले ही बीजेपी ने एक प्रस्ताव पारित किया। इसमें लिखा था, “यह बात गर्व से कही जा सकती है कि भारत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्पित, संवेदनशील, सक्षम और दूरदृष्टि वाले नेतृत्व में न सिर्फ कोविड को हरा दिया है, बल्कि सभी नागरिकों में आत्मनिर्भर भारत का एक भरोसा भर दिया है।” पार्टी स्पष्ट रूप से कोविड के खिलाफ लड़ाई में भारत को एक गौरवान्वित और विजयी राष्ट्र के रूप में दुनिया के सामने पेश करने के लिए अपने नेतृत्व की सराहना करती है।''
लेकिन जब श्मशानों में लाशों के ढेर लगने शुरु हो गए, तो इस सबका कोई जिक्र नहीं किया गया। इस सबसे दावों और जमुलों पर कोई असर नहीं पड़ा। लेकिन यह सबकुछ 1526 का इतिहास नहीं है, यह हमारे साथ सिर्फ तीन साल पहले हुआ था और इसे नहीं भूलना चाहिए।
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