अंग्रेजी हुकूमत को हिलाकर रख देने वाले ‘जतिन दा’ सिर्फ स्वतंत्रता सेनानी नहीं, मानवाधिकार कार्यकर्ता भी थे

भारत ही नहीं विश्व में भी ऐसे बहुत कम उदाहरण होंगे जहां केवल 25 साल की अल्पायु में किसी व्यक्ति ने राजनीतिक बंदियों की हालत सुधारने के लिए इतना काम किया हो और उसका व्यापक असर भी हुआ हो। अतः जतिन दास की इस उपलब्धि को विश्व स्तर पर अधिक मान्यता मिलनी चाहिए।

फोटोः सोशल मीडिया
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भारत डोगरा

आज से 90 साल पूर्व 13 सितंबर 1929 को यतीन्द्र नाथ दास ने 63 दिन के उपवास के बाद लाहौर जेल में शहादत प्राप्त की थी। उन्होंने यह उपवास शहीद भगत सिंह और उनके साथ के राजनीतिक कैदियों के साथ होने वाले अन्याय के विरुद्ध किया था।

यतीन्द्र दास के अंतिम संस्कार के लिए उनके पार्थिव शरीर को लाहौर से कलकत्ता ले जाना था। यतीन्द्र दास की लाहौर से कलकत्ता तक अंतिम यात्रा में उमड़े जन-सैलाब से पता चला कि उस दौरान क्रान्तिकारियों के प्रति जनभावनाएं देश में किस कदर उमड़ रही थीं। दिल्ली में लाखों लोग शहीद के अंतिम दर्शन के लिए एकत्र हुए। कानपुर में गाड़ी रात को पंहुची तो वहां जवाहरलाल नेहरू और गणेशशंकर विद्यार्थी के नेत्तृत्व में लाखों लोग श्रद्धांजलि देने के लिए इंतजार कर रहे थे। इलाहाबाद में कमला नेहरु के नेतृत्व में ऐसे ही जनता की लहर उमड़ पड़ी।

कलकत्ता की अंतिम यात्रा में सुभाष चंद्र बोस, श्रीमती वासंती दास और प्रामिला देवी (बटुकेश्वर दत्त की बहन) की प्रेरणादायक उपस्थिति में 7 लाख लोग यतीन्द्र दास की अंतिम यात्रा में भावभीनी श्रद्धांजलि देने के लिए एकत्र हुए। श्रद्धांजलि देने वालों की संख्या इतनी अधिक थी कि कई मीलों तक लोगों को देखा जा सकता था। इसके अतिरिक्त अनेक अन्य स्थानों पर भी श्रद्धांजलि सभाओं का आयोजन हुआ। देश भर के करोड़ों लोगों ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की।

देश के अनेक भागों में यतीन्द्र नाथ दास की याद में विभिन्न तरह के कार्यक्रम आयोजित होते रहे। वे करोड़ों भारतवासियों के लिए इस बात का प्रतीक बन गए थे कि किसी ऊंचे आदर्श के लिए बड़े से बड़े अत्याचार हंसते हुए सहन किए जा सकते हैं। इस 63 दिनों के उपवास के दौरान यतीन्द्र नाथ को जेल कर्मचारियों और पुलिस के बहुत अत्याचार सहने पड़े। यहां तक कि उन्हें जबरदस्ती कुछ भोजन या द्रव्य देने के लिए इतना जोर लगाया गया कि इससे उनके फेफड़ों को भी क्षति पंहुची।


शहादत के समय यतीन्द्र नाथ दास की आयु केवल 25 वर्ष की थी। यतीन्द्र दास बहुत कम उम्र में ही क्रान्तिकारियों के साथ जुड़ गए थे, पर इसके बावजूद उन्होंने महात्मा गांधी के नेतृत्व वाले असहयोग आंदोलन में भी बहुत उत्साह से योगदान दिया। उस समय उनकी आयु मात्र 17 वर्ष की थी।

यतीन्द्र दास एक ऊंची उपलब्धियों वाले छात्र रहे। जिस समय वे बीए की पढ़ाई कर रहे थे उस समय पुलिस ने उन्हें पकड़ कर मैमनसिंह जेल में भेज दिया। वहां भी राजनीतिक बंदियों से सही व्यवहार के लिए उन्होंने अनशन किया। उनका यह प्रयास इतना असरदार रहा कि जेल सुपरिटेंडेंट ने उनसे माफी मांगी और राजनीतिक बंदियों से व्यवहार में सुधार किए।

इस तरह मात्र 25 वर्ष की आयु में शहादत प्राप्त करने वाले इस युवा क्रान्तिकारी ने दो बार राजनीतिक बंदियों को न्याय के लिए इतने बड़े प्रयास किए जिनका बहुत व्यापक असर हुआ। इस तरह एक अमर बलिदानी स्वतंत्रता सेनानी के साथ यतीन्द्र नाथ दास एक महान मानवाधिकार कार्यकर्ता रहे हैं।

केवल भारत ही नहीं विश्व के इतिहास में ऐसे बहुत कम उदाहरण मिलेंगे जहां केवल 25 वर्ष की अल्पायु से पहले किसी व्यक्ति ने राजनीतिक कैदियों की स्थिति सुधारने के लिए इतना कार्य किया हो। और उसका इतना व्यापक असर भी हुआ हो। अतः विश्व स्तर पर यतीन्द्र नाथ दास की इस उपलब्धि को अधिक मान्यता मिलनी चाहिए। अभी तो यह स्थिति है कि भारत से बाहर यतीन्द्र नाथ दास की इस उपलब्धि की जानकारी बहुत कम है, और यहां तक कि भारत में भी इस महान उपलब्धि को अब धीरे-धीरे भुलाया जा रहा है।

आज जब विश्व के अनेक देशों में राजनीतिक बंदियों के साथ घोर अन्याय हो रहा है, यतीन्द्र नाथ दास के बलिदान और कार्यों को याद करना और भी जरूरी होे जाता है। अगर भविष्य में उनके शहादत दिवस को राजनीतिक बंदी न्याय दिवस के रूप में विश्व स्तर पर मनाया जाए तो यह उन्हें और उनके सरोकारों को याद करने का एक बहुत सार्थक मार्ग होगा।

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