अगर अर्थव्यवस्था का बंद पड़ा इंजन स्टार्ट नहीं हुआ तो और कस सकता है फासीवादी शिकंजा
बड़े कॉरपोरेट घरानों का मोदी सरकार की नीतियों पर कितना भरोसा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इन्होंने अर्थव्यवस्था में निवेश करने की जगह जीडीपी के 2 फीसदी के बराबर पैसे को दबाकर बैठ जाना बेहतर समझा।
भारत में महामारी आने से पहले ही सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी ने गोते लगाना शुरू कर दिया था। सरकार ने काफी देर से बुनियादी क्षेत्र पर सरकारी निवेश को बढ़ाकर इसकी गिरावट को थामने की कोशिश की लेकिन व्यवहार में इसका कोई फायदा नहीं हुआ। ‘मेक इन इंडिया’, ‘आत्मनिर्भर भारत’ जैसे तमाम स्लोगन उछाले गए लेकिन सब बेकार। अर्थव्यवस्था में निजी निवेश बढ़ा ही नहीं।
नरेंद्र मोदी सरकार ने स्वास्थ्य और शिक्षा-जैसे क्षेत्रों में सरकारी निवेश बढ़ाने पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया और इसकी जगह उसने बुनियादी क्षेत्र में निवेश को बढ़ा दिया। यह ध्यान रखना चाहिए कि बुनियादी क्षेत्र में रिटर्न आने में वक्त लगता है। फिर भी, अगर सरकार ने परिसंपत्तियों का निजीकरण कर नई परियोजनाओं में निवेश किया होता तो शायद ज्यादा उम्मीद की जा सकती थी। विकास दर के लगातार गिरते जाने का नतीजा हुआ है कि जीडीपी के प्रतिशत के तौर पर सरकारी कर्ज बढ़ता गया है और इन स्थितियों में सरकार के सामने बहुत विकल्प नहीं रह गया। पैसा वहां लगाया जाना चाहिए था जिससे अर्थव्यवस्था को तत्काल गति मिलती। 2018, खास तौर पर महामारी के बाद सरकारी कर्ज में बेतहाशा वृद्धि हुई है और जीडीपी के प्रतिशत के तौर पर इसके अभी 90 फीसदी के आसपास होने का अनुमान है।
फिर भी बढ़ा रहे टैक्स
महामारी के कारण अर्थव्यवस्था पर मुख्यतः दो तरह का असर हुआ। एक, मोदी ने जिस तरह बिना सोचे-समझे अचानक लॉकडाउन लगा दिया, उससे बड़ी संख्या में लोगों का काम-धंधा छूट गया और यह कितना घातक साबित हुआ, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि केवल एक तिमाही में ही जीडीपी में 28 फीसदी की गिरावट आ गई। तब जिन लोगों के काम-धंधे छूट गए, उनमें से बड़ी संख्या में लोग आज भी मारे-मारे फिर रहे हैं। दूसरा, लोगों के काम-धंधे छूट जाने से पहले ही सुस्त चल रही मांग और पस्त पड़ गई।
प्रधानमंत्री मोदी मध्य और निम्न वर्गों पर अप्रत्यक्ष कर के जरिये कमाई की नीति पर चल रहे हैं। उपभोक्ता सामान पर आयात शुल्क और पेट्रोलियम पदार्थों पर उत्पाद शुल्क ऐसे ही कदम हैं जिनका असर आम लोगों पर पड़ता है जबकि इस तरह मिले पैसे से कॉरपोरेट को कर छूट दिया गया। इस तरह के अप्रत्यक्ष करों से मिलने वाली राशि कोई कम नहीं। एक अनुमान के मुताबिक, पेट्रोलियम पदार्थों पर करों से करीब 2 खरब रुपये, यानी जीडीपी के 1 फीसदी के बराबर पैसे मिले। मेरा अनुमान है कि 2014 के बाद से उपभोक्ताओं पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तरीके से जीडीपी के 2 फीसदी के बराबर कर लगाया गया और इसे कर में छूट या सब्सिडी के जरिये कॉरपोरेट सेक्टर को दे दिया गया। दिक्कत की बात यह है कि जीडीपी के 2 फीसदी के बराबर की जो राशि आम लोगों से वसूलकर कॉरपोरेट क्षेत्र को दे दी गई, अगर यही पैसा निजी निवेश के तौर पर अर्थव्यवस्था में खर्च किया गया होता तो न तो जीडीपी विकास दर कीहालत ऐसी होती और न सरकार को उधार लेकर विकास दर बढ़ाने की कोशिश करनी पड़ती।
बड़े कॉरपोरेट घरानों का मोदी सरकार की नीतियों पर कितना भरोसा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इन्होंने अर्थव्यवस्था में निवेश करने की जगह जीडीपी के 2 फीसदी के बराबर पैसे को दबाकर बैठ जाना बेहतर समझा। और इस तरह मध्यवर्ग को तकलीफ देकर इकट्ठा की गई इस धनराशि से अर्थव्यवस्था को कोई फायदा नहीं हुआ। शायद इसका फायदा मोदी को भी नहीं हुआ, अगर इलेक्टोरल बॉण्ड के रूप में कुछ राशि वापस पार्टी फंड में न आ गई हो तो।
रोजगार के मामले में तो हालात बदतर हैं। अभी तो महामारी का वक्त है लेकिन उससे पहले के समय में जाकर स्थितियों को देखना चाहिए। रोजगार दर तो 2012 से ही गिर रही थी और 2014 के बाद से इसमें और तेजी आ गई। रोजगार दर संगठित क्षेत्र की गंभीर हालत की ओर इशारा करती है। लेकिन असली मुसीबत तो असंगठित क्षेत्र की है जिसके बारे में कोई आंकड़ा ही नहीं होता। हमें इसका तो अंदाजा है कि 2014 के बाद से संगठित क्षेत्र में 60 लाख नौकरी जाती रही और इसके अलावा महामारी के कारण 20 लाख और नौकरियां भी गईं। असंगठित क्षेत्र से तो कितनों का काम-धंधा छूटा, इसका कोई अंदाजा ही नहीं।
ऐसा ही एक संकेतक है श्रम भागीदारी दर। इससे पता चलता है कि अर्थव्यवस्था में श्रम भागीदारी कितनी है। ज्यादा होगी तो अर्थव्यवस्था की गति तेज होगी, कम होगी तो सुस्त होगी। 2012 में श्रम भागीदारी दर 53 फीसदी थी जबकि 2018 में 49.8 फीसदी। यह बात है महामारी के पहले की। उसके बाद इसमें कितनी गिरावट हुई होगी, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। महिलाओं के मामले में यह सबसे निराशाजनक रहा। जो महिलाएं श्रम बाजार से हट गईं, उनमें से ज्यादातर लौटकर नहीं आ सकीं।
इन सबके अलावा निर्यात भी एक ऐसा विषय है जो मोदी सरकार की नीतियों की पोल-पट्टी खोल देता है। सत्ता में आने के बाद नरेंद्र मोदी ने मेक इन इंडिया, आत्मनिर्भर भारत-जैसे तमाम कार्यक्रम शुरू किए। इसके मूल में आयात पर निर्भरता को कम करके निर्यात बढ़ाना था। लेकिन इसके बावजूद कुछ नहीं हो सका। पिछले सात साल के मोदी शासन के दौरान देश का निर्यात लगभग सपाट ही रहा। यह अपने आप में सोचने की बात है कि ऐसे समय जब अर्थव्यवस्था की कमर टूटी हुई है, सरकार पस्त है, उपभोक्ता बाजार से मुंह फेरे खड़ा है और निर्यात वृद्धि शून्य है तो भला कौन-सा प्रोत्साहन पैकेज काम करेगा? अब अर्थव्यवस्था की गति बढ़ाने का वक्त खत्म हो गया। अब तो मुद्दा यह है कि अर्थव्यवस्था के बंद पड़े इंजन को स्टार्ट कैसे किया जाए। अगर यह इंजन शुरू नहीं हुआ तो हमारा हाल भी लातिन अमेरिकी देशों-जैसा होगा और तब फासीवादी नीतियां और भी मजबूती से हमारे चारों ओर घेरा बनाएंगी।
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