केवल तालिबान ही महिला शिक्षा पर प्रतिबंध नहीं लगाता, दुनियाभर में कट्टरवादी संगठन और सरकारें सक्रिय हैं
दुनियाभर में कट्टरवादी संगठन और सरकारें शिक्षा में लैंगिक असमानता बढ़ाने के लिए समन्वित तौर पर और भारी-भरकम निवेश के साथ सक्रिय हैं। इसके लिए पाठ्यक्रम बदले जा रहे हैं, शिक्षा से संबंधित कानूनों और नीतियों को बदल जा रहा है।
वैश्विक स्तर पर कट्टरवादी धार्मिक संगठन, आतंकवादी संगठन और धार्मिक उन्माद में डूबी कुछ सरकारें हरेक वर्ष अरबों रुपये उन संगठनों को चंदे में दे रही हैं जो शिक्षा और पाठ्यक्रम में ऐसे बदलाव ला रहे हैं या इसकी पुरजोर वकालत कर रहे हैं कि बालिकाएं सशक्तीकरण की तरफ नहीं बढ़ें, और शिक्षा में लैंगिक समानता का सपना ध्वस्त हो सके। ओडीआई और अलाइन नामक दो संगठनों द्वारा संयुक्त तौर पर प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार बालिकाओं की शिक्षा के संदर्भ में तालिबान कुख्यात तरीके से बदनाम है, पर इस संदर्भ में तालिबानी सोच उन देशों में भी काम कर रही है जो महिला शिक्षा नकारने के लिए तालिबान को कोस रहे हैं।
दुनियाभर में कट्टरवादी संगठन और सरकारें शिक्षा में लैंगिक असमानता बढ़ाने के लिए समन्वित तौर पर और भारी-भरकम निवेश के साथ सक्रिय हैं। इसके लिए पाठ्यक्रम बदले जा रहे हैं, शिक्षा से संबंधित कानूनों और नीतियों को बदल जा रहा है। भारत में तो मोदी सरकार ने बड़े प्रचार के साथ पूरी शिक्षा नीति में बदलाव कर पितृसत्तात्मक सोच और महिलाओं के प्रति रूढ़िवादी सोच को खूब बढ़ावा दिया है। शिक्षा नीति से परे भी आरएसएस और बीजेपी के बड़े नेता लगातार महिलाओं के पहनावे, खानपान पर वाहियात टिप्पणियों के साथ ही उन्हें घर-परिवार के अंदर ही सिमटे रहने की सलाह देते हैं।
पूरी दुनिया से पाठ्यपुस्तकों से यौन शिक्षा को हटाया जा रहा है, बालिकाओं को शिक्षा लेने से रोका जा रहा है, पितृसत्तात्मक सोच को बढ़ाया जा रहा है, स्त्री और पुरुषों को उनकी परंपरागत भूमिकाओं में बताया जा रहा है, लैंगिक भेदभाव वाली भाषा को बढ़ावा दिया जा रहा है। रिपोर्ट के अनुसार लैंगिक समानता में सबसे बड़ी भूमिका शिक्षा की है और इससे ही भविष्य सुधारता है, पर शिक्षा व्यवस्था को लैंगिक असमानता के स्तर पर लाने की मुहिम एक खतरनाक भविष्य की ओर इशारा करती है।
रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2013 से 2017 के बीच वैश्विक स्तर पर लैंगिक समानता के कट्टर विरोधी संस्थानों को कम से कम 3.7 अरब डॉलर की सीधी आर्थिक सहायता की गई, जिसमें रूस, ब्रिटेन, अमेरिका, जर्मनी और इटली जैसे देशों के अरबपति और कट्टरपंथी शामिल हैं। अमेरिका के कट्टर क्रिश्चियन संस्थाओं द्वारा अफ्रीकी देशों के पाठ्यक्रमों से यौन शिक्षा को समाप्त करने के लिए 2007 से 2020 के बीच लगभग 6 करोड़ डॉलर की मदद दी गई। पाकिस्तान में इसी काम के लिए सऊदी अरब से सीधी मदद की जाती है। इन दिनों दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील और फ़िलिपींस के पाठ्यपुस्तकों से यौन शिक्षा हटाए जाने की मुहिम चलाई जा रही है।
दूसरी तरफ यूएन वुमन की एक रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं को पर्याप्त शिक्षा नहीं मिल पाने के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था को प्रति वर्ष 10 खरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ रहा है और गरीब और मध्यम आय वर्ग के देशों में इंटरनेट उपयोग में लैंगिक असमानता के कारण पिछले 5 वर्षों में 500 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा है। लैंगिक असमानता से संबंधित इस रिपोर्ट के अनुसार यदि महिला किसानों को पर्याप्त सहायता दी जाए तो वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में 1 खरब डॉलर की वृद्धि दर्ज की जा सकती है। बाल विवाह रोकने के वर्तमान नीतियों का आलम यह है कि यह रोक वर्ष 2092 से पहले नहीं लग सकती। खाद्य सुरक्षा के अभाव से पुरुषों की तुलना में 5 करोड़ अधिक महिलाएं जूझ रही हैं, पर जलवायु परिवर्तन की मार से यह दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण पुरुषों की तुलना में 16 करोड़ अधिक महिलाएं गरीबी का दंश झेलेंगी। महिलाओं में अत्यधिक गरीबी खत्म करने में दुनिया को 137 वर्ष लगेंगे।
मेलिंडा गेट्स ने हाल में ही कहा है कि दुनिया भर में महिलाओं के स्वास्थ्य की उपेक्षा की जा रही है। हरेक दिन औसतन 700 महिलाओं की मृत्यु प्रसव के दौरान हो जाती है, यानि हरेक दो मिनट से भी कम समय में एक महिला की मृत्यु दुनिया में कहीं न कहीं होती है। गर्भपात पर अमेरिका समेत अनेक देशों में प्रतिबंध लगाने के बाद अवैध और असुरक्षित गर्भपात के दौरान भी महिलाओं की मृत्यु का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। दुनिया में 1 अरब से अधिक प्रजनन आयु-वर्ग की महिलाएं कुपोषण की त्रासदी झेल रही हैं। अब सवाल यह नहीं है कि चिकित्सा के क्षेत्र में महिलाओं के स्वास्थ्य से संबंधित तरक्की नहीं हुई है, बल्कि सवाल यह है कि केवल विकासशील देश की ही नहीं बल्कि लैंगिक समानता का पाठ पढ़ाने वाले औद्योगिक देश भी महिलाओं के स्वास्थ्य के प्रति लापरवाह क्यों हैं?
लेंसेट पब्लिक हेल्थ जर्नल में मार्च 2024 में प्रकाशित एक विस्तृत अध्ययन में बताया गया था कि वैश्विक स्तर पर महिलाओं की उम्र पुरुषों की तुलना में अधिक है, पर महिलाएं अपने जीवन का अधिक समय बीमारी में व्यतीत करती हैं। असामयिक मृत्यु दर पुरुषों में अधिक है, पर सामान्य बीमारियों को महिलाएं अधिक समय तक झेलती हैं।
हमारे देश में महिलाओं की स्थिति का आकलन वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम द्वारा प्रकाशित जेन्डर गैप रिपोर्ट 2024 से किया जा सकता है, जिसमें कुल 146 देशों की सूची में भारत 129 वें स्थान पर है। मोदी सरकार के तमाम दावों के बाद भी महिलाएं हरेक क्षेत्र में लगातार पिछड़ती जा रही हैं। नई शिक्षा नीति में धार्मिक ज्ञान को बढ़ावा देकर वैसे भी सरकार पितृसत्तात्मक सोच को बढ़ावा देने का काम कर रही है। इस देश में महिलाओं की हत्या, बलात्कार, अपमान करने वालों का स्वागत केवल धार्मिक संगठन ही नहीं बल्कि सत्ता भी खुलेआम करने लगी है।
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