वोटर आईडी को आधार से जोड़ना ज़रूरी नहीं, फिर भी इसे अनिवार्य बताने-बनाने का अभियान क्यों?

वोटर आईडी को आधार से लिंक कराना स्वैच्छिक है। इसके अलावा दोनों को जोड़ने में तमाम मुश्किलें भी आ रही है, फिर भी चुनाव आयोग इसे अंजाम तक पहुंचाने पर आमादा है। आखिर क्यो?

फोटो : सोशल मीडिया
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चुनाव आयोग ने वोटर आईडी को ‘आधार’ से जोड़ने का काम कथित तौर पर शुरू कर दिया है। इसका कारण बताया जा रहा है मतदाता सूची से ‘डुप्लीकेट’ वोटरों के नाम हटाना। निर्वाचन कानून (संशोधन) अधिनियम, 2021 में वोटर आईडी को आधार से जोड़ने का प्रावधान ‘स्वैच्छिक’ है, संभवतः यह मतदाताओं के हित में न हो। इन्हें जोड़ने का काम जिस तरह किया जा रहा है, उसमें स्वैच्छिक जैसा कुछ भी नही दिखता। इस कानून को वैसे भी अदालत में चुनौती दी गई है।

भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) ने आधार की पूरी व्यवस्था की कड़ी आलोचना की है और उन्होंने इसमें गड़बडियों की एक लंबी फेहरिस्त तैयार की है। 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने भी चुनाव आयोग के इस तरह के पायलट प्रोजेक्ट पर रोक लगा दी थी। 2018 में आधार को मतदाता सूची से जोड़ने का प्रयास किया गया तो इसका नतीजा यह हुआ कि 55 लाख लोग वोट देने के अधिकार से ही वंचित हो गए क्योंकि उनके नाम मतदाता सूची से हट गए थे। वैसी हालत में सरकार को वह फैसला वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा।

कई मामलों में बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण भी कामयाब नहीं हो पाता क्योंकि कई बार देखा जाता है कि एक ही व्यक्ति की उंगलियों के निशान आपस में मेल नहीं खाते। उदाहरण के लिए, मेहनत-मजदूरी करने वालों की बात करें। ऐसे लोगों के मामले में यह समस्या खास तौर पर देखी गई जिसका नतीजा यह होता है कि उनका तरह-तरह से उत्पीड़न होता है और वे सामाजिक कल्याण की योजनाओं का भी लाभ उठाने से चूक जाते हैं। दूरदराज के इलाकों के मतदान केन्द्रों में अक्सर बिजली नहीं होती है या फिर इंटरनेट कनेक्टिविटी घटिया होती है। सोचने वाली बात है कि ऐसे में मतदाता क्या करेंगे?

इन व्यावहारिक दिक्कतों के अलावा एक और बुनियादी समस्या है। आधार निवास का प्रमाण है जबकि मतदाता पहचान पत्र व्यावहारिक रूप से नागरिकता का प्रमाण है- दोनों को जोड़ा नहीं जा सकता। चुनावों में मूल मुद्दा यह है कि सभी नागरिकों को मतदान करने में सक्षम होना चाहिए। लेकिन यह जानी हुई बात है कि कई लोग मतदाता सूची में अपना नाम दर्ज नहीं करा पाते जबकि मतदाता सूची में तमाम नाम फर्जी हैं या फिर ऐसे लोगों के जिनकी मृत्यु हो चुकी है। ऐसे भी मामले कम नहीं जिनमें एक ही व्यक्ति का नाम दो अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों की मतदाता सूची में हो। एक के बाद एक, तमाम अध्ययनों के बाद मतदाता सूची में इस तरह की गड़बड़ियों की बात सामने आई है। इन विसंगतियों को ठीक करने की प्रक्रिया लगातार चलने वाली है, फिर भी त्रुटियां बनी रहती हैं।


मतदाता सूची में ‘सुधार’ का यह काम राजनीति से प्रेरित या प्रशासनिक सुविधा के लिए भी हो सकता है और यह मतदाताओं के भले में नहीं होता। इसे तो किसी हालत में सही नहीं करार दिया जा सकता कि एक ओर तो फर्जी नामों को पाए जाने के मामले को खूब प्रचारित किया जाए और असली मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से बाहर रह जाने को नजरअंदाज कर दिया जाए। यह लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं।

बात आधार के साथ बायोमेट्रिक पहचान संबंधी दिक्कत की ही नहीं। इसके अलावा भी कई ऐसी समस्याएं हैं जिनकी वजह से एक ही व्यक्ति की जानकारी मेल नहीं खाती। अगर नाम की स्पेलिंग अलग-अलग हो, अगर पता लिखने-लिखाने में कोई मामूली-सा भी अंतर रह गया हो। जिस तरह बड़ी संख्या में लोग आधार में दी गई अपनी जानकारी को सुधारने की कोशिश कर रहे हैं, उससे साफ है कि मतदाता सूची की तुलना में आधार डेटाबेस में ज्यादा गड़बड़ियां हैं। जाहिर है, आधार का उपयोग करके मतदाता सूची की गलतियों को ठीक नहीं किया जा सकता। आधार को वोटर आईडी या मतदाता सूची से जोड़ने का मतलब यह भी होगा कि अगर किसी कारण से पोलिंग बूथ पर आपका आधार प्रमाणीकरण नहीं हो सका तो आप वोट नहीं दे पाएंगे और इस मामले में अपील भी नहीं हो सकेगी क्योंकि वोटिंग तो उसी दिन खत्म हो जाएगी। हमें यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि मतदान करना हर भारतीय नागरिक का संवैधानिक अधिकार है जिसे केवल असाधारण परिस्थितियों में ही प्रतिबंधित किया जा सकता है।

दूसरे देश इतने बड़े डेटाबेस को इस तरह नहीं जोड़ते। लोगों की निजता सुनिश्चित करने के क्षेत्र मे काम करने वाले ऐक्टिविस्टों का कहना है कि इन दोनों डेटा को अलग ही रखा जाना चाहिए और उन्होंने इसके लिए बड़ी ही वाजिब वजहें गिनाई हैं। सोचने वाली बात है कि फिर हम ऐसा करने की कोशिश क्यों कर रहे हैं? यह भी याद रखना चाहिए कि भारत में अब भी व्यक्तिगत डेटा संरक्षण कानून नहीं है। स्थिति यह है कि सरकार ने हाल ही में व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक को वापस ले लिया है। इसका नतीजा यह है कि एक ओर तो सुप्रीम कोर्ट ने निजता से समझौते की स्थिति के लिए सख्त मानदंड निर्धारित कर रखे हैं लेकिन विधायिका के रुख के कारण यह मामला अधर में है।


लोकतंत्र में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जो नागरिकों पर यकीन करे, वर्ना तो चुनाव पर भरोसा ही नहीं किया जा सकता। मतदाता सूची की पवित्रता के लिए वास्तविक खतरा नागरिकों से नहीं बल्कि राजनीतिक दलों से है जिन्होंने पहले इस संबंध में अपनी कुटिलता के पर्याप्त सबूत पेश किए हैं। यही है असली दिक्कत जिसे दूर करने की जरूरत है। भारत में करोड़ों प्रवासी कामगार हैं। कोशिश तो यह करनी चाहिए कि यह आबादी भी वोट कर सके। लेकिन इन वास्तविक समस्याओं के समाधान के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति कहां है?

(त्रिलोचन शास्त्री आईआईएम, बेंग्लुरु में प्रोफेसर और एसोसिएशन फॉर डिमॉक्रेटिक रिफॉर्म्स के संस्थापक अध्यक्ष हैं)

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