लॉकडाउन से कोरोना हारेगा, यह नहीं पता, पर गरीब की दुश्वारियों के साथ आर्थिक स्लोडाउन होना तो तय है
कोरोना वायरस के कारण मनुष्यों का बड़ा नुकसान हुआ है और इसने दिखा दिया कि मानव प्रजाति कितनी कमजोर है कि एक से एक उन्नत तकनीकों और तरह-तरह के भौतिक सुख जुटाने वाले सबसे ताकतवर और सुविधा संपन्न देश भी एक अति सूक्ष्म वायरस के डर से थर-थर कांप रहे हैं।
वास्तविक खतरा तो खुद मनुष्य है। वही सबसे बड़ा खतरा है। सभी विपदाओं की जड़ हम ही हैं। लेकिन दुःख की बात है कि हम इससे अनजान हैं। हम मनुष्य के बारे में कुछ भी नहीं जानते, अगर जानते भी हैं तो बहुत कम। उसके मनोविज्ञान को समझना चाहिए। हमें मनुष्य की प्रकृति को कहीं अधिक जानने की जरूरत है।”- कार्ल गुस्ताव जंग, स्विस मनोविश्लेषक, 1959 में दिए एक इंटरव्यू में।
लॉकडाउन है तो स्लोडाउन होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च को रात आठ बजे 21 दिन के देशव्यापी लॉकडाउन का ऐलान किया और यह मध्यरात्रि से लागू हो गया। इसने हमारे जीवन की रफ्तार को तो घटा ही दिया है, यह निश्चित तौर पर देश की अर्थव्यवस्था की गति को भी लंबे समय के लिए सुस्त कर देने वाला है। यह सब नोवल कोरोना वायरस के कारण हुआ। इस महामारी ने अचानक बड़े ही खतरनाक तरीके से दुनिया के ज्यादातर हिस्से को अपनी गिरफ्त में ले लिया है और भारत में इसे फैलने से रोकने के लिए यह कदम उठाया गया। लेकिन यह अत्यधिक कठोर है।
आने वाले समय में ही यह पता चल पाएगा कि यह कदम कितना कारगर रहा। वैसे, इस अभतूपूर्व लॉकडाउन के कारण समाज के गरीबों और वंचितों को तमाम दुश्वारियों का सामना करना पड़ेगा, इसमें कोई संदेह नहीं। जिस रोग और उसके उपचार के बारे में हम ज्यादा-कुछ नहीं जानते हों और दुनिया की बेहतरीन हेल्थकेयर सुविधाओं वाले देशों में भी कोविड-19 से संक्रमित लोगों की बड़ी तादाद में मौत हो रही हो, भारत और दुनिया के बाकी देश एकता, एकजुटता, सहयोग और दुआ का ही भरोसा कर सकते हैं।
जो भी हो, हर बुरी घटना का कोई न कोई सकारात्मक पहलू भी होता है और आज की स्थिति का सकारात्मक पक्ष यह है कि लंबे समय तक जीवन की रफ्तार के सुस्त पड़ जाने के कारण हम अपने-अपने घरों तक सीमित हैं और इसने हमें अपने और दुनिया से जुड़े कहीं गूढ़ सवालों पर चिंतन-मनन करने को प्रेरित किया है। “सामान्य” जीवन की आपाधापी जो वास्तव में बेहद असामान्य है, के बीच जब भी हम सोच-विचार करते हैं तो इस बात का अहसास होता है कि हम मनुष्य जीवन के अस्तित्व के अर्थ और उद्देश्य के बारे में शायद ही गौर करते हैं।
शायद ही कभी खुद से पूछते हैं कि शोर-शराबे और अशांति से भरी यह दुनिया आखिर ऐसी क्यों है? मनुष्य हर समय इतनी हड़बड़ी में क्यों रहता है? वह आखिर जा किधर रहा है? क्या वह खुद से भाग रहा है, क्योंकि वह न तो अपनी अंतरात्मा की आवाज को सुन पा रहा है और न ही अपने रचयिता की? आखिर उसका चित्त शांत क्यों नहीं? और फिर कोविड-19 ने दिखाया कि मानव प्रजाति कितनी कमजोर है कि एक से एक उन्नत तकनीकों और तरह-तरह के भौतिक सुख जुटाने वाले सबसे ताकतवर और सुविधा संपन्न देश भी एक अति सूक्ष्म वायरस के डर से थर-थर कांप रहे हैं?
केवल स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था का संकट नहीं
यह अब दुनिया के ज्यादातर विचारशील लोगों को समझ में आने लगा है कि यह नई वैश्विक महामारी केवल एक स्वास्थ्य संकट और इससे जुड़ा आर्थिक संकट भर नहीं है, बल्कि हमारी आधुनिक, भौतिकवादी सभ्यता को प्रभावित करने वाला कहीं गहरा और व्यापक संकट है। संस्कृतियों, धार्मिक मान्यताओं, आर्थिक प्रणालियों, राजनीतिक विचारधाराओं और शासन संरचनाओं में तमाम भिन्नताओं के बावजूद, दुनिया भर के देशों और समुदायों में एक बात आम है, और वह है पृथ्वी के समस्त मनुष्यों की सुरक्षा और भलाई के संदर्भ में उदासीनता जो निश्चित ही निंदनीय है।
इसे हम दूसरे शब्दों में ऐसे अभिव्यक्त कर सकते हैं- हम आज वैश्विक विमर्श के केंद्र में रहने वाले ‘सतत विकास’ के सही रास्ते का भी पता नहीं लगा सके। संयुक्त राष्ट्र का सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) कितना भी महत्वपूर्ण क्यों न हो, यह बात सर्वथा स्पष्ट है कि केवल भौतिक जरूरतों को पूरा करना ही किसी व्यक्ति या राष्ट्र की शांति और प्रगति की गारंटी नहीं हो सकता। वास्तविकता तो यह है कि भौतिक धन की अधिक कामना और इसके लिए अधिक उद्यम करना किसी व्यक्ति के दिलो-दिमाग से लेकर, किसी समुदाय, देश या फिर पूरी दुनिया तक में तमाम तरह की अशांतियों और संघर्षों का कारण बन सकता है।
इस हकीकत से मुंह नहीं फेरना चाहिए कि इंसानों के बड़े वर्ग को भौतिक अस्तित्व की बुनियादी जरूरतें भी हासिल नहीं, फिर भी इंसान तकनीक-आधारित उपभोक्तावाद के रास्ते पर सरपट भागा जा रहा है और इस चक्कर में हमने कहीं अधिक बुनियादी इंसानी जरूरत को उपेक्षिेत छोड़ दिया है- मन की शांति, एक इंसान का दूसरे इंसान के प्रति सद्भाव, प्रकृति समेत पूरे ब्रह्मांड के साथ सामंजस्य। इन दिनों जब भी हम विचारशील होते हैं, कोरोना वायरस के बारे में टीवी/कंप्यूटर/स्मार्ट फोन पर निरंतर आने वाली खबरें हमारे विचारों को जैसे पंख लगा देती हैं और तब हमें अहसास होता है कि हम तो कई तरह से कार्ल गुस्ताव जंग की बातों को ही सच कर रहे हैं- “वास्तविक खतरा तो खुद इंसान है।”
सबक नहीं लेने की जिद
क्या इस वायरस का जन्म किसी प्रयोगशाला में जैविक हथियार के बनाने के क्रम में हुआ जो किसी कारणवश बाहर निकल गया और फिर अनियंत्रित फैलता चला गया? क्या यह मनुष्य-पशु संघर्ष के कारण पैदा हुआ? क्या वह लंबे अरसे से शांत पड़ा था और मनुष्य और प्रकृति के अत्यधिक असंतुलित संबंधों के कारण निकलकर सामने आ गया?
खास तौर पर पिछले सौ वर्षों के दौरान मनुष्य ने पर्यावरण के खिलाफ अनवरत युद्ध छेड़ रखा है, जिसके कारण भौतिक प्रगति में तो तेजी आ गई, लेकिन इस क्रम में जंगलों के नष्ट हो जाने, नदियों-समुद्रों के प्रदूषित और हवा के दूषित हो जाने से तमाम गैर-इंसानी जीवों का अस्तित्व खत्म हो गया और कहीं इन्हीं स्थितियों में तो इस वायरस का जन्म नहीं हो गया?
इस वायरस के कारण मनुष्यों का बड़ा नुकसान हुआ है- बड़ी तादाद में लोग इसकी चपेट में आ रहे हैं और काफी लोगों की जान जा रही है। हमें नहीं पता कि यह प्रकृति का मनुष्यों से बदला लेने का तरीका तो नहीं है? हां, इस बात की प्रबल संभावना है कि कोविड-19 वायरस का जन्म इंसानी गतिविधियों से जुड़ा हो और आने वाले महीनों और वर्षों में पूरी दुनिया के वैज्ञानिक बेचैनी के साथ सभ्यतागत वैश्विक महामारी की जांच-पड़ताल में जुटे रहेंगे।
जो भी हो, यह बात तो एक आम आदमी को भी पता है कि इंसान ने विभिन्न तरीकों से अपने ही समुदाय के अन्य तमाम जीवों के स्वास्थ्य, उनकी खुशियों, उनकी सुरक्षा और यहां तक कि उनके अस्तित्व को बार-बार खतरे में डालने के बाद भी इतिहास से कोई सबक नहीं लिया। भारतीय उपमहाद्वीप के साहित्य जगत की जानी-मानी हस्ती कुर्रतुल ऐन हैदर ने इतिहास की बड़ी अर्थपूर्ण परिभाषा दी। वह कहती हैं, “अपनी गलतियों से सीख नहीं लेने का ही दूसरा नाम है इतिहास।” इसके तमाम सबूत हैं।
इंसान 21वीं शताब्दी में भी युद्ध और हिंसक संघर्षों में लिप्त है और उसने इस तथ्य को दिलो-दिमाग में उतारने की जहमत तक नहीं उठाई कि पिछली शताब्दियों के दौरान उसने कई युद्ध लड़े जिनमें अनगिनत लोग मारे गए। सिर्फ पिछली शताब्दी में ही दो भयानक विश्व युद्ध लड़े गए। दूसरा विश्व युद्ध तो परमाणु अस्त्र के इस्तेमाल से खत्म हुआ जिसने इन आशंकाओं को मजबूत कर दिया कि आने वाले समय में कहीं अधिक विनाशकारी युद्ध लड़ा जाएगा जिसमें तब की तुलना में कहीं अधिक घातक हथियारों का प्रयोग होगा।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद परमाणु हथियारों समेत व्यापक विनाश के अन्य हथियारों जिनमें जैविक और रासायनिक हथियार भी शामिल हैं, का भंडारण चिंताजनक रूप से बढ़ा है। और न तो बुद्ध और महात्मा गांधी की हमारी भूमि और न ही खुद को ‘पाक स्थान’ और ‘इस्लाम का देश’ (एक ऐसा धर्म जिसका पहला पाठ ही “शांति” है) कहने वाला हमारा पड़ोसी ही परमाणु शक्ति संपन्न देशों की खास कतार में खड़े होने का लोभ रोक सके।
मिट जाएंगे, लेकिन मारना नहीं छोड़ेंगे
कोरोना वायरस के संकट के बीच संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुतरेस ने दुनिया भर में चल रहे तमाम सशस्त्र संघर्षों और विभिन्न देशों के बीच आक्रामकता को छोड़कर कोरोना के गंभीर खतरे से मिल-जुलकर लड़ने की अपील की तो किसी ने उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया। न तो जी-7 और न ही जी-20 ने जो दुनिया के सबसे शक्तिशाली देशों का प्रतिनिधित्व करते हैं और जिसके नेताओं ने हाल ही में कोविड-19 से लड़ने के तरीकों पर एक वर्चुअल बैठक भी की, वैश्विक संघर्ष-विराम की संयुक्त राष्ट्र महासचिव की अपील से सहमत हो सके। और तो और, दुनिया को युद्ध और हिंसामुक्त भविष्य की ओर ले जाने के बारे में भी उनमें कोई सहमति नहीं।
जब दुनिया ऐसे अफसोसनाक हालत में हो तो क्या हम मानव मनोविज्ञान के अग्रणी वैज्ञानिक कार्ल गुस्ताव जंग की इस बात के लिए आलोचना कर सकते हैं कि उन्होंने काफी पहले ही कह दिया था कि “हम (मनुष्य) ही सभी भावी विपदाओं की जड़ हैं”? या फिर हम महात्मा गांधी को उलाहना दे सकते हैं कि उन्होंने 1945 में हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए जाने के बाद निपट अव्यावहारिक आदर्शवादी की तरह यह कहा था कि “अगर अब भी दुनिया अहिंसा को नहीं अपनाएगी, तो यह पूरी मानवता के लिए निश्चय ही आत्महत्या का दरवाजा खोलेगी?”
जुलाई 1946 में एक लेख में गांधीजी ने कहा: “जहां तक मैं कह सकता हूं, परमाणु बम ने उस बेहतरीन भावना को खत्म कर दिया है, जिसने मानव जाति को युगों-युगों तक जीवित रखा। पहले युद्ध के तथाकथित कानून हुआ करते थे, जो इसे सहन करने योग्य बनाते थे। अब तो हम इस नंगी सच्चाई को जानते हैं कि ताकत को छोड़कर युद्ध का कोई कानून नहीं होता।” जब महात्मा गांधी से पूछा गया कि क्या परमाणु हथियार ने अहिंसा को अप्रासंगिक बना दिया है, उन्होंने पूरी दृढ़ता के साथ कहा था, “नहीं। इसके विपरीत, अहिंसा एकमात्र चीज है जो युद्धक्षेत्र में बची रह गई। यह अकेली ऐसी चीज है, जिसे परमाणु हथियार खत्म नहीं कर सकता।”
लॉकडाउन के इन दिनों में हमें खुद से सवाल करना चाहिए, “आखिरकार मनुष्य अहिंसा को अपनाने में इतना असमर्थ क्यों है?” दूसरे शब्दों में चूंकि अहिंसा और कुछ नहीं बल्कि स्वयं के प्रति, मनुष्य का मनुष्य के प्रति और मनुष्य का अन्य सभी जीवों के प्रति प्रेम और सद्भाव है और यही तो सभी धार्मिक और मानवतावादी दर्शनों का सार है, फिर भला इंसान और तमाम इंसानी समाजों को परस्पर प्रेम और सौहार्द्र के सिद्धांतों को अपनाने में क्या दिक्कत है? वापस आते हैं जंग की बातों पर। उन्होंने कहा था, “हम मनुष्य के बारे में कुछ भी नहीं जानते, अगर जानते भी हैं तो बहुत कम। उसके मनोविज्ञान को समझना चाहिए। हमें मनुष्य की प्रकृति को कहीं अधिक जानने की जरूरत है।”
इन दिनों मैं एक पुस्तक बार-बार पढ़ रहा हूं- मैन, दि अननोन। इसे लिखा है नोबेल विजेता फ्रेंच शल्य चिकित्सक और जीव विज्ञानी डॉ. अलेक्सिस कैरल ने। पुस्तक के इस अंश पर गौर करें: “हम अपने और अपने वातावरण को तब तक नहीं बदल सकते, जब तक सोचने की अपनी आदत को न बदलें। मानवता के इतिहास में पहली बार नष्ट होती एक सभ्यता अपने क्षय के कारणों का पता लगाने में सक्षम है। पहली बार इसके पास विज्ञान की अथाह ताकत है। क्या यह इस ज्ञान और इस शक्ति का उपयोग कर सकेगी? विगत की सभी महान सभ्यताओं का जो हश्र हुआ, उससे बचने में ही हमारे लिए उम्मीद है। हमारा भाग्य हमारे हाथ में है। हमें नई राह पर आगे बढ़ना ही होगा।”
क्या भारत और बाकी दुनिया कोरोना वायरस के बाद के समय में अपनी पुरानी अहितकारी सोच से पोषित खतरनाक आदतों का त्याग करके आत्म-शुद्धि की नई राह पर चलने को तैयार और इच्छुक है? अगर हममें ऐसे सवाल पूछने की हिम्मत हो तो इस लॉकडाउन के कारण आए स्लोडाउन का सबसे बड़ा सकारात्मक फायदा होगा।
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