मृणाल पांडे का लेखः लोकतांत्रिक संस्थानों की तोड़फोड़ पर सरकार से कठोर सवाल पूछना ही आजाद मीडिया का वरदान है
मीडिया तक जनता की ललक भरी पहुंच इस बात का प्रतीक है कि आम जनता अब राजनीति में अपनी हिस्सेदारी को समझने लगी है। उसकी समझ का खबरों की निरंतरता से जितना विस्तार हुआ है उससे वह राजनीति के चौराहे पर आकर सड़क छाप तो बनी ही है। इससे भारतीय लोकतंत्र का लगातार भारतीयकरण हो रहा है।
देश के हर चौराहे, चायखाने, पान की दुकान और शिक्षा परिसर में आजकल भारतीय लोकतंत्र के भविष्य पर चिंता जताई जा रही है, नाना अटकलें लगाई जा रही हैं। इन अटकलों का स्रोत मीडिया है, पारंपरिक या सोशल मीडिया। आजादी के सत्तर बरसों के बाद देश मीडिया की जनता को जागृत करने वाली वह ताकत पहचान रहा है जिसके विमोचन के लिए गांधीजी ने लगभग सौ साल पहले ‘नवजीवन’ नाम का साप्ताहिक अखबार गुजराती और हिंदी में निकाला था। तब से आज तक हमारे मीडिया ने सत्ता के महल को आमजन के लिए लगातार पारदर्शी और जवाबदेह बनाया है।
जब अंग्रेज थे तो अपनी आलोचना पर भारतीय अखबारों पर प्रतिबंध लगाने, उनकी परिसंपत्तियां सील करने और यदाकदा संपादकों को जेल भेजने का क्रम लगातार बना रहा। आज भी हम देख रहे हैं कि सरकार और मीडिया के बीच एक तनाव बना रहता है, जो चुनाव काल में और भी गहरा होने लगता है। सरकार जितना विपक्ष या संसद की बैठकों से डरती है, उतना ही आजाद मीडिया के उस छोटे लेकिन रसूखदार हिस्से से भी डरती है, जिसे विज्ञापनों या अन्य सौगातों के जरिए भी वह पालतू नहीं बना पाई। जब-जब यह मीडिया सीबीआई प्रमुख को हटाने या जांच प्रक्रिया और न्यायिक कार्यप्रणाली या सरकारी फाइलों की अपारदर्शिता पर सवाल उठाता है, सरकार हिकारत से कहती है कि आज का मीडिया बाजारू, अभद्र, बदगुमान किस्म के छुटभैये पत्रकारों से भरता जा रहा है। खासकर सोशल मीडिया।
दुनियादार पालतू मीडिया के बरक्स छुटभैया होना अगर आजादी का मानक हो, तो यह क्या कोई गुनाह है? 1917 में रूसी क्रांति के बाद जार के भव्य महल में पहली बार घुसी छुटभैया लोगों की भीड़ ने झाड़फानूस तोड़े और कालीन गंदे किए, तो लेनिन से शिकायत की गई कि जनता महल तोड़- फोड़ रही है। उनका जवाब था, क्या ये सारी चीजें इन्हीं छुटभैयों के हाथों नहीं बनी हैं? जार या उसके घराने ने तो नहीं बनाईं। थोड़े दिन बाद लोग बाग यह खुद समझ जाएंगे।
आज सीबीआई के महनामथ पर, सीवीसी के रोल पर, रिजर्व बैंक या सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की स्वायत्तता तथा कृषि की दुर्दशा पर अगर मीडिया तीखे सवालों के बाण सरकार पर छोड़कर जनता की तरफ से उनके जवाब मांग रहा है, तो आपत्तिजनक क्या है? क्या ये लोकतांत्रिक संस्थाएं जनता की जमीन पर, जनता की रक्षा के लिए, जनता द्वारा दिए करों से नहीं बनाई गईं हैं? अब, जबकि सूचना संचार क्रांति डिजिटल अक्षरों, ई-अखबारों, डिश टीवी से देश के कोने-कोने में आंचलिक जनता की गांठ लुटियन की दिल्ली के राजपथ से सत्ता गलियारों से कस कर जोड़ चुकी है, सरकारी जवाबदेही पर करोड़ों निगाहें टिकवाने वाला मीडिया क्या लोकतंत्र का पहरुआ नहीं?
धन-दौलत की बढ़ोतरी की बहुत न भी हो तो भी मीडिया तक जनता की ललकभरी पहुंच इस बात का प्रतीक है कि आम जनता अब राजनीति में अपनी हिस्सेदारी और उसमें वयस्क मताधिकार की ताकत को समझने लगी है। हो सकता है इधर उसकी समझ का समाचारों की निरंतरता से जितना विस्तार हुआ है, उतनी गहराई उसमें अभी नहीं आई है, लेकिन इससे राजनीति के चौराहे पर आकर सड़क छाप तो बनी ही है। इससे भारतीय लोकतंत्र का लगातार भारतीयकरण हो रहा है।
शिकायत की जा सकती है कि मीडिया के इस विस्तार ने और उसमें सीधी भागीदारी से सोशल मीडिया को बड़े पैमाने पर अपना रहे हमारे युवा उद्दंड दुराग्रही बन रहे हैं। वे सामान्य वर्ग से आते हैं और निरंतर बिगड़ते सरकारी स्कूलों से निकले हैं। वे देख सकते हैं कि अमीर-गरीब, अंग्रेजी परस्त और देसी मतदाताओं के बीच की खाई लांघना आसान नहीं। इसलिए वे बिना किसी के ओहदे की परवाह किए कई बार सीधे गाली- गलौज की भाषा का इस्तेमाल करते हैं। उधर उच्च वर्ग के युवा उद्देश्यहीन हैं। उनको लगता है कि देश उनकी पुश्तैनी थाती है। इन दोनों के बीच फंसा देश का राजनीतिक मैदान मछली बाजार बना हुआ है। लेकिन जिंदा किंतु मजबूर लोगों के खामोश श्मशान से इस जीवंत मछली बाजार की तू-तड़ाक क्या बेहतर नहीं?
2019 के आम चुनाव इस मायने में भयावह हैं कि अबकी बारी सभी मतदाताओं को अपने जीवन और आजीविका की रक्षा के लिए कुरुक्षेत्र के अर्जुन की तरह हर कदम पर दुविधा, अंतर्द्वंद्व और पछतावे को झेलना है। आलोक वर्मा पर लगे आरोप सही थे कि गलत? उनके साथ जो बर्ताव जिस तरह जिन लोगों के हाथों हुआ वह कितना तर्क या न्याय संगत था? मायावती और अखिलेश का गठजोड़ कितना सामयिक दलगत हितस्वार्थों से उपजा है और कितना अखिल भारतीय लोकतंत्र की ज़रूरतों से?
इन सब सवालों पर आज 21वीं सदी में जनमी मतदाताओं की नई पीढ़ी पर भी विचार करने की अनिवार्य मजबूरी है। और जानकारी चाहिए तो इंटरनेट पर बहती ज्ञान गंगा तो सबके लिए खुली है। विकी पर जाओ और सबकी कमोबेश सही कुंडली पढ़ लो। दिल्ली में भी जहां का दरबार अर्से से दरबारी रहा है और अधिकतर अखबार, चैनल और डिजिटल पोर्टल सरकार के साथ सेल्फी लेकर कृत कृत्य होते रहते हैं।
एक विशाल पार्टी महाधिवेशन में बीजेपी के अध्यक्ष ने शाब्दिक छक्के-चौके लगाते हुए पार्टी कार्यकर्ताओं की विशाल अक्षौहिणी से कहा कि यह चुनाव उनकी पार्टी के लिए पानीपत की तीसरी लड़ाई जितना महत्व रखता है। पर सोशल मीडिया ने तुरंत बताना शुरू कर दिया, कि नहीं, यह उससे किसी कदर भिन्न है, और कहीं अधिक महत्व रखता है। कि तब की भगवा पताका वाली मराठा सेना (जो मान्य वक्ता की दृष्टि में शायद रणबांकुरे विजगीषु हिंदुओं की प्रतिनिधि थी) भी टेक्निकली मराठाओं की स्वायत्त सेना न थी। वह तो दिल्ली की मुगल बादशाहत की मातहती में ही खड़ी थी। उसकी टकराहट थी विपक्ष के आक्रांता अहमदशाह अब्दाली और रोहिल्लों के अफगानी सैनिकों के अलावा अवध में मुगल सम्राट के सूबाई प्रतिनिधि शुजाउद्दौला के सैनिकों के त्रिकोणी गठजोड़ से जिसमें मुसलमानों के साथ सब जातियों के हिंदू भी अवध के बादशाह के पक्ष में लड़ रहे थे। यानी विशुद्ध हिंदू हितों का प्रतिनिधित्व न दिल्ली की अक्षौहिणी कर रही थी, न ही दूसरी साइड पूरी तरह यवन सैनिकों की थी।
लिहाजा पानीपत में दिल्ली बादशाहत की हार ने जो लंबी दासता हमको दी, आज हम उसे दलीय प्रवक्ताओं, वक्ताओं के इकरंगी चश्मे से नहीं, मीडिया के दिखाए सही इतिहास के प्रसंग में नई तरह से देख सकते हैं। तब हम भारतीय पानीपत में हारे तो भारत के बादशाही खेमों में लूटपाट-मारकाट हुई। उसके बाद बादशाह दरबदर हुए न हुए पर आम जनता हमेशा की तरह एक बादशाह की दासता से दूसरे की दासता में खामोशी से समाने को बाध्य थी। सामंती युग में उसकी जीवनधारा शासक निरपेक्ष थी। उसकी मड़ैया में खेती, हारी-बीमारी, शादी-व्याह भगवान या साहूकारों के भरोसे ही थे, पशु मेलों में मंडियों में खरीद-फरोख्त भी जैसे-तैसे लगातार होती रहती थी। अकाल पड़ा तो भाग्य, बरखा हुई तो भी नसीब। दरबार और उसका रहस्यमय संसार, नाच-गाना, भितरघात और षड्यंत्र यह सब उसकी पैठ से बाहर ही रहे थे, सो वह सियापा किसका करती? रानी रूठेंगी तो अपना सुहाग लेंगी।
पर आज लोकतंत्र है। हर चुनाव हमको लूटपाट या हंगामे वाली नहीं, दिमागी उथल-पुथल से भरे राज्य परिवर्तन का तोहफा देता है। तब जो देश जड़ था, सुन्न रह गया था (कोहिनूर जो गया सो फिर वापस नहीं आया), वह आजादी के 70 बरसों में अब अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों से ठोस उम्मीद करना और अपने हित स्वार्थों को साफ पहचानना सीख गया है। अखिल भारतीय स्तर पर भी और इलाकाई स्तर पर भी उसे बार-बार मंदिर-मंडल मुफ्त बीमा या फ्री साड़ी, दारू के उपहारों से बहलाया नहीं जा सकता।
हमें यही कामना करनी चाहिए कि उसकी तमाम हरकतों की खबरें हम को सप्रमाण देते रहने वाले हमारे मीडिया की आजादी इस नाजुक मोड़ पर कतई बाधित न हो। इन चुनावों तक का रनअप मीडिया की मार्फत हमको देश के कोने-कोने में बनती-बिगड़ती अपार संभावनाओं और षड्यंत्रों से परिचित करवा दे। यह ‘कोउ नृप होय हमें का हानी, चेरी छाँड़ि कि होउब रानी’ वाली जड़ता पिघले और हम खुद अपनी राह तय करें। अपने देशवासियों की हर तरह की छवियां हमको ईमानदारी से निरंतर दिखती रहें, ताकि उन दृश्यों की कोई छेड़छाड़ या फेक खबरें हम तुरंत भांप सकें। हम अखिल भारतीय परिदृश्य की सारी गंदगी और संभावनाएं, सारी फूटपरस्ती और एकजुटता एक साथ निरंतर देख सकें।
हमारे कान फूट की सम्मोहक फुसफुसाहटों को भी सुनकर विचलित न हों, बल्कि उनसे डरे बिना अपने विवेक से सही गलत का फैसला कर सकें। हम अपने निखालिस भारतीय निकम्मेपन से नाराज हों। सत्ता की आंखों में आंखें डालकर उससे, लोकतांत्रिक संस्थानों की तोड़फोड़ पर अपनत्व से लेकिन साफ कठोर सवाल पूछें, सकर्मक जानकार बनकर। लोकतंत्र में यही आजाद मीडिया का वरदान है। अब बतौर मीडिया उपभोक्ता यह हम पर है कि हम कौन सी राह चुनें।
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