अमेरिका में पीएम मोदी को गोलकीपर अवार्ड से हुआ साफ, आज स्वच्छता का मतलब सिर्फ शौचालय
गेट्स फाउंडेशन से इतनी तो उम्मीद थी कि पुरस्कार की घोषणा से पहले कम से कम सरकारी दावों को ही अपने स्तर से परख लेता। अब तो सिर्फ यही कहा जा सकता है कि स्वच्छता और शौचालय एक नए पर्यायवाची शब्द हैं। सबके घर में शौचालय बन गए और देश स्वच्छ हो गया!
साल 2014 के पहले “सफाई” या “स्वच्छता” एक बहुत व्यापक अर्थ वाला शब्द होता था, पर इसके बाद सफाई का मतलब सरकारी तौर पर केवल शौचालय ही रह गया है। अब तो अंतर्राष्ट्रीय पटल पर भी स्वच्छता केवल शौचालयों में सिमट कर रह गयी है। इन सबके बीच देश हरेक स्तर पर और गंदा होता जा रहा है, कचरे के ढेर तो खड़े हो ही रहे हैं, सामाजिक तौर पर इतना बदबूदार देश तो इतिहास के किसी भी चरण में नहीं रहा है।
लेकिन अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को इन्हीं शौचालयों के लिए बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन की तरफ से 24 सितम्बर को न्यूयॉर्क में ग्लोबल गोलकीपर अवार्ड दिया गया है। इसमें कहा गया है की मोदी जी ने स्वच्छता के लिए बहुत काम किया है। दुनियाभर के मानवाधिकार संगठन मोदी जी को पुरस्कार नहीं देने की मांग करते रहे, पर गेट्स फाउंडेशन का फैसला अटल रहा.
इससे इतना तो पता चलता ही है कि शहरों में भले ही कचरे के पहाड़ खड़े हों, सड़कों के किनारे और पार्क कचरे और मलबों से दबे हों, नदियां और नालों में भेद मिट गया हो पर अकेला शौचालय ही पूरे देश को स्वच्छता के शिखर पर पहुंचा सकता है। दूसरी तरफ यह भी स्पष्ट है कि दुनिया खतरनाक स्तर पर कट्टरपंथी और दक्षिणपंथी हो गयी है। अब अमेरिका, यूरोपीय देश, संयुक्त राष्ट्र और गेट्स फाउंडेशन सरीखे गैर-सरकारी संगठनों के लिए मानवाधिकार का कोई मतलब नहीं है, कई लाख लोगों की नजरबंदी का कोई मतलब नहीं है, उन्मादी समूह की हिंसा का कोई मतलब नहीं है, महिलाओं की आजादी का कोई मतलब नहीं है। क्योंकि जिस समय मोदी जी इस पुरस्कार को ले रहे होंगे, लगभग उसी समय मध्य प्रदेश में वंचित समुदाय के दो बच्चे केवल इसलिए अपनी जान गवां रहे थे क्योंकि उन्होंने खुले में शौच कर दिया था। मोदी जी के देश में मानवाधिकार इस हद तक गिर चुका है।
ऐसा नहीं है कि गेट्स फाउंडेशन को मानवाधिकार की याद किसी ने नहीं दिलाई। मानवता के लिए काम करने वाले एक साउथ एशियाई अमेरिकन ग्रुप ने ‘पोलिस प्रोजेक्ट’ नामक एक रिसर्च एंड जर्नलिज्म पोर्टल पर खुले पत्र के माध्यम से कश्मीर में नजरबंदी, मीडिया पर प्रतिबंध, बच्चों को मुजरिम करार देना जैसे वाकये याद दिलाए। इससे पहले मानवता के लिए समर्पित लगभग एक लाख लोगों ने ऐसा ही खुला पत्र भेजा था। नोबेल पुरस्कार से नवाजे गए मेरीद मागुइरे (1976), शीरीं ऐबादी (2003) और तवाक्कोल आदेल सलाम करमन (2011) ने भी गेट्स फाउंडेशन को ‘स्टॉप जेनोसाइड’ नामक साईट पर पत्र लिखकर मोदी जी को पुरस्कार नहीं देने का आग्रह किया था। इन लोगों के अनुसार तथाकथित मानवाधिकार संगठनों द्वारा ऐसे लोगों को जब पुरस्कार मिलता है तब मानवाधिकार से जुड़ा हरेक संस्थान शर्मिंदा होता है।
बात केवल मानवाधिकार तक ही सीमित नहीं है। हाल फिलहाल जितने भी पुरस्कार से मोदी जी नवाजे गए हैं, उनके कारण जानकार आप भी हैरान हो जाएंगे। ‘सीओल पीस प्राइज’ मोदी जी को अमीर और गरीब के बीच आर्थिक और सामाजिक विषमता खत्म करने के लिए दिया गया है। ‘फिलिप कोटलर प्रेसिडेन्शियल अवार्ड’ जनतंत्र को नया जीवन देने और आर्थिक विकास के लिए दिया गया है। लोग देश में प्रदूषण से मरते रहे, नदियां सूखती रहीं और जंगल कटते रहे पर इन सबके बीच संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण ने मोदी जी को ‘चैम्पिंयंस ऑफ द अर्थ’ बना डाला।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि पिछले पांच वर्षों के भीतर देश में 9 करोड़ से अधिक शौचालय बनाए गए हैं और देश के कुल 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से 27 खुले में ‘शौच मुक्त’ घोषित किये जा चुके हैं। देश के कुल 5.5 लाख गांव खुले में शौच मुक्त हो चुके हैं। अब देश के 98.6 प्रतिशत घरों में शौचालय बन चुके हैं, ऐसा सरकार कहती है। इसके बाद अनेक अध्ययनों से यह सामने आया कि भारी संख्या में शौचालयों में खामियां हैं, शौचालय में इस्तेमाल के लिए पानी नहीं है या फिर शौचालय बनाने के बाद भी लोग खुले में शौच कर रहे हैं। देश में जितने शौचालय बने हैं, उनमें से महज 42 प्रतिशत में दो पिट बने हैं। इसका मतलब है कि शेष शौचालयों में जब कुछ समय बाद पिट भर चुका होगा तब उन्हें इस्तेमाल करना संभव नहीं रहेगा।
रिसर्च इंस्टिट्यूट फॉर कोम्पसिओनेट इकोनॉमिक्स नामक संस्था द्वारा किये गए एक अध्ययन के अनुसार शौचालय होने के बाद भी देश की 23 प्रतिशत जनता खुले में शौच जाती है। सरकारी दावों के अनुसार मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश ऐसे राज्य हैं, जो पूरी तरह खुले में शौच से मुक्त हैं। बिहार का 92 प्रतिशत हिस्सा खुले में शौच मुक्त है। पर, इस रिसर्च इंस्टिट्यूट की रिपोर्ट के अनुसार इन चारों राज्यों में ग्रामीण क्षेत्रों में औसतन 44 प्रतिशत जनता खुले में शौच जाती है।
शहरी विकास मंत्रालय द्वारा 2014 में प्रकाशित गाइडलाइन्स फॉर स्वच्छ भारत मिशन के अनुसार 2011 की जनगणना के अनुसार शहरी आबादी 37.7 करोड़ थी जो 2031 तक बढ़कर 60 करोड़ तक पहुंच जाएगी। इस आबादी में से 80 लाख लोग खुले में शौच कर रहे थे। पानी की गंदगी से स्वास्थ्य की समस्याएं बढ़ जाती हैं और शहरों से अनुपचारित मलजल ही देश में जल प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण है। पर, शौचालयों के लिए जो दिशा-निर्देश हैं वह पानी को और प्रदूषित करने के लिए पर्याप्त हैं।
दिशानिर्देश के अनुसार यदि शौचालय का निर्माण उपलब्ध सीवरेज प्रणाली के 30 मीटर के दायरे में है तब शौचालय को सीधा इस सीवरेज प्रणाली से जोड़ना है, और यदि 30 मीटर तक कोई ऐसी प्रणाली नहीं उपलब्ध है तब शौचालय के साथ सेप्टिक टैंक भी बनाना है। पर्यावरण संरक्षण के प्रति हम कितने लापरवाह हैं, यह दिशानिर्देश इसका एक अच्छा उदाहरण है। जब सरकार को यह मालूम है कि अनुपचारित मलजल, जो सीवरेज प्रणाली के माध्यम से नदियों में मिलता है और यही इन नदियों में प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण भी है तब भी नए शौचालय इसी तंत्र से जोड़े जा रहे हैं। इससे तो सीवरेज तंत्र का प्रदूषण और बढ़ेगा ही और हमारी नदियों का भी।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने हाल में ही हाथों द्वारा सीवर की सफाई और मल उठाने पर सख्त टिप्पणी की है। ऐसा दुनिया के किसी देश में नहीं होता, यह अमानवीय है और इसे लोगों को गैस चैम्बर में भेजे जाने जैसा बताया गया। इसी वर्ष जनवरी से जून के बीच ही सीवर साफ करने के दौरान 50 से अधिक लोग दम घुटने से मर चुके हैं। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के अनुसार देश के 14 राज्यों में 40000 से अधिक मैला उठाने वाले लोग हैं।
गेट्स फाउंडेशन से इतनी तो उम्मीद थी कि पुरस्कार की घोषणा के पहले कम से कम सरकारी दावों को ही अपने स्तर पर परख लेता, पर ऐसा कुछ नहीं किया गया। अब तो यही कहा जा सकता है कि स्वच्छता और शौचालय एक नए पर्यायवाची शब्द हैं। सबके घर में शौचालय बन गए और देश स्वच्छ हो गया!
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