क्या मुसलमानों को अलग-थलग करने पर आमादा है मोदी सरकार, अल्पसंख्यकों के लिए बजट में लगातार कमी से उठे सवाल!
भारतीय मुसलमानों में कम साक्षरता दर की बड़ी वजह उनकी माली हालत मानी गई है और इसी कारण वे अलग-थलग पड़ जाते हैं। दिक्कत की बात यह है कि अल्पसंख्यकों की बेहतरी के लिए जितनी भी योजनाएं हैं, उनके लिए बजट आवंटन धीरे-धीरे खत्म कर दिया गया या फिर ये निहायत कम हैं।
भारत में जैसे ही बात अल्पसंख्यक और खास तौर पर मुसलमान की होती है, आम लोगों के जेहन में यह एक विवादित और गर्मागर्म बहस के मुद्दे के तौर पर उभर जाता है। आक्रामक बहुसंख्य राजनीति के मौजूदा दौर में ऐसा खास तौर पर महसूस किया जा रहा है। ऐसे में 2020-21 के आम बजट में अल्पसंख्यकों के वास्ते चलाई जा रही योजनाओं के लिए किए गए आवंटन पर गौर करना वाजिब होगा। इससे साफ हो जाएगा किअल्पसंख्यकों, या कहें मुस्लिमों को किस हद तक हाशिए पर डाल दिया गया है। यह बजट वित्तीय घाटे का अनुमान तो लगाता है, लेकिन सामाजिक घाटे को छिपा जाता है।
दुनिया भर में किसी आधुनिक देश को इस आधार पर आंका जाता है कि वहां अल्पसंख्यक समुदायों का रहन-सहन कैसा है। इसलिए, हमारे मामले में भी इससे अलग पैमाना नहीं हो सकता। अब सवाल यह उठता है कि ऐसी गैरबराबरी को हम बरकरार क्यों रहने देते हैं। साल 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक भारतीय आबादी में विभिन्न अल्पसंख्यक समुदायों की हिस्सेदारी 19 प्रतिशत है और इसमें मुसलमान 14.2 फीसदी हैं।
मुसलमानों के अलावा, सिख, ईसाई, बौद्ध और जैन भी उन लोगों में शुमार हैं जिन्हें अल्पसंख्यकों के रूप में वर्गीकृत किया गया है। केंद्र सरकार अल्पसंख्यक मामलों का एक अलग मंत्रालय और अल्पसंख्यक आयोग चलाती है। इन्हें भी अपनी स्थापना और चलाने की लागत को पूरा करने के लिए वार्षिक बजट के माध्यम से अनुदान मिलता है। इसके अलावा, बजट अल्पसंख्यक केंद्रित योजनाओं के लिए प्रावधान करता है, जिनका उद्देश्य अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यक समाज जैसी स्थिति में लाना होता है।
अल्पसंख्यकों को जो गैरबराबरी का सामना करना पड़ता है, उम्मीद की जाती है कि इन योजनाओं से अगर वे खत्म न भी हों तो कम तो हो ही जाएं। इस तरह की योजनाओं की जरूरत को लेकर अन्य अल्पसंख्यकों की बनिस्पत मुस्लिम अधिक संवेदनशील हैं। इसकी वजह भी है। उदाहरण के लिए, साक्षरता दर की बात करें जो किसी भी समुदाय की सामाजिक हैसियत का प्रमुख संकेतक होता है।
साल 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक मुसलमानों में साक्षरता की दर 57.27 फीसदी है, जबकि ईसाइयों में 74.24 फीसदी है। बहुसंख्यक हिंदुओं में साक्षरता की दर 63.6 फीसदी है। मुसलमानों में कम साक्षरता दर की बड़ी वजह खस्ता माली हालत है और इस वजह से वे अलग-थलग पड़ जाते हैं। दिक्कत की बात यह है कि अल्पसंख्यकों के लिए जितनी योजनाएं हैं, उनमें आवंटन में धीरे-धीरे कमी कर दी गई है या फिर ये निहायत कम हैं। अब इन योजनाओं पर गौर करना लाजिमी होगाः
प्रीक्वालीफाई करने वालों को मदद की राशि आधीः अल्पसंख्यक मंत्रालय यूपीएससी, राज्य पीसीएस, स्टाफ सेलेक्शन जैसी तमाम भर्तियों के लिए होने वाली प्री परीक्षा पास करने वाले अल्पसंख्यक छात्रों को मदद देता है। वित्त वर्ष 2019-20 के लिए इस मद में 20 करोड़ का आवंटन था, जिसे संशोधित बजट में 10 करोड़ कर दिया गया था। इस बजट में भी इसे 10 करोड़ ही रखा गया।
मुफ्त कोचिंग का हालः अल्पसंख्यक समुदाय के आर्थिक तौर पर कमजोर युवाओं को मुफ्त कोचिंग देने की योजना है जिससे सरकारी और निजी क्षेत्र की नौकरी पाने के लिए उनमें योग्यता या खास स्किल विकसित हो सके। इसके लिए जाने-माने शैक्षणिक संस्थानों में दाखिले के लिए मुफ्त कोचिंग का प्रावधान है। वित्त वर्ष 2020 में इसके लिए 75 करोड़ का बजट रखा गया था, लेकिन संशोधित बजट में इसे घटाकर 40 करोड़ कर दिया गया था और 2021 के लिए यह आवंटन 50 करोड़ रखा गया है।
शिक्षा ऋण पर ब्याज में सब्सिडीः इस योजना के तहत विदेश में पढ़ाई के लिए शिक्षा ऋण लेने वाले अल्पसंख्यक समुदाय के छात्र को ऋण पर देय ब्याज का कुछ हिस्सा सरकार वहन करती है। साल 2018-19 में इसका आवंटन 45 करोड़ था जिसे 2019-20 में घटाकर 25 करोड़ कर दिया गया। 2020-21 में 30 करोड़ का प्रावधान किया गया है जबकि कभी यह 45 करोड़ हुआ करता था।
अल्पसंख्यक महिलाओं में नेतृत्व विकासः अल्पसंख्यक समुदाय की साधनहीन महिलाओं में नेतृत्व क्षमता के विकास की इस योजना के लिए 2019-20 के बजट में 15 करोड़ का प्रावधान किया गया था जबकि साल 2020-21 में इसे घटाकर 10 करोड़ कर दिया गया है।
समेकित शिक्षा और आजीविका योजनाः इस योजना के तहत अल्पसंख्यकों के वैसे लोगों को, जिसने बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी हो, उसकी आजीविका के बंदोबस्त के साथ ही उसकी पढ़ाई पूरी करने की व्यवस्था की जाती है। साल 2019-20 में इस योजना के लिए 140 करोड़ का बजट था जिसे संशोधित बजट में घटाकर 100 करोड़ कर दिया गया था। वित्त वर्ष 2020-21 में इस मद में आवंटन 120 करोड़ रखा गया है।
ये हाल है अल्पसंख्यकों के विकास की योजनाओं का। काबिलेगौर है कि अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के मुकाबले मुसलमानों में गरीबी का स्तर कहीं अधिक है। ऐसे में उनके विकास से जुड़ी योजनाओं का आवंटन कम करने से जाहिर है कि इस सरकार ने मुसलमानों को एकदम अलग-थलग कर देने की सोच रखी है।
(नवजीवन के लिए आबिद शाह का लेख)
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