छंटनी, बंदी और वित्तीय सुस्ती के बीच क्या धीमी मौत की तरफ बढ़ रहा है देश का मुख्यधारा का मीडिया !
देश में मुख्यधारा का मीडिया निश्चित रूप से एक ऐसे संकट से दोचार है जो स्वतंत्र भारत में इससे पहले कभी नहीं देखा गया। ऐसे में मीडिया और इसमें काम करने वाले महिला-पुरुषों के बीच अनिश्चितता का होना स्वाभाविक है।
क्या भारतीय मीडिया एक धीमी मौत मर रहा है, एक अदृश्य मौत?
शायद नहीं। लेकिन एक तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि मीडिया पर निरंतर वित्तीय अनिश्चितताओं का साया है और स्वतंत्र पत्रकारिता या आलोचनात्मक पत्रकारिता और असहमति के विचारों को लेकर उत्पन्न असहिष्णुता से दो-चार है। इतना ही काफी नहीं था कि मीडिया को मनमाने तरीके से आपराधिक मानहानि कानून की चुनौतियों का भी सामना करना पड़ रहा है। इन हालात में मीडिया में काम करने वाले महिला-पुरुषों का भविष्य को लेकर चिंतित होना स्वाभाविक है। न सिर्फ अपने भविष्य को लेकर, बल्कि मीडिया के भविष्य की चिंता भी बड़ी होती जा रही है।
फ्रांस की पत्रिका रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम का जो इंडेक्स तैयार किया है, उसे भारत में मीडिया की स्थिति बीते दो साल से लगातार नीचे खिसक रह है। आज भारत इस इंडेक्स में 140वें पायदान पर है, जबकि इस रिपोर्ट में कुल 180 देशों में पत्रकारिता की स्वतंत्रता का अध्ययन किया गया है।
अभी 3 मई को दिल्ली जर्नलिस्ट यूनियन ने मांग उठाई कि संसद को इस सबका संज्ञान लेना चाहिए और मीडिया की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए कानून बनाना चाहिए। साथ ही मीडिया के मामलों के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए जाएं, संघर्ष वाले इलाकों में काम कर रहे पत्रकारों के लिए बीमा की रकम सरकार दे और राजनीतिक दलों और कार्पोरेट घरानों द्वारा फेक न्यूज और छेड़छाड़ किए गए वीडियो को प्रसारित करने और फैलाने में सोशल मीडिया के दुरुपयोग पर रोक लगनी चाहिए।
डिजिटल तकनीक भी मीडिया की निरर्थकता का कारण बन रही है। अक्टूबर 201 में देश की प्रमुख न्यूज एजेंसी प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया (पीटीआई) ने कुल 297 गैर पत्रकारों (टाइपिस्ट, टेलीप्रिंटर और टेलेक्स ऑपरेटर आदि) को नौकरी से यह कहकर निकाल दिया कि उनकी सेवाओं की जरूरत नहीं है।
इसी तरह बीते दिनों कई मीडिया संस्थानों ने कामधाम बंद कर दिया। सबसे पहले अनिल अंबानी के स्वामित्व वाले बिजनेस न्यूज चैनल बीटीवीआई ने अचानक बंदी का ऐलान कर दिया। इसके बाद दो और न्यूज चैनलों के बंद होने की खबर आई, जो 2019 चुनाव के मौके पर लांच हुए थे। इनमें नमो टीवी और तिरंगा टीवी शामिल हैं। नमो टीवी को सबसे पहले यूट्यूब पर लांच किया गया था और इस चैनल पर सिर्फ प्रधानमंत्री की रैलियों और भाषणों का नॉन-स्टॉप प्रसारण होता था। इसके बाद इसे टाटा स्काई और दूसरे डीटीएच प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध करा दिया गया। लेकिन चुनाव बाद अचानक ही इसे बंद कर दिया गया। टाटा स्काई के सीईओ ने इस बारे में सफाई दी थी कि यह एक मुफ्त विशेष सेवा चैनल था।
बाद में बरखा दत्त और करन थापर जैसे कुछ जाने-पहचाने एंकर्स के साथ लांच हुआ तिरंगा टीवी भी बंद हो गया। चर्चा रही कि इसकी बंदी को लेकर चैनल के मालिकों और एंकर्स के बीच भुगतान को लेकर काफी विवाद भी हुआ।
प्रिंट मीडिया के लिए भी हालात कोई बेहतर नहीं हैं। ज़ी समूह ने हाल ही में कई शहरों से प्रकाशित होने वाले अपने अंग्रेजी दैनिक डीएनए को बंद कर दिया। समूह ने घोषणा की कि डीएनए अब सिर्फ डिजिटल रूप में ही उपलब्ध होगा। वैसे डीएनए के पुणे और बेंग्लुरु संस्करण 2014 में ही बंद हो चुके थे, और अब मुंबई और अहमदाबाद संस्करणों पर ताला जड़ दिया गया।
उधर उत्तर प्रदेश के आगरा से खबर आई कि हिंदी दैनिक डीएलए (अमर उजाला समूह के संस्थापक डोरी लाल अग्रवाल को समर्पित समाचारपत्र) को बंद कर दिया गया। इसे डोरी लाल अग्रवाल के पुत्र और अमर उजाला समूह के पूर्व मालिकों में से एक अनिल अग्रवाल ने शुरु किया था।
इस सबके बीच भारत में मल्टीमीडिया इस समय करीब एक अरब लोगों को प्रिंट, रेडियो, नेट और आउटडोर सेगमेंट के जरिए सेवाएं उपलब्ध कराता है। इन सभी श्रेणियों के मीडिया के राजस्व में हाल में काफी कमी दर्ज की गई है। हालांकि देशीय भाषा के (गैर अंग्रेजी समाचार पत्रों) में कुछ प्रगति देखी गई है। लेकिन बीते सालों के मुकाबले यह बहुत कम है।
हिंदी प्रिंट मीडिया को विज्ञापनों से होने वाली आय, खासतौर से सरकारी विज्ञापनों से होने वाली आय से ज्यादा राजस्व हासिल हो रहा है। हालांकि 2010 की स्थिति के मुकाबले यह एकदम विपरीत स्थिति है। एक समय था जब देशीय भाषा के अखबार अंग्रेजी समाचार पत्रों से राजस्व के मामले में बहुत पीछे होते थे। लेकिन आज स्थिति है, उनकी प्रसार संख्या बढ़ने से कार्पोरेट घराने भी अब छोटे शहरों और गांवों में पहुंचने के लिए इन अखबारों को अपना माध्यम बना रहे हैं। इसके अलावा हिंदी पट्टी के मतदाताओं तक पहुंचन के लिए राजनीतिज्ञ भी इन अखबारों को अहमियत दे रहे हैं।
इस सबके बावजूद हिंदी के प्रमुख समाचार पत्र अपने कर्मचारियों को नौकरियों से निकाल रहे हैं, ब्यूरो और न्यूजरूम में संख्या कम कर रहे हैं। ये अखबार अब अपने प्रिंट और डिजिटल दोनों संस्करणों के लिए डिजिटल न्यूज एग्रीगेटर पर ज्यादा निर्भर होते जा रहे हैं।
और यह संकट, हाल-फिलहाल में कम होता नजर नहीं आ रहा है।
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