आकार पटेल का लेख: चुनाव में ज़मानत राशि ज़ब्त करने से लोकतंत्र का भला नहीं नुकसान होता है !
जमानत राशि जब्त करने के नियम से खास तौर से ऐसे लोग हतोस्ताहित होते हैं जो किसी बड़ी राजनीतिक पार्टी से नहीं जुड़े हैं। जमानत जब्त करने का नियम एक तरह से उन लोगों को नाकाम साबित करने जैसा लगता है जो 16.6 फीसदी वोट हासिल नहीं कर पाते।
लोकसभा चुनाव के पहले चरण के लिए उम्मीदवार सोमवार तक अपने नामांकन दाखिल कर देंगे, और दूसरे चरण के उम्मीदवार मंगलवार तक यह काम कर देंगे। सभी उम्मीदवारों के लिए एक बात बड़ी सामान्य सी होती है, मेरी दिलचस्पी उसी में है, लेकिन मतदाताओं को इसके बारे में जानकारी नहीं है।
नामांकन भरने की आखिरी तारीख का बहुत महत्व होता है। कई साल पहले पूर्व राजनयिक सैयद शहाबुद्दीन ने मुझे बताया था कि बिहार की किशनगंज लोकसभा सीट से जब वह नामांकन भरने गए थे तो उन्हें जबरदस्ती रोका गया था। उनके विरोधी उस समय कांग्रेस में थे और आजकल बीजेपी में हैं, उन्होंनें ही उन्हें रोका था।
यह 1980 के दशक के आखिरी दिनों की बात है। आज तो चुनाव काफी आसानी से हो जाते हैं। चलिए सबसे पहले नामांकन प्रक्रिया को देखते हैं। लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए किसी भी उम्मीदवार की उम्र कम से कम 25 वर्ष होनी चाहिए और उसे चुनाव आयोग के फार्म 2ए में आवेदन भरना होता है। विधानसभा चुनाव क लिए फार्म 2 बी का इस्तेमाल होता है। यह फार्म किसी ऐसे वोटर द्वारा भरा जाता है जो उम्मीदवार को जानता हो, वही उम्मीदवार के नाम का प्रस्ताव करता है। प्रस्तावक और उम्मीदवार दोनों को चुनाव अधिकारी के सामने संविधान में आस्था और देश की संप्रभुता में विश्वास की शपथ लेनी होती है। एक से अधिक सीटों से चुनाव में उतरने वाले उम्मीदवार (जैसा कि 2014 में पीएम मोदी ने वाराणसी और वडोदरा दो जगहों से चुनाव लड़ा था) को ऐसा एक ही बार करना होता है, अलबत्ता उन्हें जमानत राशि दोनों जगह जमा करानी होती है, और वह राशि वापस भी नहीं होती है। जेल से चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को जेल अधीक्षक के सामने शपथ लेना होती है। शपथ लेते वक्त आपको या तो कहना होता है कि ‘मैं ईश्वर की शपथ लेता हूं’ और आप किसी धर्म में आस्था नहीं रखते तो सिर्फ यह कह सकते हैं कि. ‘मैं शपथ लेता हूं’। इसके बाद उम्मीदवार को अपने बारे आपराधिक रिकॉर्ड (अगर कोई हो तो) के बारे में सारी सूचनाएं देनी होती हैं।
अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों (देश भर में ऐसी 84 सीटें हैं) से चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार को देश भर में मौजूद इन जातियों में से किसी एक का होना जरूरी होता है। लेकिन असम और लक्ष्यदीप की अनुसूचित जनजाति केलिए आरक्षित सीटों पर सिर्फ इन्हीं जगहों के इन जातियों के उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतर सकते हैं।
उम्मीदवार अगर विक्षिप्त या दिवालिया होता है तो उसकी उम्मीदवारी रद्द कर दी जाती है। हालांकि मुझे याद नहीं पड़ता कि आज तक किसी चुनाव में किसी उम्मीदवार का नामांकन इन दो कारणों से रद्द हुआ हो। अब चूंकि नया दिवालिया कानून आ गया है तो शायद इसमें बदलाव हो। इसके अलावा कुछ अधिसूचित अपराधों में किसी व्यक्ति को अगर सजा हुई है तो उसका नामांकन भी रद्द हो सकता है। इन अपराधों में समाज के विभिन्न समूहों में नफरत फैलाना, रिश्वत लेना, बलात्कार, जातिगत भेदभाव, तस्करी, आतंकवाद, नशीले पदार्थों का सेवन और व्यापार, राष्ट्रीय ध्वज का अपमान और सति प्रथा को बढ़ावा देने जैसे गुनाह शामिल हैं। सजा होने के 6 साल बाद तक व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता।
चुनाव मैदान में उतरने वाले उम्मीदवारों के लिए चुनाव आयोग की तरफ से जारी हैंडबुक में कहा गया है कि:
“एक शब्द में, जब कोई आपके नामांकन पत्र पर आपत्ति करे तो आपको निर्वाचन अधिकारी को यह विश्वास दिलाना चाहिए कि आपका नामांकन किसी मामूली वजह या किसी तकनीकी कारण से रद्द नहीं करना चाहिए। अगर निर्वाचन अधिकारी उम्मीदवार और उसके प्रस्तावक की पहचान से संतुष्ट है तो वह सिर्फ तकनीकी आधार पर या प्रत्याशी या प्रस्तावक के नाम में मामूली गलती या किसी अन्य अधूरी या गलत सूचना के कारण नामांकन पत्र रद्द नहीं करेगा।”
इसके अलावा कहा गया है कि:
"उम्मीदवार को निर्वाचन अधिकारी को यह भी बताना चाहिए कि अगर उसने नामांकन पत्र किसी मामूली और तर्कहीन तकनीकी आधार पर रद्द किया तो इसे अनुचित निरस्तीकरण माना जाएगा और इससे पूरी चुनाव प्रक्रिया के रद्द होने की आशंका होगी जो कि लोगों के पैसे, समय और ऊर्जा का नुकसान मानी जाएगी।"
मेरा मानना है कि इस प्रक्रिया में कोई खामी नहीं है सिवाए जमानत राशि और उसे जब्त किए जाने के। ऐसे उम्मीदवार जो कुल पड़े वोटों का 16.6 फीसदी वोट हासिल नहीं कर पाते उनकी जमानत राशि जब्त हो जाती है। मीडिया में कई बार इस किस्म की खबरें आती हैं और विरोधी इसका मज़ाक भी उड़ाते हैं।
हमारे देश के पहले चुनाव से अब तक करीब 75 फीसदी उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो चुकी है। चुनाव आयोग की हैंडबुक के मुताबिक सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारो के लिए जमानत राशि 10,000 रुपए और एससी/एसटी उम्मीदवारों के लिए 5000 रुपए है। यह कोई बड़ी रकम नहीं है। और रकम छोटा होने के कारण चुनाव मैदान में उतरने वालों की संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है।
एक तरफ तो इससे ऐसे लोगों की मंशा पूरी होती है जो नामांकन दाखिल करते हैं और सौदेबाज़ी कर अपना नाम वापस ले लेते हैं। जमानत राशि जब्त करने का चलन लगभग सभी कॉमनवेल्थ देशों में है। हमारे यहां भी अंग्रेज़ों ने ही यह परंपरा शुरु की। लेकिन अब इसे जारी रखने का कोई ठोस कारण नजर नहीं आता।
जमानत राशि जब्त करने के नियम से खास तौर से ऐसे लोग हतोस्ताहित होते हैं जो किसी बड़ी राजनीतिक पार्टी से नहीं जुड़े हैं। जमानत जब्त करने का नियम एक तरह से उन लोगों को नाकाम साबित करने जैसा लगता है जो 16.6 फीसदी वोट हासिल नहीं कर पाते।
इससे वे छोटे-छोटे समूह या दल भी हतोत्साहित होते हैं जो अपने गंभीर मुद्दों के लिए चुनाव में आना चाहते हैं। लेकिन यह नियम उन्हें ऐसा करने से रोकता है। हमारी कोशिश तो सभी भारतीयों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हिस्सा लेने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, और इसके लिए जमानत राशि के नियम पर पुनर्विचार करना होगा।
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