मृणाल पाण्डे का लेखः सिर्फ हुनर सिखाने वाली शिक्षा से नहीं खत्म होगी असमानता, घरेलू परिवेश असल जड़

स्किल अपग्रेडेशन के नाम पर मंत्रालय, नई शिक्षा नीतियों के लिए बनाए आयोगों की रपटों और तमाम उच्च शिक्षा संस्थानों में गरीब-पिछड़े बच्चों के लिए आरक्षण लागू करने के बावजूद अमीर-गरीब के बीच के फासले कम नहीं हुए, बल्कि ये खाई और गहरी होती जा रही है।

रेखाचित्रः नवजीवन 
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मृणाल पाण्डे

शिक्षा एक ऐसा मसला है जिस पर चर्चा उठते ही हर पढ़ा-लिखा, यानी रोज अखबार पढ़ने और टीवी पर खबरें सुनने वाला, भारतीय जानकार ‘पांडे’ बन बैठता है। आम राय यही बनती है, कि देश की लगातार खराब होती जा रही शिक्षा प्रणाली ही भारतीय गरीबी और सामाजिक असमानता की मूल वजह है। हुनरमंदी को बढ़ाने वाली शिक्षा प्रणाली बनकर लागू हुई नहीं कि गरीबी, बेरोजगारी और सामाजिक विषमताएं अपने आप मिट जाएंगी और देश आगे चलेगा नहीं साहब, दौड़ने लगेगा।

अनुभव के उजास में यह बात कतई गलत साबित होती है। आरक्षण और कोचिंग स्कूलों के बावजूद हमारे देश में जितने कॉलेज डिग्री धारक बेरोजगार आज हैं, उतने पहले कभी नहीं थे। कॉलेज की डिग्री मध्यवर्गीय श्रेणी में जाने का पासपोर्ट नहीं बनी, तो सिसकती बेरोजगारी के मारों को यह मजाकिया सा संदेश दिया गया कि वे पकौड़े के ठेले लगा लें। क्यों नाहक कॉरपोरेट या सरकारी नौकरियों के लिए मरे जा रहे हैं? स्वरोजगारी बनें और अपने छोटे-मोटे उपक्रम शुरू करें, धन बरसने लगेगा।

पर इसी के तुरंत बाद नोटबंदी की मार आई और बैंकों से कर्जा लेकर अपनी जुगत लगा रहे कई छोटे-मोटे उपक्रमी बिना खड्ग बिना ढाल, सड़कों पर बेहाल कर दिए गए। उच्च शिक्षा केंद्रों से मिली डिग्रियों का आज गरीबी या सामाजिक विषमता हटाने लायक बेहतरीन रोजगारों से कोई रिश्ता नहीं। सूचना तकनीक और मीडिया से सेवा क्षेत्र तक नई तरह की नौकरियां, नई तरह के हुनर मांगती हैं, जो कॉलेज नहीं देते।

अब स्किल अपग्रेडेशन के नाम पर मंत्रालय बना, नई-नई शिक्षा नीतियों के लिए आयोग बैठे, रपटें बनीं, अच्छे निजी स्कूलों और सरकारी स्वीकृति और सब्सिडियों से चलने वाले तमाम उच्च शिक्षा संस्थानों में गरीबों-पिछड़ों के युवाओं के लिए आरक्षण लागू किया गया। पर अमीर-गरीब के बीच के फासले कम नहीं हुए, लगातार बढ़ते चले गए हैं। शिक्षा पर शोध करने वालों ने पाया है कि किसी बच्चे के घरेलू माहौल का उसकी शैक्षणिक क्षमता पर सबसे गहरा और स्थाई असर पड़ता है।

हमारे अखबार हर बार यूपीएससी परीक्षाओं या बोर्ड के नतीजे आने पर एक-दो कहानियां किसी रिक्शावाले या ठेलेवाले या घरेलू नौकरानी के बच्चे की चमकदार सफलता पर लिखकर तालियां पिटवा लेते हैं। लेकिन जब तक व्यापक तौर से सामाजिक और आर्थिक विषमताएं नहीं मिटतीं, तब तक हम उनको फ्रीशिप, फ्री किताब-कापियां और आरक्षित सीटें दिलवा भी दें, तो भी अनपढ़ अभिभावकों वाले कितने उन बच्चों से, जो दिन-रात अपराध, गंदगी, बीमारियों और अभाव के बीच मलिन बस्तियों में रहने को बाध्य हैं, उनसे हम कई पीढ़ियों से साक्षर, सुरक्षित और सुपोषित मध्यवर्गीय बच्चों से सक्षम प्रतिस्पर्धा की उम्मीद नहीं कर सकते।

हर बरस जो युवा आईआईटी, मेडिकल कॉलेज या आईआईएम में आरक्षित कोटे से आने के कारण सवर्ण संपन्न छात्र सहपाठियों और कई बार शिक्षकों की प्रताड़ना न सह पाने पर खुदकुशी करते हैं, उसकी बड़ी वजह उन बच्चों और उनके प्रताड़कों के बीच खड़े अपरिचय के विंध्यांचल ही तो हैं। यह सही है कि शिक्षा का कोई विकल्प नहीं और अच्छी शिक्षा खरा सोना है। लेकिन हमारे यहां जो सचमुच गुणवत्तायुक्त शिक्षण संस्थान हैं, उन तक आज भी अधिकतर गरीबों की पहुंच नहीं है। उनके बच्चे कॉलेज गए भी तो उनको तीसरे-चौथे दर्जे के परिसरों में ही दाखिला मिल पाता है।


गरीबी कम करने में राज्यों की न्यूनतम मजदूरी दर का काफी हाथ रहता है। इसलिए 1996 से समय-समय पर तात्कालिक महंगाई दर के परिप्रेक्ष्य में इसे बढ़ाया जाता रहा है। फिर भी कुछ राज्यों में तो यह दर 50 से 100 रुपये दैनिक तक ही है। इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इतनी आमदनी वाले परिवारों का जीवन कैसा होता होगा।

गत तीन जुलाई को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 2018 की कीमतों के आधार पर नए सिरे से तय न्यूनतम मजदूरी के एक नए कोड को स्वीकृति दे दी, जो जल्द ही इसी सत्र में लोकसभा के पटल पर रखा जाएगा। इस बाबत श्रम मंत्री संतोष गंगवार और ग्रामीण विकास मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने बताया कि विशेषज्ञों की समिति द्वारा बनाए गए इस नए कोड में सबसे बड़े जनाधार वाली ग्रामीण रोजगार योजना, मनरेगा को तो शामिल नहीं किया गया है।

एक जाने-माने कॉरपोरेट विशेषज्ञ अंग्रेजी में लिखते हैं कि गरीबी हटाने की बजाय अमीरी लाने के प्रयास अधिक तरक्की लाएंगे। क्या कहने? ठोस सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2014 से उम्मीद से बहुत कम नए रोजगारों का सृजन हो पाया है। और जब रोजगार इतने कम हो जाएं, तो सबसे निचली पायदान पर खड़ी महिला श्रमिक सबसे अधिक दुष्प्रभावित होती हैं। पर सरकार अमीरी लाने को कमर कस ले तो मजदूरों का क्या?

ताजा विशेषज्ञ समिति के अनूप सतपथी ने सारे देश के मजदूरों के लिए 375 रुपये की दैनिक न्यूनतम मजदूरी दर तय करने का जो सुझाव दिया था, उसको या क्षेत्रीय विषमताओं को देखते हुए दिए गए विकल्प को (कि पश्चिम भारत के पांच इलाकों में न्यूनतम मजूरी दर 342 रुपये दैनिक हो, और उत्तर के अपेक्षा या गरीब इलाकों में इसे 440 रुपये दैनिक की दर से लागू किया जाए) भी मंत्रिमंडल द्वारा जस का तस पारित नहीं किया गया।

फिलहाल सरकार ने जो कोड पारित कराया है, उसके तहत इस दर को सुझाई गई दर के आधे से भी कम यानी 178 रुपये दैनिक पर कर दिया गया है, जिसका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मजदूर इकाई बीएमएस और वामपंथी मजदूर संगठन सीटू दोनों ने मुखर विरोध किया है। सरकार की नई न्यूनतम मजूरी दर को बीएमएस ने बेमतलब और सीटू ने सीधे-सीधे मजदूर विरोधी ठहराया है।

इन पांच सालों का रिकॉर्ड देखकर लगता है कि सत्ता की राय में भी भारतीय जनता के बीच गरीबी और सामाजिक विषमता कम करने के लिए अमीरी, यानी कॉरपोरेट गतिविधियों और शहरीकरण को बढ़ावा मिले। इसके तहत बड़े खदान, सिंचाई और बिजली उत्पादन के उपक्रमों, विशाल सड़कों के जाल को बनाना जरूरी ही नहीं अनिवार्य है। अन्न हम चाहे आयात कर लें, लेकिन किसानी-गरीबी की काट से पहले सरकारी और निजी स्तर पर उन उपक्रमों को हर तरह से तवज्जो देनी होगी, जिसके लिए विदेशी कंपनियां पूंजी लगाने को राजी हैं।


फिर क्षोभ जताया जाता है कि जेएनयू और कभी इलाहाबाद सरीखे परिसरों में युवा छात्र उपद्रवी होते रहते हैं। उनको सुनने की बजाय अब परिसरों को बदलने की मुहिम जारी है। लगभग सदी पुराना इलाहाबाद विश्वविद्यालय का छात्रसंघ बंद कर दिया गया है। जेएनयू परिसर को खुफिया कैमरों और पुलिसिया जत्थों से लैस कर वहां केंद्र की पसंद के कुलपति नियुक्त किए गए हैं। परिसर में भारत माता की भक्ति बढ़ाने के लिए सैकड़ों फीट ऊंचे झंडे फहरवाने के केंद्रीय फरमानों से राष्ट्रभक्ति की नई किस्म की छवि बनाई जा रही है। और महिला सशक्तीकरण का सवाल उच्च शिक्षा की बजाय उनको कुकिंग गैस सिलिंडर उपलब्ध कराने और शौचालय निर्माण तक सिमटा दिया गया है।

हार्वर्ड विश्वविद्यालय की चर्चित शोध संस्था ई-पॉड (एविडेंस फॉर पॉलिसी रिसर्च) की भारतीय कामगार महिलाओं की स्थिति पर ‘श्रिंकिंग शक्ति’ (सिकुड़ती शक्ति) शीर्षक वाली शोध रपट के अनुसार पिछले दशक में संगठित तथा असंगठित, दोनों ही तरह के भारतीय कामगारों में महिलाओं की भागीदारी में चिंताजनक गिरावट आई है और 2.5 करोड़ कमासुत महिला कामगार कार्यक्षेत्र से बेदखल हो गई हैं।

विडंबना यह है कि बेटी पढ़ाओ सरीखी योजनाओं से फायदा लेकर हमारी बच्चियां अभूतपूर्व तादाद में स्कूल जाने लगी हैं, पर उनके सपनों को पंख देने वाले रोजगार लगातार कतरे जा रहे हैं। विकासशील देशों के गुट ‘ब्रिक्स’ में हम महिलाओं को रोजगार देने के क्षेत्र में सबसे निचली पायदान पर और जी-20 देशों की तालिका में नीचे से दूसरी पायदान पर खड़े हैं।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार जब महिलाएं घर से बाहर निकल कर काम करने लगती हैं, तो उनकी घरेलू आय में तो बढ़ोतरी होती ही है, उनके देश की उत्पादकता दर भी 48 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। ‘श्रिंकिंग शक्ति’ रपट का भी आकलन है, कि अगर आज भारत में सारी इच्छुक महिलाओं को रोजगार मिल जाए तो भारत की कुल राष्ट्रीय आय में आराम से 27 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी संभव है।

कामकाजी महिलाओं के पारिवारिक और स्वास्थ्यगत पैमानों में भी काम न करने वाली औरतों की तुलना में शोध ने उल्लेखनीय बेहतरी देखी। क्योंकि अधिकतर कामकाजी महिलाएं बहुत कम उम्र में मां नहीं बनतीं, उनके बच्चों के बीच का अंतराल भी सही होता है और जो विवाहिता लड़कियां काम पर जाती हैं, उनकी बहिनों की शादी भी असमय नहीं की जाती। राज तथा समाज दोनों के समवेत प्रयास महिलाओं की बहुमुखी तरक्की का ग्राफ बनाते हैं। अगर सरकार महिलाओं को सही तरह से सही किस्म के रोजगार, प्रशिक्षण तथा संरक्षण दे, तो समाज भी उनका मोल समझकर महिलाओं पर लगाई गई अपनी कई सामाजिक वर्जनाएं खुद ही धीरे-धीरे शिथिल कर देता है।

भारत में आज कृषि क्षेत्र और ग्रामीण जोत के आकार, दोनों सिकुड़ रहे हैं जिससे खेती-बाड़ी या पशुपालन के पारंपरिक कामों से महिलाएं बड़ी तादाद में बेदखल हुई हैं। उधर महिला स्वतंत्रता के खिलाफ कट्टरपंथी उभार के बावजूद हमारा पड़ोसी बांग्लादेश महिलाओं को तेजी से स्वावलंबी और हुनरमंद कामगार बनवा कर हमसे बेहतर प्रदर्शन कर रहा है। इसीलिए इस बात का प्रावधान सरकार को करना जरूरी है कि न्यूनतम मजूरी दरें तय करने में विशेषज्ञों की सुनी जाए और मुनाफाखोर मालिकान महिलाओं को समान वेतन देने में ना नुकुर न कर सकें।

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