बलिदान दिवस: मजलूमों की आवाज बनना ही सच्ची भारतीयता और इंदिरा गांधी का जीवन इसका प्रतीक
इंदिरा जी ने वैश्विक स्तर पर भी कमजोर कहे जाने वाले मुल्कों की लड़ाई लड़ना, आजादी के लिए जूझते उस वक्त के पूर्वी पाकिस्तान की आवाम का साथ देना जरूरी समझा। वहां भी कठिन रास्ता चुना। कितना आसान था चीन, अमेरिका का पिछलग्गू हो जाना।
31 अक्टूबर को इंदिरा जी का बलिदान दिवस है। वह कहती थीं कि उनके दादाजी ने एक बार उनसे कहा था– “जीवन में दो रास्ते होते हैं; एक आसान और दूसरा मुश्किल। दूसरा रास्ता चुनो क्योंकि उसमें प्रतिस्पर्धा कम होगी।’’ इंदिरा जी ने जीवन-पर्यंत दूसरा कम प्रतिस्पर्धा वाला रास्ता ही चुना।
कितनी आसानी से वह ताकतवर वर्ग की विशिष्टता और ‘प्राधन्य’ की प्रवक्ता बन सकती थीं। उनके संसाधनों का इस्तेमाल कर सत्ता पर काबिज रह सकती थीं। जैसा कि हम आज के हुक्मरानों को करते हुए देखते हैं। लेकिन उन्होंने ‘विशिष्टता’ को तोड़ने, प्राधन्य को चुनौती देने वाला मुश्किल मार्ग चुना। उनको सुना, जिनकी कभी सुनवाई नहीं हुई। ‘गरीबी’ को भारतीय राजनीति के केन्द्र में ले आईं। वह ‘गरीबी’ को अवसरों की अनुपलब्धता, निशक्तता मानने वाली पहली राजनेता थीं। गरीबी को बापू तन के साथ-साथ मन या आध्यात्मिक कुपोषण का कारण मानते थे। सृजन, कल्पनाशीलता, नैतिकता को नष्ट करने वाला समझते थे। इंदिरा जी उस मर्म को महसूस करती थीं।
वह जान गई थीं कि आर्थिक एकाधिपत्य को तोड़े बगैर राजनीतिक, सामाजिक सत्ता हस्तांतरण बेमानी है। विशिष्ट वर्ग ने संसाधनों के बांध बना रखे हैं। उसको तोड़े बिना हर एक व्यक्ति का सम मूल्यांकन असंभव है। बाबा साहेब ने संविधान सभा के अंतिम उद्बोधन में इस ओर इंगित कर दिया था। इंदिरा जी ने आर्थिक सत्ता हस्तांतरण के लिए पुख्ता कदम उठाए। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि इस कदम के बगैर सत्ता हस्तांतरण और स्थानीय स्वशासन के लिए बाद में राजीव जी द्वारा की गई पहल सफल नहीं हो पाती।
उस वक्त सभी बैंक पूंजीपतियों/उद्योगपतियों द्वारा संचालित थे। भारत की 80 फीसदी जनता गांव में रहती थी और काश्तकारी से जुड़ी थी। मगर बैंकों का जाल नगरों तक सीमित था। 1969 में 20 बैंकों के राष्ट्रीयकरण तथा भारतीय स्टेट बैंक की सहयोगी शाखाओं ने सार्वजनिक बैंकिग प्रणाली को मजबूत किया।
इस अद्भुत फैसले के बाद जहां 1969 में 8,187 ही शाखाएं थीं, मार्च, 2019 तक आते-आते 1,41,756 हो गईं। 1969 तक एक फीसदी गांव में भी शाखाओं की पहुंच नहीं थी। जाहिर है कि ग्रामीण कृषक या खेत मजदूर खातेदार होने की सोच भी नहीं सकते थे। उन्हें कर्ज योग्य माना ही नहीं जाता था। निजी बैंक अपने विशिष्ट वर्ग को ही कर्ज दिया करते थे, यानी एक दरवाजे से लेते और पुनः दूसरे से लौटा लेते। बैंक उनकी अपनी तिजोरी थी। जबकि राष्ट्रीय आय में उद्योग का योगदान 15 फीसदी था और कृषि का विकास दर में करीबन 50 फीसदी योगदान था। मगर बैंकों द्वारा दिए गए कुल कर्ज का 67 फीसदी हिस्सा औद्योगिक होता था। इंदिरा जी के फैसले ने बैंक की विशिष्टता को समाप्त किया।
आज निजीकरण के समर्थक अपने जन-धन खाते इसी राष्ट्रीयकरण के फैसले के चलते खुलवा पाए हैं। इस फैसले ने सूदखोरी पर लगाम लगाई। यह वही दौर था जब भारत को निरंतर अकाल का सामना करना पड़ता था। वह मानती थी कि आत्मनिर्भरता के बिना कभी सम्मान नहीं मिल सकता। एम. एस. स्वामीनाथन के नेतृत्व में हरित क्रांति का आगाज किया। राष्ट्रीयकृत बैंकों ने इस नई क्रांति को संस्थागत आधार दिया, भूमि सुधार के काम हुए और सिंचाई, भंडारण का विस्तार हुआ। एक समय में अमेरिका से लाल गेहूं लेने के लिए विवश भारत अपने किसानों की गाढ़ी मेहनत के कारण खुद खाद्यान्न में आत्मनिर्भर हुआ और चुनौती का सामना करते हुए दूसरे मुल्कों की मदद करने के काबिल बन सका।
यह मानना होगा कि अतिशय रासायनिक खाद निर्भरता ने भूमि की उर्वरकता को प्रभावित किया है। मगर उस वक्त की कल्पना करना जरूरी है जब देश में दुष्काल के कारण दो जून की रोटी मिलना नामुमकिन-सा था। हम एक नई जैविक हरित क्रांति की ओर बढ़ सकते हैं। मगर ऐसी परिकल्पना भुखमरी के माहौल में नहीं हो सकती।
उत्पादकता के बढ़ने से ग्रामीण क्षेत्र में स्वावलंबन की नई बयार चली। राजनीतिक, सामाजिक तौर पर शहरी क्षेत्र के धनाढ़्यों का हावी होना रुका। सत्ता संतुलन मे ग्रामीण क्षेत्र का पलड़ा बराबरी के नजदीक पहुंचा। इसी समय उन्होंने पूंजीवादी एकाधिपत्य के खिलाफ भी कानून बनाया। आदिवासी और अनुसूचित जाति उपयोजना के जरिये हाशिये पर खड़े वर्ग को उबारा। सहकारिता के क्षेत्र को मजबूती प्रदान की गई।
हालांकि यह कहा जाता है कि उनके द्वारा प्रिवीपर्स और उपाधियों को समाप्त करना प्रतीकात्मक कदम था। यह याद रखना होगा कि तब न सिर्फ अंग्रेजी राज से बल्कि करीबन 550 देशी रियासतों से भी आजाद हुए मात्र 25 वर्ष बीते थे। इसके विपरीत हजारों साल रियासतों की गुलामी में बिताए गए थे। जबकि आज भी राजनीतिक, सामाजिक गलियारों मे ‘हुकुम’ ‘महाराज’ आदि संबोधन सुनाई पड़ते हैं, तब इतने साल पहले उस कदम को किस तरह से सामंतवादी वर्ग ने देखा होगा? उस कदम ने आवाम की मानसिक गुलामी पर करारा हमला किया। गौरतलब है कि 31 अक्तूबर को ही सरदार पटेल की जन्म जयंती भी है। उन्होंने देशी रियासतों के विलय में बड़ी भूमिका निभाई थी। ‘लौह पुरुष’ के इस कार्य को सदी की ‘लौह महिला’ ने अंजाम तक पहुंचाया।
इंदिरा जी ने वैश्विक स्तर पर भी कमजोर कहे जाने वाले मुल्कों की लड़ाई लड़ना, आजादी के लिए जूझते उस वक्त के पूर्वी पाकिस्तान की आवाम का साथ देना जरूरी समझा। वहां भी कठिन रास्ता चुना। कितना आसान था चीन, अमेरिका का पिछलग्गू हो जाना। उन्होंने रूस के साथ भी समता का रिश्ता बनाया। वह ‘भारतीयता’ को घुटने टेकते हुए नहीं देख सकती थीं। देश की अस्मिता के लिए किसी हद तक भी जा सकती थीं। उनसे जब कहा गया कि वह समुदाय विशेष के अंगरक्षकों को हटा दें, तब उन्होने साफ इंकार कर दिया। प्रधानमंत्री होते हुए पूरे समुदाय पर तोहमत लगाना भारतीयता नहीं है। चंद गुमराह लोगों, संगठनों के लिए किसी पूरे समुदाय को दोष देना उचित नहीं। यह उनका पक्का विचार था। आज के हुक्मरानों को चाहिए कि वे गहनों, कपड़ों, नगरों, भाषा, बोली तक को हिन्दू-मुसलमान बनाकर पेश करने से बाज आएं। यह भारतीयता नहीं है। चाहे जितनी कठिनाई आए, कमजोर, मजलूम की आवाज बनना ही भारतीयता है। यही इंदिरा जी के जीवन और बलिदान का सार था।
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