आकार पटेल का लेख : क्या हैं वे संकेत जो बताते हैं कि भारत में तानाशाही और सत्तावादी शासन जम चुका है

तानाशाही की परिभाषा बताती है, ‘सरकार का ऐसा रूप जिसमें किसी एक व्यक्ति या व्यक्तियों के छोटे समूह के पास प्रभावी संवैधानिक सीमाओं के बिना पूर्ण शक्ति होती है’ पाठक खुद तय कर लें कि क्या ये परिभाषाएं आज भारत में जो कुछ हो रहा है, उससे मेल खाती हैं।

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आकार पटेल

हाल ही में ध्रुव राठी नाम के एक युवा का एक वीडियो काफी लोकप्रिय हुआ, जिससे सरकार समर्थक काफी आक्रोशित हो गए। इस वीडियो का सार मोटे तौर पर इसके शीर्षक से समझा जा सकता है, जो था, ‘क्या भारत एक तानाशाही देश बन रहा है?’ इस वीडियो में मिसाल के तौर पर हाल के चंडीगढ़ चुनाव में बीजेपी द्वारा की गई दुस्साहसी छेड़छाड़ को शामिल किया गया है और साथ ही विपक्षी नेताओं के खिलाफ सरकारी एजेंसियों के इस्तेमाल को उजागर किया गया है।

शब्दकोश में तानाशाही की जो परिभाषा है वह बताती है, ‘सरकार का ऐसा रूप जिसमें किसी एक व्यक्ति या व्यक्तियों के छोटे समूह के पास प्रभावी संवैधानिक सीमाओं के बिना पूर्ण शक्ति होती है’ और 'सरकार का एक रूप जिसमें पूर्ण शक्ति एक व्यक्ति या एक छोटे समूह में केंद्रित होती है।' अब यह पाठकों के विवेक पर है कि तय करें कि क्या ये परिभाषाएं आज भारत में हमारे चारों ओर जो कुछ हो रहा है, उससे मेल खाती हैं।

फासीवादी शब्द की तरह तानाशाह शब्द का भी अत्यधिक उपयोग किया जाता है और इसमें इसका वास्तविक अर्थ खो सकता है क्योंकि इसे परिभाषा के बजाय दुरुपयोग के शब्द के रूप में देखा जाता है। जब सामाजिक वैज्ञानिक आशीष नंदी ने मुख्यमंत्री बनने से पहले हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री से मुलाकात का जिक्र किया, तो उन्होंने यह लिखा:

'यह एक लंबा, उलझा देने वाला इंटरव्यू था, लेकिन इससे मुझे कोई शक नहीं रहा कि यह तो एक फासीवादी का क्लासिक और नैदानिक मामला है। मैं कभी भी 'फासीवादी' शब्द का प्रयोग दुर्व्यवहार के रूप में नहीं करता हूं; मेरे लिए यह एक नैदानिक श्रेणी है जिसमें न केवल किसी की वैचारिक स्थिति बल्कि विचारधारा को प्रासंगिक बनाने वाले व्यक्तित्व लक्षण और प्रेरक पैटर्न भी शामिल हैं।'


आशीष नंदी ने आगे लिखा, ‘मुझे पाठकों को यह बताते हुए कोई खुशी नहीं हो रही है कि मोदी उन सभी मानदंडों पर खरे उतरे हैं जो मनोचिकित्सकों, मनोविश्लेषकों और मनोवैज्ञानिकों ने सत्तावादी व्यक्तित्व पर वर्षों के अनुभवजन्य काम के बाद स्थापित किए थे। उनमें शुद्धतावादी कठोरता, भावनात्मक जीवन की संकीर्णता, प्रक्षेपण के अहंकार की रक्षा का व्यापक उपयोग, इनकार और हिंसा की कल्पनाओं के साथ अपने स्वयं के जुनून के डर का समान मिश्रण था – ये सभी स्पष्ट  मानसिक और जुनूनी व्यक्तित्व लक्षणों के पैमानों के भीतर थे। मुझे अभी भी वह शांत, नपा-तुला लहजा याद है जिसमें उन्होंने भारत के खिलाफ लौकिक साजिश के सिद्धांत को विस्तार से बताया था, जिसने हर मुसलमान को एक संदिग्ध गद्दार और संभावित आतंकवादी के रूप में चित्रित किया था। मैं इस इंटरव्यू को करने के बाद वहां से सिहरता हुआ निकला था...'

आइए फिर से तानाशाही के विषय की ओर लौटते हैं। मेरे विचार से एक कम भावनात्मक और अधिक विश्वसनीय प्रश्न यह पूछा जाना चाहिए कि क्या हम सत्तावादी शासन के अधीन हैं। सत्तावादी को 'दूसरों की इच्छाओं या राय के प्रति चिंता की कमी' के रूप में परिभाषित किया गया है। अब आइए कुछ ऐसे संकेतकों पर नजर डालें और देखें कि क्या यही सबकुछ हो रहा है। और ये सब क्या हैं?

सबसे पहली बात, क्या सरकार के अंदर जो लोग हैं उनकी इच्छाओं और विचारों की किसी को चिंता है? इसे समझने के लिए दो महत्वपूर्ण मामलों को देखना होगा जिनसे हमें निश्चित सबूत मिलेगा। पहला है 24 मार्च 2020 को देश भर में लगाया गया लॉकडाउन। बीबीसी ने लॉकडाउन के एक साल बात 240 आरटीआई अर्जियां डालकर जानना चाहा था कि मोदी सरकार में किन-किन लोगों को यह जानकारी थी कि आज शाम लॉकडाउन लगने वाला है? क्या इस बारे में आपदा प्रबंधन से सलाह-मशविरा किया गया था? क्या वित्त मंत्रालय या स्वास्थ्य मंत्रालय से इस विषय में सलाह ली गई थी।? इन सवालों पर सरकार का जवाब था, ‘नहीं।’ किसी से भी न तो इस बारे में कोई सलाह ली गई और न ही किसी को सूचित किया गया था।


दूसरी मिसाल है नोटबंदी। 8 नवंबर 2016 को मोदी सरकार के मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई गई और मंत्रियों को कहा गया कि वे अपने मोबाइल फोन लेकर नहीं आएंगे, इसका अर्थ था कि मंत्रियों को उन्हें इस बारे में तब तक कोई जानकारी नहीं थी जब तक कि 8 नवंबर क शाम को प्रधानमंत्री ने खुद नहीं बताया कि उस रात के 12 बजे से 1000 रुपए और 500 रुपए मूल्य के नोट बेकार हो जाएंगे। चूंकि मंत्रियों को ही नहीं पता था, इसलिए मंत्रालयों को भी इसकी हवा नहीं थी, और इसीलिए उन्होंने इस बारे में कोई तैयारी भी नहीं की थी।

संसदीय व्यवस्था वाली सरकार के कामकाज का तरीका होता है कि हर मामले में एक सामूहिक जिम्मेदारी होती है। लेकिन न्यू इंडिया में ऐसा नहीं होता।

भारत में तो, अब राष्ट्राध्यक्ष को निर्देश दिया जाता है कि नई संसद के उद्घाटन में उन्हें शामिल नहीं होना है क्योंकि प्रधानमंत्री खुद इस कार्यक्रम की अध्यक्षता करना चाहते हैं और प्रोटोकॉल के हिसाब से ऐसा तभी हो सकता था जब राष्ट्राध्यक्ष यानी राष्ट्रपति वहां न हों। इसी तरह और इसी कारण से मंदिर के उद्घाटन में भी राष्ट्रपति को नहीं बुलाया गया, क्योंकि यहां भी प्रधानमंत्री सर्वेसर्वा होने वाले थे। इस पर सवाल नहीं उठाया गया, विरोध तो हुआ ही नहीं, क्योंकि इस बात को मोटे तौर पर स्वीकार कर लिया गया है कि सब जगह सिर्फ एक ही व्यक्ति को ही नजर आना है। आप उस व्यक्ति की फोटो हर जगह दे ख सकते हैं, आप बच नहीं सकते इससे।

प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) का दुरुपयोग करके इस सरकार ने विपक्ष के साथ क्या किया है और क्या कर रही है, इस पर हमें बहुत ज्यादा समय खर्च करने की जरूरत नहीं है। इस बारे में तो रोजाना अपडेट होता ही है। किसी को इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा है कि संवैधानिक विपक्ष की 'इच्छाओं और विचारों' के लिए किसी किस्म की फिक्र है।

सिविल सोसायटी (नागरिक समाज) में से जिसने भी अपनी असहमति जताई, उन्हें तो सीधे जेल में डाल दिया गया क्योंकि वे जो कुछ कहते हैं उससे बरदाश्त नहीं किया जाता है।

और, आखिर में, हमें इस बात को देखना ही चाहिए कि बाहरी दुनिया भारत के बारे में क्या कह रही है। इस महीने, गोथेनबर्ग विश्वविद्यालय की वार्षिक वी-डेम इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट में कहा गया है: 'भारत की निरंकुशता प्रक्रिया को अच्छी तरह से रिकॉर्ड किया गया है, जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में लगातार और बड़ी गिरावट, मीडिया की स्वतंत्रता से समझौता, सोशल मीडिया पर कार्रवाई, सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों का उत्पीड़न आदि शामिल है। साथ ही नागरिक समाज पर हमले और विपक्ष को डराना भी शामिल है।'


इसी तरह के निष्कर्ष फ्रीडम हाउस से आए हैं, जिसने भारत को 'आंशिक रूप से स्वतंत्र' का दर्जा दिया है; नागरिक समाज संगठनों का वैश्विक गठबंधन सिविकस, भारत को 'दमित' मानता है और इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट, ने भारत को 'त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र' के रूप में वर्गीकृत किया है।

ऐसे सूचकांक दुनिया के किसी भी देश में नहीं हैं, यहां तक कि उन देशों में भी जिन्हें हम मित्र और सहयोगी मानते हैं, और जो बताते हों कि 2014 के बाद से भारतीय अधिक स्वतंत्र हो गए हैं और भारत कम सत्तावादी हो गया है। इस बारे में कोई वस्तुनिष्ठ तर्क भी नहीं है। प्रधानमंत्री के समर्थक, और मैं स्वीकार करता हूं कि ऐसे कई तर्क हैं, जो रखे जा सकते हैं, इसके बजाय हमें यह बता सकते हैं कि ऐसा क्यों है कि उनका दैवीय अधिनायकवाद हमारे और हमारे देश के लिए इतना अच्छा है।

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