'अमृतकाल' में भी हंगर इंडेक्स पर औंधे मुंह गिरे भारत और बड़ी आबादी को देना पड़े राशन, फिर चुप क्यों है सरकार!
हम अमृतकाल और आत्मनिर्भरता जैसे भारी-भरकम जुमलों और शब्दों का इस्तेमाल कर सरकार की नाकामी पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहे हैं।
कभी-कभी कई अहम मुद्दे और बातें खबरों से बाहर रहती हैं, और इसीलिए इन सब पर ध्यान देते रहने की जरूरत है। पत्रकारों और स्तंभकारों को अपनी प्राथमिक भूमिका सिर्फ इसलिए नहीं छोड़नी चाहिए क्योंकि मनोरंजन करने वाली सामग्री पाठकों और दर्शकों को ज्यादा पसंद आ रही है।
2014 में, ग्लोबल हंगर इंडेक्स पर भारत की रैंकिंग, 76 देशों में 55 पर थी। 2020 में 107 देशों में यह 94 पर आ गई। पिछले साल यानी 2021 में 116 देशों में भारत 101 नबंर पर था। और, कल यानी 15 अक्टूबर को सामने आई रिपोर्ट के मुताबिक 2022 में 121 देशों में भारत का स्थान 107वां है।
इस रैंकिंग की 100-बिंदुओं के स्कोर पर की जाती है जो भूख की गंभीरता को दर्शाती है। इस रैंकिंग किसी देश का स्कोर अगर शून्य है तो वह सबसे अच्छा स्थान है और अगर किसी का स्कोर 100 है तो वह सबसे खराब स्थिति है। इस पैमाने पर भारत का स्कोर 29.1 है जिसे 'गंभीर' श्रेणी माना जाता है। 2020 में, हमारे स्कोर में गिरावट इसलिए हुई क्योंकि 2014 और 2019 के बीच पांच वर्षों में चाइल्ड वेस्टिंग (यानी लंबाई के अनुपात में कम वजन का होना) 2010-2014 में 15.1 प्रतिशत से बढ़कर 17.3 प्रतिशत हो गई थी।
इस साल भी चाइल्ड वेस्टिंग बढ़कर 19.4 हो गई है, जो 20 वर्षों में सबसे अधिक है और न केवल भारत की खराब स्थिति को दर्शाता है बल्कि यह दुनिया के किसी भी देस की औसत स्थिति से बदतर है। इसी तरह देश में कुपोषण 2018-2020 में 14.6 फीसदी से बढ़कर 2019-2021 में 16.3 फीसदी हो गया। यानी 22 करोड़ से ज्यादा भारतीय भूखे सोते हैं।
इससे पहले इसी साल संयुक्त राष्ट्र की पांच एजेंसियों ने 'स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रिशन इन द वर्ल्ड' रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 2019-2021 में 40 फीसदी भारतीय खाद्य असुरक्षा का शिकार थे और अकेले भारत में दुनिया की कुल गंभीर रूप से खाद्य-असुरक्षित आबादी का एक तिहाई से अधिक हिस्सा था।
हमें इससे आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए क्योंकि सरकार को तो इस तथ्य पर गर्व है कि 80 करोड़ भारतीयों, यानी करीब 60 प्रतिशत आबादी को वह हर महीने पांच किलो मुफ्त अनाज और एक किलो दाल के लिए कतार में लगाए हुए है। और ऐसा दो साल से अधिक वक्त से हो रहा है।
सवाल यह है कि भारत में सरकार ऐसी रिपोर्टों पर कैसे प्रतिक्रिया देती है? जब पिछले साल की रिपोर्ट आई, तो केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री पुरुषोत्तम रूपाला ने राज्यसभा को बताया कि सरकार ने निष्कर्षों की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाया है। उन्होंने कहा: “कुछ एनजीओ ने सर्वेक्षण किया है। हमने उनसे पूछा है कि किस आधार पर इस नतीजे पर पहुंचे हैं? उन्होंने अभी तक जवाब नहीं दिया है। हमारे यहां तो गांव में जब भी कोई गली का कुत्ता भी जन्म देता है, भले ही वह काटता हो, फिर भी हमारे यहां कि महिलाएं उन्हें शीर (मीठा पकवान) देती हैं। इसलिए, जिस देश में ऐसी परंपरा मौजूद है, ऐसे में एक एनजीओ आता है और हमारे बच्चों के बारे में ऐसी रिपोर्ट जारी करता है, हमें ऐसी रिपोर्टों के प्रति संवेदनशील नहीं होना चाहिए। जहां तक इन सर्वेक्षणों का सवाल है, स्वस्थ और मजबूत बच्चों की भी गिनती की जाती है..समाज में जागरूकता होनी चाहिए, हमारी गतिशील मंत्री स्मृति (ईरानी) जी ने जन आंदोलन शुरू किया है, और 13 करोड़ कार्यक्रम किए गए हैं।“
2012 में, नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, उस समय उनसे वॉल स्ट्रीट जर्नल ने पूछा था कि 2006 तक पांच साल से कम उम्र के आधे गुजराती बच्चे बौने थे, या उनकी उम्र के हिसाब से उनकी लंबाई बहुत कम थी। और ऐसा भारत सरकार की तरफ से जारी नवीनतम आंकड़ों के आधार पर सामने आया था।
इस सवाल पर नरेंद्र मोदी ने जवाब दिया था (जिसे टाइम्स ऑफ इंडिया ने रिपोर्ट किया था) कि, "मध्यम वर्ग स्वास्थ्य के प्रति जागरूक होने के बजाए सौंदर्य को लेकर ज्यादा चिंतित रहता है यानी जागरूक रहता है, यह एक चुनौती है। अगर एक मां अपनी बेटी को दूध पीने के लिए कहती है, तो उनका झगड़ा हो जाता है, क्योंकि वह अपनी माँ से कहती है कि, 'मैं दूध नहीं पीऊँगी। मैं मोटा हो जाऊंगी।"
हंगर इंडेक्स में भारत की रैंकिंग पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी खराब है, लेकिन फिर भी ऐसी सूचनाएं और खबरें अब हमें प्रभावित नहीं करती हैं। और कहने की बात नहीं, फिर भी बता दें कि नेपाल और श्रीलंका भी हमसे बेहतर स्थिति में हैं। चीन, जिसे हम अपना प्रतिस्पर्धी मानते हैं, वह भी उन टॉप 17 देशों में हैं जिन्हें कोई व्यक्तिगत स्कोर नहीं दिया गया क्योंकि वहां भूखमरी बेहद कम है।
बताते चलें कि भारत की प्रति व्यक्ति आय अब बांग्लादेश से भी कम है, लेकिन यह खबर भी हमें चिंतित नहीं करती है। देश की अर्थव्यवस्था में गिरावट भी ऐसा ही मुद्दा है जो किसी अन्य देश में होता तो हलचल हो जाती, लेकिन हमारे यहां तो इसे दूर से देखकर मुंह फेर लिया जाता है।
मैंने अपनी किताब में पहले भी कहा है कि मैंने 53 ऐसे वैश्विक सूचकांकों की पड़ताल की है जिन्हें सरकार सुधारने की कोशिश कर रही है। लेकिन 2014 के बाद से इन 53 में से 49 मोर्चों पर भारत की स्थिति लगातार गिर रही है।
हम अमृतकाल और आत्मनिर्भरता जैसे भारीभरकम जुमलों और शब्दों का इस्तेमाल कर सरकार की नाकामी पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि किसी भी चुनी हुई सरकार का मुख्य काम सक्षम रूप से शासन करना और भारतीयों के जीवन में सुधार करना है, क्योंकि आज भारतीयों की स्थिति दुनिया के कुछ सबसे गरीब और दयनीय देशों के साथ है। और इसका यह अर्थ तो कतई नहीं है कि पिछली सरकारों ने जो बनाया था उसे कब्जा कर उसे बर्बाद कर दें।
लेकिन हमने किया तो यही सबकुछ है। इसकी कीमत सबसे गरीब भारतीय रोजाना चुका रहे हैं, और मीडिया इन सब पर सरकार को बचने का मौका देते हुए उससे सवाल नहीं करता है। यही कारण है कि ऐसी स्थितियां जब एक के बाद एक हमारे सामने आ रही हैं तो इन बातों पर उन सभी के ध्यान में लाया जाना चाहिए जो सुनने के इच्छुक हैं।
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