एक हजार साल से छींकना, खांसना नहीं सीख पाए भारतीय, फिर कोरोना से लड़ना कैसे सीख पाएंगे?
भारत के डाक्टर कोरोना वायरस से प्रकोफ से बचने के लिए लोगों को छींकने और खांसने की तमीज सीखा रहे हैं। इस तरह के कई वीडियो सोशल मीडिया पर देखने को मिल सकते हैं। प्रेस कॉफ्रेंस किए गए जिनमें मीडिया से छींकने, खांसने के तरीकों के प्रचार की अपील की जा रही है।
भारत के डाक्टर कोरोना वायरस से प्रकोफ से बचने के लिए लोगों को छींकने और खांसने की तमीज सीखा रहे हैं। इस तरह के कई वीडियो सोशल मीडिया पर देखने को मिल सकते हैं। प्रेस कॉफ्रेंस किए गए जिनमें मीडिया से छींकने, खांसने के तरीकों के प्रचार की अपील की जा रही है।
डाक्टर बता रहे हैं उस व्यक्ति को अपने दाहिने बांह से मुंह को ढंक लेना चाहिए जिसे छींक आ रही है। यही तरीका खांसने का भी होना चाहिए। डाक्टरों की यह बात छोटी सी लग सकती है। लेकिन छींकना और खांसना नहीं सीख पाने की इतिहास में एक सामाज शास्त्रीय अड़चन दिखती है। भारतीय समाज का बड़ा हिस्सा एक हजार साल में भी क्यों छींकना, खांसना, नाक साफ करना नहीं सीख पाया ?
एक हजार साल पुरानी बात है। भारतीय समाज को देखने और समझने के लिए एक इतिहासकार आया। उसका नाम था अल बिरूनी। तब के समाज के बारे में उन्होंने अपनी आंखों देखी बातें लिखी है और उसे बेहद प्रामाणिक माना जाता है। उनकी बातों की सच्चाई को आज भी हम अपनी आदतों के जरिये परख सकते हैं।
छींकने को अशुभ माना जाता है
वे लिखते हैं कि यहां के लोग छींकने को अशुभ या अपशकून मानते हैं। आज भी भारतीय परिवारों में जब किसी को छींक आती है तो बड़े-बूढ़े यही कहते हैं कि छींकना अशुभ होता है। छींक सुनकर यात्रा रोक देते हैं। बजाय इसके कि छींकने के तरीके पर टोका जाता रहा है। किसी समूह में भी जब कोई छींकता हैं तो छींकने वाले को क्या कभी यह कहकर टोका जा सकता हैं कि उसके छीकों के साथ जो भी निकलता है वह शरीर की गंदगी होती है और उसमें विषाणु भी हो सकते हैं?
बात केवल छींकने की ही नहीं है बल्कि कई ऐसी आदतें हैं जो शरीर की एक स्वाभाविक प्रक्रिया होती है। लेकिन वह सामाजिक तौर पर हानिकारक हो सकता है। लेकिन उनमें से ज्यादातर आदतों को या तो अंधविश्वास से जोड़ दिया गया है या फिर उसकी इस रुप में परवाह ही नहीं की गई कि उससे दूसरे को परेशानी हो सकती है। सामंती मिजाज इसके आड़े आता है।
भारतीय समाज के बारे में इतिहासकार अल बिरूनी के विवरण बेहद दिलचस्प हैं। वे लिखते हैं कि लोग ऐसे हैं कि थूकते और नाक छिनकते समय भी आसपास बैठे लोगों का कोई लिहाज नहीं करते हैं। इस आदत का अध्ययन करें तो भारतीय समाज में केवल जगह जगह नहीं थूकने के लिए लोगों को समझाने में कितनी उर्जा और संसाधन लगें होंगे। लेकिन सुधार के ये सभी प्रयास एक तरह से विफल हुए हैं। इनमें प्रयासों का भी दोष है लेकिन नतीजे एक हजार साल पुराने वाले ही हैं।
वायु निकालने को शुभ माना जाता है
अल बिरूनी ने दूसरी कई आदतों के बारे में भी लिखा है। उनके अनुसार भारतीय समाज में आसपास बैंठे लोगों के सामने ही सिर में पड़े जूएं को भी मारने में संकोच नहीं किया जाता है। यह आमतौर पर भारतीय परिवारों में अब भी देखने को मिल सकता है। एक और गंदी आदत के बारे में अल बिरूनी ने जिक्र किया है जिसे हम शरीर से वायु निकालना कहते है। वायु निकालने की भाषा सभ्य है। आम तौर पर उसके लिए एक शब्द इस्तेमाल किया जाता है वह है- पादना। अल बिरुनी के विवरणों को अनुवाद करने वाले ने इसे अधोवायु लिखा है । अनुवादक ने भदेस कहलाने के भय और संकोच से यह किया गया होगा। लेकिन किसी समूह में अधोवायु निकालने की आदतों को भी अंधविश्वास से जोड़ दिया गया है। उसके बारे में कहा गया है कि भारतीय समाज में अधोवायु को शुभ समझा जाता है।
दिन भर की आदतों में उन आदतों को पहचानना जिसे दूसरों के लिए नुकसानदेह माना जा सकता है, यह समाज के किन लोगों की जिम्मेदारी होती है। अहमद नदीम कासमी की विश्व प्रसिद्ध कहानी लारेंस ऑफ थलेमिया में एक दृश्य है। बड़े मालिक नौकर को इतना मार चुके हैं कि हांफ रहे हैं और आसपास खड़े लोग मालिक से सुन रहे हैं “भरी मजलिस में कहता हैं- मलकजी तहमद संभालो, नंगे हो रहे है। इस हरामजादे से कोई पूछे कि तुझे क्या तकलीफ हो रही थी। मैं नंगा हो रहा था , तेरी मां तो नंगी नहीं हो रही थी” नौकर बदन का वह हिस्सा ढंक लेने के लिए टोकता है जिसे आमतौर पर सभ्य समाज में ढ़ककर रखा जाता है। जो आस पास खड़े थे उनका सांस्कृतिक निर्माण किस रूप में उस समय हो रहा है , इस पर विचार किया जा सकता है।
किसी भी समाज में आदतों को सामाजिक और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक के रुप में पहचान करना और फिर उसमें सुधार के लिए लोगों को समझना एवं ठीक करने का कार्यक्रम किसकी जिम्मेदारी हो सकती है? समाज में जिन लोगों का वर्चस्व रहा है और जो लोग आदतें डालने और आदतें छुड़ाने के लिए तत्पर रहे हैं यदि उनकी खुद की संस्कृति लोगों की आदतों को जब शुभ और अशुभ से जोड़ने की रही है तो सुधार को सोच भी नहीं आ सकती है।
अछूत की बीमारी के नियम सख्ती से लागू करने पर जोर
एक हजार वर्षों में जिस तरह के राजनीतिक और सांस्कृतिक विचारों का वर्चस्व रहा है उसने समाज के बड़े हिस्से की आदतों में सुधार की तरफ ध्यान देने की भी जरूरत नहीं महूसस की है क्योंकि वह खुद इन आदतों का शिकार रहा है। शासन के अधीन लोगों के बीच यदि आदतें सुधरी हुई है तो ऐसे वर्चस्व के हालात में उसके विकृत होने के हालात ज्यादा हो सकते हैं। भारतीय समाज में इंसानों के बीच अछूतपन को धार्मिक मान्यता रही है। उदाहरण के लिए महावारी के दौरान महिलाएं और सामान्य तौर पर दलितों के साथ अछूतपन के खिलाफ कितना सुधार हो सका है ? सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व द्वारा ऐसी आदतों को सामाजिक बुराई के रूप में न देखें जाने की वजह सभी नागरिकों को एक समाज के रूप में देखने का नजरिया ही नहीं रहा है।
अल बिरूनी लिखते हैं कि लोग नाखून बढ़ाते हैं और अपने आलस्य का गुणगान करते है क्योंकि वे नाखूनों का इस्तेमाल किसी काम में नहीं करते हैं और सुखद आलस्य का जीवन बिताते हुए वे उनसे अपना सिर खुजाते हैं और बालों में जूं की तलाश करते हैं।
अंग्रेजों की सत्ता के बाद से अब तक
ब्रिटिश सत्ता के कायम होने के बाद भारतीय समाज में जब स्कूल नामक संस्थाओं का विस्तार हुआ तो स्कूलों में बच्चों के नाखून देखे जाते थे। नाखूनों को बढ़ाकर रखने वाले बच्चों को दंडित किया जाता था। मैंने एक गुरुद्वारा स्थित स्कूल में पढ़ाई की। वहां स्कूल के मास्साब यानी टीचर हर हफ्ते नाखून देखा करते थे। जब बाल बढ़े हुए महसूस होते थे तो बालों को कटवाने की हिदायत दी जाती थी। लेकिन स्कूल भी भारतीय समाज के कितने बच्चों को नसीब होता रहा है? एक तरह से यह कहा जाए कि स्कूल का शिक्षक एक समाज में सीमित सांस्कृतिक सुधार का एक नया नेतृत्व सामने आया था।
भारतीय समाज में लोगों की आदतों में नुकसानदेह आदतों की पहचान करना और उन्हें ठीक करना राजनीतिक पार्टियों का भी काम नहीं माना जाता है। महात्मा गांधी ने अपने आंदोलन में सफाई पर जोर दिया। याद किया जाता है कि 2 अक्टूबर के दिन शहर के बहुत सारे लोग झाडू लेकर पूरे शहर में घूमते थे। मेरे शहर के मुहल्ले में मेरे पड़ोसी बूजुर्ग सुबह सुबह उठकर पूरी गली में झाड़ू लगा देते थे।बिहार में जब लालू यादव ने सत्ता संभाली तो उन्हें कई वैसे गांवों में जाते देखा गया जहां कि लोग बदहाली और गंदगी के साथ जीने के लिए मजबूर किए जाते थे। लालू यादव ने दो चार घटनाओं में बच्चों के बाल, नाखून काटने के लिए प्रेरित किया लेकिन वे महज विज्ञापन और प्रचार से ही दृश्य बन सके। जीने की आदतों में सुधार को लेकर सरकारी खजानों का बंदर बांट तो हुआ लेकिन कोई आंदोलन नहीं देखा गया। अल बिरूनी के लिखने के एक हजार साल बाद मीडिया से बातचीत और मीडिया में विज्ञापनों के जरिये कोराना वायरस की महामारी को फैलने की एक वजह यह बताई जा रही है कि वह छीकों, थूक के छींटों के जरिये एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के फैल सकता है और हाथों के बाजू से ढंककर खांसना, और छींकना और हाथ को धोते रहना ही इस वायरस से बचने का कारगर इलाज है।
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