संविधान: यह महज़ एक छोटी सी लाल किताब भर नहीं है
संविधान नागरिकों के बीच एक तालमेल है। संविधान पर हस्ताक्षर की 75वीं वर्षगांठ पर हमें उन प्रतिज्ञाओं को फिर से दोहराना चाहिए, कि यह तालमेल एक राष्ट्र के रूप में अपनी संप्रभु स्वतंत्रता की रक्षा करने और देश के भीतर स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए है।
पचहत्तर साल पहले, हमारे पूर्वजों ने एक विभाजित उपमहाद्वीप पर एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण किया, जिसकी कल्पना एक पुरानी सभ्यता की निरंतरता के रूप में की गई थी। ‘इंडिया, दैट इज भारत’ एक ऐसा विचार था जिसकी प्रतिज्ञा उपनिवेशवाद के बाद की दुनिया में पूरी हो रही थी। बहुत कम लोगों ने इसे समझा है। विंस्टन चर्चिल के एक बयान का हवाला देते हुए अकसर चेतावनी दी गई थी कि, ‘अगर भारत को आज़ादी दे दी गई, तो सत्ता बदमाशों, उपद्रवियों और लुटेरों के हाथों में चली जाएगी; सभी भारतीय नेता बेहद कम समझदारी वाले और तुच्छ लोग होंगे। उनकी ज़ुबान मीठी होगी लेकिन वे अंदर से मूर्ख होंगे। वे सत्ता के लिए आपस में लड़ेंगे और भारत राजनीतिक झगड़ों में कहीं खो जाएगा। एक दिन ऐसा आएगा जब भारत में हवा और पानी पर भी कर लगाया जाएगा।’
आज 26 नवंबर, 2024 को जब हम इसी दिन 1949 में भारतीय संविधान को अपनाने की 75वीं वर्षगांठ मना रहे हैं, तो यह एक अजूबा ही है कि हम आज भी मजबूती से खड़े हुए हुए हैं। 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में दिए अपने अंतिम संबोधन में डॉ. आंबेडकर ने भी अपनी कुछ आशंकाएं व्यक्त की थीं। उन्होंने कहा था, "क्या इतिहास खुद को दोहराएगा? यह विचार ही मुझे चिंता से भर देता है। यह चिंता इस तथ्य के अहसास से और भी गहरी हो जाती है कि जातियों और पंथों के रूप में हमारे पुराने दुश्मनों के अलावा, हमारे पास विविध और विरोधी राजनीतिक पंथों वाली कई राजनीतिक पार्टियां होंगी। क्या भारतीय अपने देश को अपने धर्म से ऊपर रखेंगे या धर्म को देश से ऊपर रखेंगे? मुझे नहीं पता। लेकिन इतना तो तय है कि अगर पार्टियां धर्म को देश से ऊपर रखेंगी तो हमारी आजादी दूसरी बार खतरे में पड़ जाएगी और शायद हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी।“
हाल की घटनाओं से स्पष्ट है कि देश के शांतिपूर्ण कामकाज के बजाए राजनीतिक संप्रदाय को बढ़ावा दिया गया है। ‘इंडिया दैट इज भारत’ की जगह ‘भारतीयता’ की धारणा को स्थापित किया जा रहा है, जिससे ‘भारत के विचार’ को पीछे धकेल दिया गया है। हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान की परिकल्पना का सीधा सा तात्पर्य यही है कि जिन लोगों की पहचान इन मानदंडों के अंतर्गत नहीं आती है, उन्हें सार्वजनिक मामलों में कम भागीदारी और कम बोलने का अधिकार स्वीकार कर लेना चाहिए। यदि नागरिकता हक पाने का अधिकार है, तो धर्म और भाषा पर आधारित बहुसंख्यकवाद उन लोगों को कुछ अधिकार देने से इनकार करने के लिए दृढ़ संकल्पित है जो इस खास अनुमानित पहचान के अनुरूप नहीं हैं।
दुनिया भर में लोकतंत्र की परिकल्पनाएं धराशायी होती दिख रही हैं। अब आबादी पर लोकलुभावन लोगों का कब्जा है जो लोकतांत्रिक शासन से ऊपर चुनावी जीत को महत्व देते हैं। ऐसी अदालते हैं जो अब संवैधानिक सीमाओं को सत्ता के पहरेदार के रूप में देखना बंद कर चुके हैं। संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या अब निरंकुशता के खिलाफ विराम और सुरक्षा उपाय के बजाय सत्ता को बढ़ाने और उसे और ताकत देने के रूप में की जाती है। जस्टिस लर्नेड हैंड ने सही ही चेतावनी दी थी कि, "मैं अक्सर सोचता हूँ कि क्या हमारी उम्मीदें संविधान, कानून और अदालतों पर बहुत ज़्यादा नहीं टिकी हुई होती हैं। ये झूठी उम्मीदें हैं; मेरा विश्वास करो, ये झूठी उम्मीदें हैं। आज़ादी पुरुषों और महिलाओं के दिलों में होती है; जब यह उम्मीदें दिलों में ही मर जाती है, तो कोई संविधान, कोई कानून, कोई अदालत भी इसकी मदद नहीं कर सकती। जब तक यह दिल में है, इसे बचाने के लिए किसी संविधान, किसी कानून या अदालत की ज़रूरत नहीं है।"
इन हालात में हमें अपने संवैधानिक इरादों और वचनों को नए सिरे से समझना चाहिए। संविधान केवल राजनीतिक रैलियों में लहराने वाली छोटी सी लाल किताब नहीं है। यह सरकार के विभिन्न अंगों के प्रशासनिक कामकाज के लिए एक ऑपरेटिंग सिस्टम बनाने वाले निर्देशों का एक मैनुअल मात्र नहीं है। यह कोई पवित्र पुस्तक नहीं है, जिसके अस्पष्ट अर्थ दिल्ली के भगवानदास रोड पर किसी बड़े मंदिर में काले वस्त्र पहने पुजारियों द्वारा लंबी बहस के बाद बताए जाते हैं। भारतीय संविधान यह सब कुछ है लेकिन इससे भी कुछ अधिक है।
संविधान का मूल एक लोकतांत्रिक देश में नागरिकों के बीच एक गंभीर समझौते में निहित है, जो एक राष्ट्र के रूप में अपनी संप्रभु स्वतंत्रता की रक्षा करने और देश के भीतर स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए है। यह समझौता भाईचारे का है, जो स्वतंत्रता और समानता पर आधारित है। भारतीयों के रूप में हमारा पंथ कहता है कि सभी भारतीय भाई-बहन हैं। सबसे गरीब, सबसे विनम्र भारतीय देश के सबसे अमीर और सबसे शक्तिशाली व्यक्ति के बराबर भाई या बहन है। प्रत्येक नागरिक को यह एहसास होना चाहिए कि उसके अधिकार समान हैं और प्रत्येक दूसरे नागरिक के अधिकारों के प्रयोग पर निर्भर हैं। प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह सरकार या अन्य साथी नागरिकों द्वारा किसी भी तरह के हनन या उपेक्षा के खिलाफ अपने भाइयों के अधिकारों की रक्षा करे। हम केवल हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी, जैन, यहूदी, नास्तिक और अज्ञेयवादी नहीं हैं जिन्हें हालात के चलते एक ही भूगोल साझा करना पड़ता है, बल्कि हम सभी भारतीय हैं जो एक ऐसे राष्ट्र का सपना देखते हैं जो राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय सुनिश्चित करता है।
इस ख्वाब को हकीकत बनाने के लिए संविधान ने आखिरी, सबसे कमज़ोर और भुला दिए गए लोगों के लिए एक प्रकाश स्तंभ के रूप में काम किया है। झारखंड में पत्थलगड़ी आंदोलन के आदिवासियों ने अपने संवैधानिक अधिकारों को अपने गांवों के बाहर पत्थरों पर लिखकर अफसरों को याद दिलाया कि वे भी नागरिक हैं। उडुप्पी के एक जूनियर कॉलेज की तीन लड़कियों ने क्लासरूम में हिजाब पहनने के अपने संवैधानिक रूप से संरक्षित अधिकार का दावा किया। शाहीन बाग और दूसरी जगहों पर प्रदर्शन करने वाले लोगों ने ही सरकार को बताया कि वह नागरिकता देने में धर्मों के बीच भेदभाव नहीं कर सकती। राष्ट्रीय राजधानी की सीमाओं पर प्रदर्शन कर रहे किसानों ने ही जोर देकर कहा कि कृषि का कॉर्पोरेटीकरण उनके खेतों की कीमत पर नहीं किया जा सकता।
ऐसे और दूसरे मामलों में भी, संविधान एक मुखरता की नुकीली तलवार और सुरक्षा की चौड़ी ढाल दोनों के रूप में मौजूद था। ‘कर्मण्ये वाधिकारस्थे’- का सिद्धांत जहां व्यक्ति से बिना किसी पुरस्कार या फल की उम्मीद के अपने कर्तव्य का पालन करने की अपेक्षा की जाती है- इस पर पले-बढ़े समाज के लिए संविधान में व्यक्तिगत अधिकारों और सामूहिक भाईचारे पर जोर एक क्रांतिकारी सिद्धांत है।
यह याद रखना भी जरूरी है कि संविधान की परिकल्पना और सपना, इस पर हस्ताक्षर से पहले हिंसा के एक दशक के भयावह दौर के बीच जन्मा था। द्वितीय विश्व युद्ध, यहूदी नरसंहार, परमाणु बमों के हमले, विभाजन की हिंसा में लाखों लोगों का मारा जाना और महात्मा गांधी की हत्या, इन सभी ने संविधान सभा में बहस को प्रभावित किया। और इस सबसे निकले परिणामी दस्तावेज़ को बचे हुए लोगों की प्रतिज्ञा के रूप में भी देखा जाना चाहिए, ताकि अतीत के हिंसक कारणों को फिर से न दोहराया जाए। तीन पीढ़ियों के बाद, हम उनमें से कुछ सबक भूल गए होंगे, लेकिन हमें न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया की टिप्पणी को दोहराते रहना चाहिए कि हमारा संविधान प्रेम से पैदा हुआ था, न कि घृणा से।
1787 में, जब फिलाडेल्फिया में संवैधानिक सम्मेलन के अंतिम सदस्य अमेरिकी संविधान के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर कर रहे थे, बेंजामिन फ्रैंकलिन ने राष्ट्रपति की कुर्सी (जॉर्ज वाशिंगटन की कुर्सी) की ओर देखा, जिसके पीछे एक उगते हुए सूरज का चित्र था। उन्होंने अपने आस-पास के कुछ सदस्यों को बताया कि चित्रकारों को अपनी कला में उगते सूरज और डूबते सूरज के बीच अंतर करना मुश्किल हो गया था।
उन्होंने कहा: "मैंने सत्र के दौरान और इसके मुद्दों के बारे में मेरी आशाओं और आशंकाओं के उतार-चढ़ाव के दौरान कई बार राष्ट्रपति की कुर्सी के पीछे देखा है, बिना यह बताए कि यह उग रहा है या डूब रहा है: लेकिन अब आखिरकार मुझे यह जानकर खुशी हुई है कि यह उगता हुआ सूरज है, डूबता हुआ सूरज नहीं।"
अब समय आ गया है कि हम यह पता लगाएं कि भारत में संविधानवाद का सूरज उग रहा है या डूब रहा है।
जय हिंद, जय संविधान, जय भीम!
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