भारत-पाकिस्तान विभाजन: नासमझी के अंधेरे में रोशनी की जरूरत

राष्ट्रीय आंदोलन से स्वतंत्रता के अमृत-कलश के साथ विभाजन का गरल-पात्र भी निकला था। डेढ़ करोड़ से ज्यादा लोगों को घर-बार छोड़कर शरणार्थी बनना पड़ा या पगलाई हिंसा में दस लाख से ज्यादा लोगों की जान चली गई थी।

फोटो: सोशल मीडिया
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प्रमोद जोशी

राष्ट्रीय आंदोलन से स्वतंत्रता के अमृत-कलश के साथ विभाजन का गरल-पात्र भी निकला था। डेढ़ करोड़ से ज्यादा लोगों को घर-बार छोड़कर शरणार्थी बनना पड़ा या पगलाई हिंसा में दस लाख से ज्यादा लोगों की जान चली गई थी। अफसोस इस बात का है कि जो कभी दुनिया के सबसे समृद्ध क्षेत्रों में से एक था, वह आज सबसे पिछड़े इलाकों में शुमार किया जाता है। आज 75 साल बाद भी हम मिलकर स्वतंत्रता दिवस नहीं मना सकते। यह असंभव विचार है। पर क्यों? पाकिस्तान ने तो अपने स्वतंत्रता दिवस की तारीख भी खींचकर एक दिन पीछे 14 अगस्त कर दी। क्यों और कैसे? उस दिन तो पाकिस्तान बना ही नहीं था।

इस रोग का नाम है विभाजन। पिछले 75 साल में दोनों देशों में घट रही ज्यादातर नकारात्मक बातों में से ज्यादातर का वास्ता विभाजन से है। धार्मिक आधार पर हुए बंटवारे के अलावा इस दुश्मनी की बुनियादी वजह क्या है? खान-पान, बोली, पहनावा, रहन-सहन, गीत-संगीत, मनोरंजन, खुशियां और गम एक-जैसे हैं। मानव-विज्ञान की परिभाषा में एक ‘रेस’ या एक ‘स्टॉक’ के लोगों की यह दुश्मनी अद्भुत है। स्वतंत्रता के 75 साल की खुशी के साथ हम चाहे-अनचाहे दुश्मनी के 75 साल का शोक भी मना रहे हैं। अजब बात है कि खाड़ी-देशों, यूरोप और अमेरिका में दोनों-प्रवासियों के बीच रिश्ते बेहतर हो सकते हैं, अपने देशों में रहते हुए नहीं।

आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, वैज्ञानिक और हर तरह के मामलों में दक्षिण एशिया की शक्लो-सूरत को जितना स्वतंत्रता ने संवारा, उससे ज्यादा ‘पार्टीशन’ ने बिगाड़ा है। कपड़े के ताने-बाने को खींचकर उसके धागों को अलग-अलग करने से ज्यादा मुश्किल है सामाजिक ताने-बाने को उधेड़ना, पर विभाजन ने वही किया। पिछले 75 वर्षों में भारत और पाकिस्तान में धार्मिक-जुनूनी हिंसा से भारी नुकसान हुआ। सब विभाजन की देन है। वह क्यों हुआ, इस पर बहस चलाइए। जुनून कैसे रुकेगा, इस पर भी विचार कीजिए। जबर्दस्त खूंरेजी के बावजूद विभाजन के कुछ समय बाद तक लोग मानते रहे कि मुल्क दो बन गए, पर आना-जाना लगा रहेगा। दोनों तरफ रिश्तेदारियां थीं, लोग तो उन्हें निभाएंगे। पहले दो-तीन साल पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त को मना। फिर किसी को लगा कि यह गलत हो रहा है। दोनों तरफ से आना-जाना चलता रहा। आज वह भी मुश्किल है। शुरुआती वर्षों में दोनों के बीच ‘वीजा ऑन अराइवल’ था। पहले से वीजा की जरूरत नहीं थी। सन 1965 की लड़ाई तक यह व्यवस्था जारी थी। वह खत्म हो गई। आज दुनिया की सबसे मुश्किल वीजा व्यवस्था इन दो देशों के बीच है। भारत ने 2013 में वाघा मार्ग से आने वाले 65 साल से ऊपर के पाक-नागरिकों के लिए ‘वीजा ऑन अराइवल’ की व्यवस्था की है। उसके व्यावहारिक रूप का पता नहीं। अलबत्ता पाकिस्तानी ऑनलाइन वीजा के लिए दुनिया के जो चार देश अधिकृत नहीं हैं, उनमें इजराइल, आर्मेनिया और सोमालिया के साथ भारत भी है। दोनों देशों के दो-दो पत्रकारों को एक-दूसरे के यहां रहने की इजाजत थी। सन 2014 आते-आते यह व्यवस्था खत्म हो गई। पाकिस्तान में भारतीय पत्रकार की पाकिस्तान-स्मृतियां मीना मेनन की किताब ‘रिपोर्टिंग पाकिस्तान’ में पढ़ी जा सकती हैं। दोनों देशों के बीच पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों का आवागमन संभव नहीं है। असंभव परदेस बेशक हम केवल दो अलग-अलग नहीं हैं बल्कि ‘असंभव-परदेस’ हैं। तमाम बदमजगियों के बावजूद हाल तक खेल के रिश्ते बने हुए थे। संगीतकारों, लेखकों, गायकों और अभिनेताओं का आना-जाना हो जाता था। बॉलीवुड की फिल्मों में पाकिस्तानी कलाकार काम कर रहे थे। धीरे-धीरे सब खत्म हो गया। भारत की फिल्में पाकिस्तान में लोकप्रिय थीं, उनके प्रदर्शन पर रोक लग गई। बेरुखी की जैसी पराकाष्ठा इन दो पड़ोसियों में है, वैसी दुनिया में शायद ही कहीं हो। प्रोफेसर इश्तियाक अहमद पाकिस्तानी मूल के स्वीडिश नागरिक हैं जो स्टॉकहोम यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र और इतिहास के प्रोफेसर रहे हैं। वह अब रिटायर हो गए हैं लेकिन अब भी उनका यूनिवर्सिटी से संबंध बना हुआ है। हाल में उनकी दो किताबें काफी चर्चित रही हैं। पहली है- ‘पंजाब-ब्लडीड, पार्टीशंड एंड क्लींज्ड’ और दूसरी- ‘जिन्ना-हिज सक्ससेज, फेल्यर्स एंड रोल इन हिस्ट्री’। यूट्यूब पर उनका एक चैनल भी है जिसमें वह ‘आज का सवाल’ शीर्षक से रोजमर्रा की बातों के अलावा भारत-पाकिस्तान रिश्तों और खासतौर से विभाजन की परिस्थितियों पर रोशनी डालते हैं। इश्तियाक अहमद दोनों देशों के लोगों को लेकर कुछ गहरी और तीखी बातें कहते हैं। वह कहते हैं कि भारतीय भूखंड में मजहब का वर्चस्व बहुत ज्यादा है। यूरोप में तब्दीली वैज्ञानिक क्रांति की वजह से आई जिसमें बाइबिल की अथॉरिटी जीरो हो गई। निजी अकीदा रह गया, सन ऑफ गॉड, जीसस, लेकिन यह सब निजी मामले तक सिमट गया। चर्च तो यहां के खाली बैठे हुए हैं। मैं यहां 47 साल से हूं। मैंने किसी स्वीड को किसी चर्च में नहीं जाते देखा। तो यह दुनिया इस तरह बदली है।


बीमारी है विभाजन

वह कहते हैं कि बीमारी है विभाजन। जो नैरेटिव बने खासतौर से पाकिस्तान में, कि हिंदुस्तान हमें खत्म करना चाहता है। अब भारत में भी इस तरह की बातें होती हैं। आप तुलना करना चाहते हैं तो पश्चिमी यूरोप को देखें। उन्होंने सबसे ज्यादा जंगें लड़ीं अपने आप के साथ। सबसे ज्यादा हत्याएं कीं। आखिर में जो फैसला हुआ, वह यूरोपीय यूनियन के तौर पर सामने है। भारत और पाकिस्तान के लोगों को अक्ल आ जाए, समझ आ जाए तो यह इलाका यूरोपीय यूनियन की तरह बन सकता है। इस इलाके के लोगों ने जंगें देखी भी नहीं हैं। छोटी-मोटी लड़ाइयां देखी हैं, यूरोप जैसी टोटल वॉर नहीं जिसमें लाखों मरे और लाखों बेघर हो गए।

विभाजन एक सच्चाई है, ऐतिहासिक परिघटना है। हमारे सोचने से पहिया उल्टा नहीं घूमेगा। हमें वास्तविकता को स्वीकार करके आगे बढ़ना ही होगा। अच्छे पड़ोसी बनना होगा। दक्षिण एशिया दुनिया की प्राचीनतम सभ्यता का केंद्र है। केवल ज्ञानविज्ञान का केंद्र ही नहीं, यह दुनिया के सबसे समृद्ध इलाकों में शामिल रहा है। आज नासमझी के अंधेरे ने हमें घेर रखा है। रोशनी की जरूरत है। जहर फैल रहा है, अमृत की जरूरत है। उस घाव को भरने के लिए जो पिछले 75 साल से हरा है। लुकमान जैसे हकीम और सुश्रुत जैसे शल्य-चिकित्सक की जरूरत है और समझदार राजनीति की, जो दूर तक सोचे।

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