जॉर्ज ऑरवेल के मनहूस देश ओशीनिया से काफी कुछ मिलने लगा है भारत, सत्य को खत्म करने की निरंतर कोशिश
दरअसल, बीजेपी तो उससे भी एक कदम आगे बढ़ चुकी है और सत्य को चुन-चुनकर खत्म कर रही है।
चिंता की बात है कि आज के भारत में जॉर्ज ऑरवेल के उपन्यास ‘1984’ में वर्णित मनहूस देश ओशिनिया के तमाम लक्षण दिखने लगे हैं। ओशिनिया में एक मंत्रालय होता है ‘मिनिस्ट्री ऑफ ट्रुथ’ जो अपने नाम के ठीक उलट ‘झूठ के मंत्रालय’ की तरह काम करता है। उसका काम है इतिहास को फिर से लिखना ताकि सत्ता के लिए असुविधाजनक किसी भी रिकॉर्ड को हटाया/संशोधित किया जा सके, समाचारों को संपादित/सेंसर किया जा सके और यह सुनिश्चित हो सके कि सबकुछ वैसा ही हो, जैसा सरकार चाहती है। इसके साथ ही यह भी सुनिश्चित हो कि जनता को वही पता हो जो ताकतवर सत्ता प्रतिष्ठान के मुताबिक उसे पता होना चाहिए। यह सबसे महत्वपूर्ण मंत्रालय है क्योंकि यह मनुष्य के मन को नियंत्रित करता है जिससे सभी तानाशाह डरते हैं।
उपन्यास में ओशिनिया के शासकों ने यह स्वयंसिद्ध सबक अच्छी तरह सीख लिया है: जो वर्तमान को नियंत्रित करता है, वह अतीत को नियंत्रित करता है और जो अतीत को नियंत्रित करता है, वह भविष्य को नियंत्रित करता है। यह कहावत बीजेपी के हजार साल (फिलहाल इसका संक्षिप्त पड़ाव 2047 है) के लिए ‘जर्मन राज्य’ की तर्ज पर अपनाए गए दृष्टिकोण के केंद्र में है। दोनों में यही एक अंतर है कि बीजेपी ऑरवेल से एक कदम आगे निकल गई है- तथ्यों को मिटाने और असत्य को स्थापित करने का काम सिर्फ एक मंत्रालय तक सीमित नहीं है, बल्कि इसे संसद से लेकर नगर निगमों तक कई संस्थानों को सौंप दिया गया है।
इस घातक अभियान को अंजाम देने के लिए बिके हुए मीडिया और डरे-सहमे नौकरशाह के माध्यम से पार्टी मुफीद जमीन तैयार कर रही है ताकि कपोल-कल्पना और झूठ के बीज बोए जा सकें। इतिहास से इस पार्टी की नफरत समझी जा सकती है और यह सही भी है क्योंकि आजादी से पहले के दिनों से लेकर 1990 तक यह भारतीय इतिहास के पन्नों पर केवल फुटनोट की हैसियत में रही। यह बात उसे खटकती रहती है और इसीलिए इसे दुरुस्त करने की जॉर्ज ऑरवेल की शैली में पुरजोर कोशिशें की जा रही हैं।
इस दिशा में पहला कदम रहा देश में 300 साल की मुगल विरासत को मिटाना। इसी के तहत सड़कों और शहरों के नाम बदले गए और ‘अतिक्रमण’ हटाने की आड़ में मुगल वास्तुकला ध्वस्त किए गए। यहां तक कि दिल्ली के महरौली में एक अदद मस्जिद को भी इस आधार पर नहीं छोड़ा गया कि यह ‘आरक्षित वन में अतिक्रमण’ है जबकि उसे संबंधित वन को आरक्षित घोषित किए जाने से 400 साल पहले बनाया गया था।
अब पूजा स्थल अधिनियम पर हमला बोला गया है और सिर्फ मस्जिद और मदरसे ही नहीं बल्कि कुतुब मीनार और ताजमहल पर भी मंदिरों के ऊपर बने होने के आरोप लगाए जा रहे हैं। अगला कदम समान नागरिक संहिता होगा। इस अभियान को शिक्षा नियामक भी आगे बढ़ा रहे हैं जो यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि आने वाली पीढ़ियां ऐसी कोई भी बात नहीं पढ़ें जो सत्तारूढ़ शासन और उसके बेतुके नैरेटिव के लिए खतरा बन सकती हो। यही वजह है कि नई शिक्षा नीति (एनईपी) के तहत पाठ्यक्रम से धर्मनिरपेक्षता, संघवाद और नागरिकता के सभी संदर्भों को हटा दिया गया है।
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने एक कदम आगे बढ़ते हुए 12वीं की पाठ्य पुस्तकों से बाबरी मस्जिद को तोड़े जाने, आडवाणी की रथ यात्रा और 2002 के गुजरात दंगों के सभी संदर्भ हटा दिए हैं। इतिहास के इस ‘विध्वंस’ पर एनसीईआरटी प्रमुख ने हैरान करने वाला तर्क दिया है कि ‘हम सकारात्मक नागरिक बनाना चाहते हैं, न कि हिंसक और हताश।’ इस तर्क के अनुसार तो एक खास विचारधारा के कार्यकर्ताओं की तरह सभी लोगों को अज्ञानी और बेवकूफ बनाने के लिए इंसानी इतिहास के तकरीबन तीन-चौथाई हिस्से को मिटा देना होगा! शायद यही उनका इरादा भी है।
नया संसद भवन तो केवल इस बात का बाहरी सबूत है कि कैसे हमारे संसदीय इतिहास को भी इसके गौरवशाली अतीत और परंपराओं से अलग करके दक्षिणपंथी रंग-ढंग में ढालने के इरादे से बदला जा रहा है, असली विनाशकारी बदलाव तो इसकी दीवारों के भीतर हो रहे हैं। पिछली सभी परंपराएं एक-एक करके खत्म की जा रही हैं। चाहे बात विपक्ष से सलाह-मशविरा की हो, पीठासीन अधिकारियों के चुनाव पर आम सहमति बनाने की हो, महत्वपूर्ण विधेयकों पर विस्तृत और स्वतंत्र चर्चा हो, मीडिया द्वारा कार्यवाही की अप्रतिबंधित कवरेज हो, स्थगन प्रस्तावों को तत्काल मंजूरी देने की हो, प्रधानमंत्री द्वारा प्रश्नों के उत्तर देने की हो, महत्वपूर्ण समितियों में विपक्षी पार्टी के सदस्यों के नामांकन की हो, विधेयकों को सलाहकार समितियों के पास भेजने की हो या फिर ऐसे ही तमाम अन्य विषय।
नई परंपराएं शुरू की जा रही हैं, जैसे एक बार में सौ से ज्यादा सदस्यों को निलंबित कर देना, जल्दबाजी में और निष्पक्ष सुनवाई के बिना सदस्यों को अयोग्य घोषित कर देना, भाषणों के अंशों को बेपरवाही से निकालना- जैसा कि हाल ही में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर राहुल गांधी के भाषण से 14 जगहों पर बातें हटाई गईं जबकि प्रधानमंत्री की असंसदीय भाषा और बातों को बरकरार रखा गया।
दरअसल, प्रधानमंत्री ऐतिहासिक महत्व की हर चीज के चरित्र और प्रकृति को बदलने और उन पर अपनी खुद की आधी-अधूरी छाप छोड़ने के लिए बेताब हैं जैसे वह अपने इलाके की निशानदेही कर रहे हों। यही वजह है कि दिल दहला देने वाले जलियांवाला बाग को एक तड़क-भड़क वाले पर्यटक केन्द्र में बदल दिया जाना चाहिए, गांधी के साबरमती आश्रम को जबरदस्ती नया रूप दिया जाना चाहिए (इसके देखभाल करने वालों और उसमें रहने वालों के विरोध के बावजूद) और सैकड़ों घरों, दुकानों और छोटे मंदिरों को ध्वस्त करके अयोध्या और काशी के प्राचीन माहौल और अद्वितीय आभा का ‘आधुनिकीकरण’ किया जाना चाहिए ताकि वह ‘महान निर्माता’ भावी पीढ़ियों को आश्चर्यचकित करने के लिए उनपर अपनी गैर-जैविक निशानी उकेर सके।
इस बीच, दूसरे मोर्चों पर भी बाकायदा काम आगे बढ़ रहा है: पिछली सरकारों के किसी भी ऐतिहासिक रिश्ते को मिटा देने के लिए जनहित की पुरानी योजनाओं के नाम बदलना (यूपीए की 23 में से 19 योजनाओं के नाम बदल दिए गए हैं); असुविधाजनक आधिकारिक अभिलेखों को बदलना जैसे कैग की रिपोर्ट का वह भाग जो राफेल सौदे के वित्तीय मामलों से जुड़ा था; अदालतों में मुहरबंद लिफाफे में जानकारी देना ताकि जनता से सच्चाई को छिपाया जा सके; समारोहों के दस्ताजेवीकरण में पूर्व प्रधानमंत्रियों को नजरअंदाज करना जैसे आईसीएचआर (भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद) ने आजादी के 75वें वर्ष के उपलक्ष्य में ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ के पोस्टरों से नेहरू का नाम हटा दिया।
बीजेपी को नेहरू से दिक्कत है क्योंकि ‘सर्वोच्च’ नेता को उनकी जगह पर स्थापित करने के लिए सबसे पहले तो प्रथम प्रधानमंत्री को उनकी जगह से हटाकर नीचे लाना होगा। लेकिन दिक्कत यह है कि नेहरू को लगातार जनता के जेहन में भी बनाए रखना होगा ताकि उन्हें इस सरकार की सभी विफलताओं के लिए दोषी ठहराया जा सके। नेहरू से प्यार करें या नफरत, भाजपा उन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकती।
तीन तरह के लोग होते हैं: वे जो इतिहास बनाते हैं, वे जो इतिहास से सीखते हैं और वे जो इतिहास से डरते हैं और इसे मिटा देना चाहते हैं। इस अंतिम किस्म के लोग असुरक्षा और भय से पीड़ित होते हैं और कभी महानता की स्थिति को नहीं पा सकते।
सर वॉल्टर रैले और रानी एलिजाबेथ प्रथम से जुड़ा एक छोटा सा किस्सा याद आता है। कहा जाता है कि उनके आपसी रिश्ते में मालिक-कर्मचारी से कहीं ज्यादा कुछ था। हालांकि क्वीन द्वारा अचानक सिर काट दिए जाने की संभावनाओं वाले उस दौर में वॉल्ल्टर रैले को इस रिश्ते के बारे में अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में काफी सावधान और सतर्क रहना पड़ता था। दोनों शाही बगीचे में नियमित रूप से शाम में टहला करते थे। एक दिन, रानी ने एक दीवार पर यह पंक्ति लिखी हुई पाई: ‘मैं (इस पर) चढ़ना चाहता हूं लेकिन मुझे गिरने का डर है।’ इसके ठीक नीचे रानी ने लिखा: ‘अगर आपको गिरने का डर है तो बिल्कुल नहीं चढ़ें।’
सही ही है, अगर आप इतिहास बनाना चाहते हैं तो डर और आत्म-संदेह को किनारे रखना पड़ता है।
(अवय शुक्ला सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी हैं। यह https://avayshukla.blogspot.com से लिए उनके लेख का संपादित रूप है।)
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