चीन से आगे निकलना है तो उसी से सीखना होगा भारत को, हाल तक हमारे बराबर रहा ड्रैगन आज अमेरिका से भी आगे निकला

अगर कोई देश आगे बढ़ना चाहता है तो उसे विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान तैयार करने पर निवेश करना होता है। यही वजह है कि एम जगदीश कुमार के नेतृत्व में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग जो कर रहा है, वह भयावह है और देश में उच्च शिक्षा को बर्बाद करने की मुनादी है।

फोटोः सोशल मीडिया
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प्रबीर पुरकायस्थ

सात साल पहले दिल्ली में मेरी मुलाकात प्रोफेसर थॉमस कैलाथ से हुई थी। तब उन्होंने कहा था कि कैसे 90 के दशक में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के मामले में भारत चीन जैसे देशों से आगे नहीं तो बराबरी की स्थिति में था। बाद में भारत तेजी से पिछड़ता चला गया क्योंकि चीन ने इस क्षेत्र पर ज्यादा ध्यान दिया, इसपर ज्यादा पैसे खर्च किए।

मूलत: केरल के कैलाथ अमेरिका में बस गए हैं और वह संचार, नियंत्रण और सिग्नल प्रोसेसिंग में दुनिया के अग्रणी नामों में से एक हैं। हाल ही में ऑस्ट्रेलियन स्ट्रैटेजिक पॉलिसी इंस्टीट्यूट (एएसपीआई) की रिपोर्ट में कहा गया है कि 44 महत्वपूर्ण तकनीकों में से 37 में चीन दुनिया में अग्रणी बन गया है। एक दशक पहले लगभग इन सभी तकनीकों में अमेरिका आगे था और अब वह चीन से पिछड़कर दूसरे नंबर पर आ गया है। बाकी में भारत और इंग्लैंड आगे हैं।

भारत में हम इस बात पर खुद को दिलासा दे सकते हैं कि चीन से बुरी तरह पिछड़ गए तो क्या, तत्कालीन औपनिवेशिक ताकतों से आगे नहीं तो बराबरी पर तो जरूर हैं। वैसे, इस ट्रैकर ने अमेरिका में खतरे की घंटी बजा दी है। अब तक, वे यह सोचकर मगन रहते थे कि बेशक चीन वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक प्रतिद्वंद्वी प्रतियोगी के रूप में उभर रहा है लेकिन अमेरिका और उसके यूरोपीय सहयोगी प्रौद्योगिकी को नियंत्रित करते हैं और इसलिए ‘तकनीकी युद्ध’ में चीन का गला दबा देने में सक्षम हैं। यह चीन के खिलाफ ‘चिप युद्ध’ का आगाज है।

सवाल उठता है कि ऐसे ट्रैकर को हमें कितनी गंभीरता से लेना चाहिए? क्या हम वास्तव में विज्ञान और प्रौद्योगिकी आउटपुट को माप सकते हैं? शोध परिणामों का विश्लेषण एक मुश्किल काम है क्योंकि पत्रिकाओं और शोध-पत्रों दोनों की गुणवत्ता बहुत भिन्न हो सकती है। हालांकि एएसपीआई का दावा है कि ट्रैकर ने बहुत पहले ही दिखा दिया होता कि चीन हाइपरसोनिक्स में दुनिया में सबसे आगे है।


एएसपीआई ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, "... हमारे डेटा विश्लेषण के अनुसार, पिछले पांच वर्षों में, चीन ने हाइपरसोनिक्स सहित उन्नत विमान इंजनों से जुड़े दुनिया के उच्च प्रभाव वाले शोध पत्रों में से 48.49% तैयार किया और इस क्षेत्र में काम करने वाले दुनिया के शीर्ष दस शोध संस्थानों में से सात चीन में हैं। इसलिए अमेरिका को 2021 में चीन के हाइपरसोनिक मिसाइल परीक्षण से हैरान नहीं होना चाहिए था।

अपनाई गई पद्धति के आधार पर विज्ञान और प्रौद्योगिकी के किसी भी ट्रैकर की आलोचना की जा सकती है। सवाल यह उठता है कि क्या केवल इन संकेतकों पर विचार किया जाना चाहिए? शोधकर्ताओं को जैसे भी परिणाम की अपेक्षा रही हो, उसके प्रति ये संकेतक कितने पक्षपाती हैं? क्या भाषा का चुनाव परिणामों को अंग्रेजी नहीं बोलने वाली दुनिया के नजरिये की ओर धकेल रहा है? ये ऐसे प्रश्न हैं जो ऐसे किसी भी अध्ययन से पूछे जाने चाहिए। लेकिन जो परिणाम सामने आए, उन्हें गलत ठहराना सही नहीं। इस बात के तमाम सबूत हैं कि अमेरिका और पश्चिम की दुनिया चीन और यहां तक कि भारत के सामने पिछड़ रहे हैं।

टेक्नोलॉजी ट्रैकर में दो और भी दिलचस्प परिणाम हैं। एक यह कि ईरान भी प्रौद्योगिकी के विशिष्ट क्षेत्रों में शीर्ष पांच देशों में दिखता है, हालांकि यह भारत, यूरोपीय संघ और जापान के बराबर नहीं है। लेकिन 50 साल के आर्थिक और तकनीकी प्रतिबंधों के बावजूद उसकी यह प्रगति बताती है कि ज्ञान की दुनिया को लंबे समय तक अंधकार में नहीं रखा जा सकता। ईरान का ज्ञान विकसित करने और साझा करने का इतिहास रहा है। न तो कट्टरपंथी और न ही अमेरिकी प्रतिबंध ईरानी लोगों को वैश्विक ज्ञान अर्थव्यवस्था में भागीदार बनने से रोक सकते हैं।

दूसरा महत्वपूर्ण डेटा यह है कि उच्च प्रभाव वाले शोधपत्र तैयार करने वालों में बड़ा हिस्सा ऐसे लोगों का है जिन्होंने विदेश में पढ़ाई नहीं की। चीन का उदाहरण लेते हैं। एएसपीआई ट्रैकर बताता है कि 20 प्रतिशत उच्च प्रभाव वाले शोध पत्र तैयार करने वाले वैज्ञानिक वे हैं जिन्होंने अमेरिका, यूरोप या यूके में पढ़ाई की। यह बात काबिले गौर है कि 80 प्रतिशत उच्च-प्रभाव वाले शोधपत्रों को तैयार करने वाले लोगों ने विदेशों में नहीं बल्कि चीन में ही अध्ययन किया। हैरानी नहीं कि ऐसे वैज्ञानिकों और प्रौद्योगिकीविदों वाले चीन में दुनिया के चंद बेहतरीन संस्थान हैं।


भारतीय संस्थानों के विज्ञान और तकनीकी शोधकर्ताओं का यही रुझान ट्रैकर परिणामों में भी दिखाई देता है। ट्रैकर में एक चार्ट है जो स्रोत और गंतव्य को दर्शाता है। एक बार फिर वही बात भारत के लिए भी सही साबित होती है कि भारत में शोध का एक बड़ा हिस्सा वैसे लोगों द्वारा किया गया जो उच्च शिक्षा के लिए विदेश नहीं गए। हमारे प्रमुख संस्थान आज उच्च प्रभाव वाले अनुसंधान करने वाले शोधकर्ताओं को तैयार करने में सक्षम हैं, यह वास्तव में स्वागत योग्य है।

एएसपीआई ट्रैकर रिपोर्ट की दिलचस्प बात यह नहीं कि उसमें यह दिखाया गया है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी की रेस में कौन देश कहां है बल्कि यह है कि चीन के वैश्विक ताकत के तौर पर उभरने के पीछे क्या है। यह चीन की आत्मनिर्भरता का दर्शन है: विश्वविद्यालयों/संस्थानों से लेकर उद्योग जगत तक। यह आत्मनिर्भरता का एक ही समग्र दृष्टिकोण है, न केवल प्रौद्योगिकी खरीदना और उद्योग में निवेश करना बल्कि ऐसे संस्थानों की स्थापना करना जो ऐसी प्रौद्योगिकी का समर्थन और विकास कर सकें। चीन, भारत की तरह पहले भी आत्मनिर्भरता और विकास के ‘मेड इन चीन’ मॉडल की बात करता था। किसी राष्ट्र का विकास केवल पैसे वाली पूंजी से नहीं होता बल्कि हकीकत यह है कि एक आत्मनिर्भर उद्योग के लिए बुनियाद के तौर पर काम आती है ज्ञान की पूंजी।

‘मोदी युग’ में मेक इन इंडिया के रास्ते विदेशी पूंजी निवेश से भारत को फिर से महान बनाने का दौर चल निकला है लेकिन इस बात को भुला दिया गया कि ज्ञान सबसे महत्वपूर्ण है। पूंजी सिर्फ पैसा नहीं है बल्कि शोधकर्ताओं और वैज्ञानिकों के संचित श्रम के रूप में अर्जित ज्ञान भी पूंजी है। इसीलिए मार्क्स वैज्ञानिकों (और प्रौद्योगिकीविदों) के श्रम को सार्वभौमिक श्रम के सबसे निकट बताते हैं। इसीलिए अगर कोई देश आगे बढ़ना चाहता है तो उसे विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थानों के निर्माण में निवेश करने की जरूरत पड़ती है।

यही कारण है कि एम. जगदीश कुमार के नेतृत्व में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग जो कर रहा है, वह इतना भयावह है और देश में उच्च शिक्षा को बर्बाद करने की मुनादी कर रहा है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के शिक्षकों और छात्रों पर चौतरफा हमला करने के बाद वह देश की पूरी उच्च शिक्षा व्यवस्था पर इसे दोहराने की धमकी दे रहे हैं। अगर उच्च शिक्षा में उनकी चली तो वह भारत के संस्थानों को विदेशी संस्थानों का फीडर बनाकर छोड़ देंगे और इस तरह उन्नत शिक्षा के केन्द्र के रूप में भारत को तबाह कर देंगे।


विदेशी विश्वविद्यालयों को यहां दुकानें खोलने का न्योता देने के साथ विदेशी संस्थानों को भारत से प्रतिभाशाली छात्रों को चुनने, उन्हें अपने मूल देश ले जाने और उनकी डिग्री को ‘बेचकर’ कमाई करने का मौका दिया जा रहा है। क्या यह बात विश्वास करने लायक है कि अमेरिका और दूसरे देश एक उन्नत संस्थान के लिए जरूरी प्रयोगशालाओं और शोध का बुनियादी ढांचा विकसित करने के लिए यहां भारी-भरकम निवेश करेंगे?

ऑस्ट्रेलियाई विश्वविद्यालयों पर भारत में सेंटर खोलने के लिए डोरे डालने का मतलब क्या है? क्या यह इसलिए है कि हमारे पास पैसे नहीं हैं? तो क्या हम चीन की बराबरी करने वाली उभरती हुई ताकत नहीं हैं? या इसकी वजह केवल यह भरोसा है कि एक ‘गोरा व्यक्ति’ भारतीय शिक्षा को आसमान पर पहुंचा देगा?

(सौजन्य: पीपुल्स डेमोक्रेसी)

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