कोरोना वैक्सीन: देश के पास क्षमता भी है और बुनियादी ढांचा भी, लेकिन सरकारी नीतियों के भ्रम ने फैला दी अव्यवस्था

भारत में टीके बनाने का इतिहास 1850 से शुरु होता है। हाल की बात करें तो 2011 में भारत में सिर्फ 5 दिनों के भीतर 5 साल से कम उम्र के 17.2 करोड़ बच्चों को पोलियो वैक्सीन दी गई थी। भारत के पास वैक्सीन तैयार करने की क्षमता और बुनियादी ढांचा बहुत पहले से है।

फोटो : Getty Images
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पापरी श्री रमन

प्रोफेसर गगनदीप कांग का कहना है कि भारत में वैक्सीन लेने के प्रति लोगों में हिचकिचाहट बढ़ती जा रहीहै। और उनकी इस बात पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं। लेकिन यह सवाल जरूर उठता है कि आखिर ऐसा क्यों? क्या इसका कारण कोविड वैक्सीन को लेकर समय-समय पर जारी सरकारी निर्देशों से जन्मा भ्रम है? या इसका कारण बिना तय प्रक्रिया का पालन किए आनन-फानन में कोवैक्सीन की दी गई मंजूरी है जिसके परिणामस्वरूप विश्व स्वास्थ्य संगठन और अमेरिका जैसे देशों ने अब तक इसे मंजूरी नहीं दी है?

अगर मैं वैश्विक नागरिक बनने की चाहत रखने वाली कम उम्र की महिला होती, तो यह सोचकर ही कांप जाती कि मैंने एक ऐसी वैक्सीन लगवा ली है जिसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता तक नहीं मिली है। आखिर कोई ऐसी वैक्सीन क्यों ले जो बाहर जाने में काम ही न आए?

अब एक और बात पर ध्यान दें। 2019 के बाद यूनिवर्सल इम्युनाइजेशन प्रोग्राम का डेटा कहां है? महज इसलिए कि प्रधानमंत्री ने कह दिया कि 90 फीसदी कवरेज है, हमें इसे भगवान के मुंह से निकली बात मान लेनी चाहिए? विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ), यूनाइटेड नेशन चिल्ड्रेन्स फंड (यूनिसेफ), ग्लोबल अलायंस फॉर वैक्सीन्स एंड इम्युनाइजेशन (गावी) और हेल्थ मैनेजमेंट इन्फॉर्मेशन सिस्टम (एचएमआईएस) तक के डेटा प्रधानमंत्री के दावे की पुष्टि नहीं करते। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो यहां तक दावा किया है कि 2014 से पहले केवल 60 फीसदी कवरेज था। क्या इसका यह मतलब है कि 2015 के बाद जन्मे हर बच्चे को मीजल्स-रुबेला या फिर पोलिया की वैक्सीन दी जा चुकी है?

इसके उलट, आंकड़े तो भारत में किसी भी प्रतिरक्षण कार्यक्रम की संतोषजनक तस्वीर पेश नहीं करते। एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट के मुताबिक, नेशनल इम्युनाइजेशन प्रोग्राम (एनआईपी) का कवरेज अच्छा नहीं है। हर पांच में से तीन ही बच्चों को सभी वैक्सीन मिली हैं और हर चार में से तीन बच्चों को ही डीपीटी वैक्सीन का तीसरा डोज मिल सका है। इसके साथ ही रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र है कि कार्यक्रम की निगरानी व्यवस्था में भी कमी दिख जाती रही है और प्रतिरक्षण कार्यक्रम का कवरेज बढ़ाने की गति भी अपेक्षाकृत धीमी है। जन्म के बाद पहले साल शिशु को कई तरह की वैक्सीन दी जाती हैं लेकिन वर्ष 2016 की ही बात करें तो इस दौरान जन्मे 38 फीसदी शिशुओं को वे सभी तय वैक्सीन नहीं दी जा सकीं। हर साल 2.7 करोड़ शिशुओं को ये वैक्सीन दी जानी चाहिए। इस संख्या में करीब 3 करोड़ गर्भवती महिलाओं को भी जोड़ लें। लेकिन वस्तुस्थिति क्या है?

डब्लूएचओ-यूनिसेफ की 2018 की वैश्विक समीक्षा के मुताबिक, उपयुक्त वैक्सीन प्रबंधन के मामले में 89 देशों में भारत का स्थान 51 से 75 के बीच रहा है। अगर वैक्सीन प्रबंधन रैंकिंग नीची (62) है तो लॉजिस्टिक संबंधी रखरखाव के मामले में रैंकिंग भी नीची (64) है। हेल्थ मैनेजमेंट इन्फॉर्मेशन सिस्टम के आंकड़ों के मुताबिक, इम्युनाइजेशन प्रोग्राम पर लॉकडाउन के कारण काफी प्रतिकूल असर पड़ा। जनवरी से जून, 2020 के दौरान इसका स्तर काफी नीचे आ गया। 2021 की समान अवधि के दौरान स्थिति क्या रही, इसकी कोई जानकारी नहीं।


दुनिया के सबसे बड़े मीजल्स-रुबेला कैंपेन के तहत भारत ने वर्ष 2017 में कहा था कि वह 15 साल से कम के 41 करोड़ बच्चों का 2020 तक वैक्सिनेशन करेगा जबकि नवंबर, 2018 तक 13.5 करोड़ बच्चों का ही वैक्सिनेशन हुआ। मई, 2018 से अप्रैल, 2019 तक भारत में मीजल्स के 47,056 और रुबेला के 1,263 मामले आए। 2019 से 2021 के बीच के आंकड़ों का अभी इंतजार है।

क्या चुनाव में जा रहे उत्तर प्रदेश में 15 साल के सभी बच्चोंका वैक्सिनेशन हो चुका है और क्या इसका कवरेज 90 फीसदी है? और बिहार की क्या स्थिति है?

अब कोरोना वैक्सीन की बात। देश को दो अरब डोज की जरूरत है। सरकार का दावा है कि जून में 12 करोड़ डोज मिल जाएंगे। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के प्रोफेसर आर. राम कुमार इस दावे पर सवाल उठाते हुए आरोप लगाते हैं कि सरकार ने उत्पादन क्षमता संबंधी आंकड़ों में हेराफरी की है। जून में 12 करोड़ डोज लगाने के लिए उत्पादन क्षमता करीब 15 करोड़ मासिक होनी चाहिए। लेकिन सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक मई के महीने में ज्यादा से ज्यादा 8 करोड़ डोज बना पाए। प्रो. राम कुमार कहते हैं कि कोविन ऐप के मुताबिक, मई में सिर्फ 5.9 करोड़ डोज दिए जा सके।

विशेषज्ञों का कहना है कि कोरोना वायरस को प्रोसेस होकर वैक्सीन के तौर पर इस्तेमाल योग्य बनने में दो महीने का वक्त लगता है। जाहिर है, जून में 12 करोड़ डोज देने के लिए इसकी प्रोसेसिंग इस साल फरवरी-मार्च में हो जानी चाहिए थी।

कोवैक्सीन को डब्लूएचओ से मंजूरी मिलनी अभी बाकी है, स्पुतनिक की मात्रा को लेकर पूरी स्पष्टता नहीं है, एस्ट्राजेनेका के लिए यूरोप में समस्याएं खड़ी हो गई हैं और दो डोज के बीच कितना अंतर होना चाहिए, इस पर सरकार की ओर से दिए जा रहे भ्रामक संकेतों से आम लोग तो पूरी तरह भ्रमित होकर रह गए हैं। जहां तक बच्चों की बात है, जाइडस कैडिला आई नहीं है और हमारे सामने बस फाइजर का ही विकल्प है। तो ऐसे में 10 करोड़ बच्चों का क्या?

हजार तरह के इन भ्रमों के बीच तमिलनाडु सरकार की ओर से घोषणा की गई है कि 114 साल पुराना पेश्चर इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया एक माह में 10 करोड़ डोज बना सकता है। तमिलनाडु के स्वास्थ्य मंत्री सुब्रमण्यम ने कहा कि उसे केवल कच्चे माल की जरूरत होगी। ऐसा ही था तो यह इंस्टीट्यूट अब तक कहां था?


यह सही है कि भारत में वैक्सीन उत्पादन का लंबा इतिहास है और यह वर्ष 1850 में ही बंबई और मद्रास में शुरू हो गया था। 1892 में अनिवार्य टीकाकरण कानून बना। रिकॉर्ड के मुताबिक, 1938 में ब्रिटिश इंडिया के करीब 80 फीसदी जिलों में यह कानून व्यवहार में था और वस्तुतः आज भी है। 1893 में वाल्डेमर हैफकिन ने हैजे की वैक्सीन का ट्रायल आगरा में किया था। 1896 में जब प्लेग की महामारी फैली, अंग्रेज सरकार ने हैफकिन को प्लेग की वैक्सीन पर काम करने को कहा और उन्हें अपनी प्रयोगशाला बनाने के लिए ग्रांट मेडिकल कॉलेज में दो कमरे दिए। हैफकिन 1897 में प्लेग वैक्सीन बनाने में कामयाब रहे और यह भारत में विकसित पहली वैक्सीन थी।

ग्रांट मेडिकल कॉलेज आज पर्यटक स्थल है। वैक्सीन को खोजने की कहानी एक किताब की शक्ल में दर्ज की गई है और इसे यहां रखा गया है। इस किताब को लिखा है कल्पेश और रत्नानाम के दो डॉक्टरों ने। 1899 के बाद यहां एक बैक्टीरियोलॉजिकल लैब की स्थापना की गई जिसे आज हॉफकिन इंस्टीट्यूट के नाम से जाना जाता है।

चेचक की वैक्सीन का उत्पादन 1890 से ही शिलांग और कुछ अन्य जगहों पर शुरू हो चुका था। 1905 में कसौली में सेंट्रल रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना की गई और उसके दो साल बाद कुन्नूर में पेश्चर इंस्टीट्यूट। वर्षों तक पेश्चर इंस्टीट्यूट में एंटी-रैबीज, पोलियो वैक्सीन का उत्पादन होता रहा और यह इन्फ्लूएंजा वैक्सीन के मामले में एक प्रमुख शोध केंद्र रहा है।

कोरोना एक सार्स फ्लू वायरस है और इसकी वैक्सीन तैयार करने में इसकी भूमिका हो सकती थी। विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में वैक्सीन बनाने वाले सबसे पुराने केंद्रों में से एक पेश्चर इंस्टीट्यूट अपने आप में एक इनोवेशन है। यहां का बुनियादी ढांचा इस तरह विकसित किया गया है कि यहां शोध और विकास तथा उत्पादन- दोनों काम एक ही छत के नीचे होते हैं। ऐसे में सवाल तो यह है कि कोविड वैक्सीन विकसित करने के काम से इसे अलग क्यों रखा गया?


जब भारत आजाद हुआ, टीबी एक बड़ी समस्या थी और 1948 में ही मद्रास के किंग इंस्टीट्यूट में बीसीजी की वैक्सीन बनने लगी। 1977 में जब भारत को चेचक-मुक्त घोषित किया गया, उस समय पूरे देश में टीकाकरण अभियान चलाया गया था और इस कार्यक्रम को और भी गति मिली जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसे 20 सूत्री कार्यक्रम में शामिल किया। 1986 में टीकाकारण को और अहमियत मिली जब इसे पांच तकनीकी मिशनों में शुमार किया गया। इसे यूनिवर्सल इम्युनाइजेशन प्रोग्राम कहा गया और 1990 के बाद कवरेज लक्ष्य सौ फीसदी कर दिया गया। आज इस प्रोग्राम के तहत 27 वैक्सीन आती हैं। 2008 से 2010 के बीच सरकार ने प्रोटोकॉल संबंधी दिक्कतों के कारण कसौली के सेंट्रल रिसर्च इंस्टीट्यूट, कुन्नूर के पेश्चर इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के अलावा चेन्नई के बीसीजी वैक्सीन लैबोरेटरी के लाइसेंस निलंबित जरूर कर दिए। लेकिन पिछले एक दशक से ये सभी पूरी तरह काम कर रहे हैं। देश में वैक्सीन के क्षेत्र में शोध करने वाले करीब 26 संस्थान हैं जो लगातार अनुसंधान और विकास के काम में जुटे हैं। आज स्थिति यह है कि भारत के पास रोटा वायरस को छोड़कर दुनिया की ज्यादातर वैक्सीन को तैयार करने की क्षमता है। इसलिए मुझे इस बात पर हैरत होती है कि आखिर, सरकार ने अन्य संस्थानों को कोविड वैक्सीन बनाने की अनुमति देने के लिए मई, 2021 तक इंतजार क्यों किया? पूरी दुनिया में 2019 के जाड़े में ही वैक्सीन का ट्रायल शुरू हो चुका था और ऐसे में सरकार ने इस क्षेत्र में केवल सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक को ही अनुमति क्यों दी?

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